दसवें स्थान के कवि की मातृभाषा तेलगू है मगर हिन्दी में भी इतनी अच्छी कविताएँ लिखते हैं कि हमारे निर्णायक प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके। आज हम इनकी कविता 'अभिनव पद्यव्यूह' लेकर उपस्थित हैं।
नाम- डॉ. सी. जय शंकर बाबू
जन्मतिथि- 2 अगस्त, 1969
स्थान- गुंतकल, आंध्र प्रदेश
मातृभाषा – तेलगू
अन्य भाषा ज्ञान – कन्नड़, तमिल, उर्दू, अंग्रेज़ी
शिक्षा- एम.ए(हिंदी),पीएच.डी.(हिंदी) (मैसूर विश्वविद्यालय)
अनुवाद स्नातकोत्तर डिप्लोमा, पत्रकारिता स्नातकोत्तर डिप्लोमा (इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय)
राष्ट्रभाषा प्रवीण, राष्ट्रभाषा निष्णात, हिंदी अध्यापन डिप्लोमा (दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा, मद्रास)
पत्रकारिता-सेवा – संपादन एवं प्रकाशन – युग मानस (साहित्यिक त्रैमासिकी) 1996 से 2003 तक ।
वर्तमान-जिम्मेदारियाँ –
सहायक निदेशक (राजभाषा), कर्मचारी भविष्य निधि संगठन, क्षेत्रीय कार्यालय, कोयंबत्तूर
सदस्य-सचिव, नगर राजभाषा कार्यान्वयन समिति, कोयंबत्तूर
सम्मान - साहित्यिक पत्रकारिता सेवा के लिए कई संस्थाओं द्वारा सम्मानित ।
सम्पर्क-
# 61, भविष्य निधि नगर, पीलमेडु पोस्ट, कोयंबत्तूर (तमिलनाडु) – 641 004
ई-मेल - yugmanas@gmail.com
पुरस्कृत कविता- अभिनव पद्मव्यूह
द्वापर का अभिमन्यु
दुस्साहस का प्रतीक था
पद्मव्यूह को भेदकर
परमगति को प्राप्त हुआ था ।
पराये नहीं थे उसके कोई
अरि-भाव से कायर बनकर
उसके अपने ही नाते-रिश्तों ने
अबोध अभिमन्यु का ...
अन्यायपूर्वक अंत कर दिया
वीर, शूर, साहसी अभिमन्यु का
बड़ी लालसा से मृत्यु ने वरण किया ।
किंतु, आज भी अभिमन्यु
हमारी स्मृतियों में अमर है ।
अनन्य था उसका साहस
अधूरे ज्ञान से किया था उसने दुस्साहस !
अधूरे ज्ञान के अभिनव अभिमन्यु
आज भी नज़र आ रहे हैं
जात-पाँत के दायरे में फँसकर
लौट नहीं पा रहे हैं
सांप्रदायिक दायरे में फँसकर
साहसी अभिमन्यु-सा संघर्ष करने लगे हैं।
सब अपने ही तो हैं
जाति पाँत अपना, संप्रदाय अपना
पराया यहाँ कोई नहीं,
किंतु इन्सान के जीवन भर आज
'कुरुक्षेत्र' बरक़रार है!
जात-पाँत, संप्रदाय एवं भ्रष्टाचार के
पद्मव्यूह में फँसकर वह
लौट नहीं पा रहा है
अधूरे ज्ञान के कारण हो
अपने ही लोगों की कूटनीति के कारण हो
आखिर द्वापर का अभिमन्यु
अठारह दिन की लड़ाई के क्रम में
पद्मव्यूह में फँस कर मरा था ।
अपार ज्ञान का स्वामी होते हुए भी
अधूरे सोच से आज का इन्सान
जीवन भर के कुरुक्षेत्र में
अभिनव अभिमन्यु बनकर
अपने बने-बनाये दायरों में
जात-पाँत, संप्रदाय एवं भ्रष्टाचार के पद्मव्यूह में
फँसकर आजीवन तड़प रहा है
पता नहीं, वह बच पाएगा कि नहीं !
हे ईश्वर, विधाता, परमपिता !
अर्जुन-सा आगे पछताने से बचकर
अपने कलेजे के टुकड़े को बचालो
अभिनव पद्मव्यूह से
मुक्ति उसे दिलाओ !
जजों की दृष्टि-
प्रथम चरण के ज़ज़मेंट में मिले अंक- ६॰१, ६॰५
औसत अंक- ६॰३
स्थान- सोलहवाँ
द्वितीय चरण के ज़ज़मेंट में मिले अंक- ८॰७५, ६॰६, ५॰६, ६॰३ (पिछले चरण का औसत)
औसत अंक- ६॰८१२५
स्थान- सातवाँ
तृतीय चरण के ज़ज़ की टिप्पणी-'चक्रव्यूह' की जगह कवि ने 'अभिनव पद्यव्यूह' शब्द का प्रयोग किया है। यह शब्द नया ज़रूर है मगर वांछित अर्थ नहीं देता। चक्रव्यूह (चक्राकार) शाब्दिक अर्थ के अलावा एक जटिलता का भी बोध कराता है, वहीं 'अभिनव पद्यव्यूह' (कमल के आकार का है और अभिनव है) से एक शुभ और स्वस्तीकर होने का बोध होता है, जबकि कविता में इसका प्रयोग जटिलता के संदर्भ में ही है। स्थापित उद्धहरणों और शब्दों का प्रयोग वैसा ही होना चाहिए जैसा वो स्थापित हैं। स्थितियाँ समकालीन हो सकती हैं।
कविता में अभिमन्यु को अलग-अलग स्थानों पर अलग-अलग तरह से निरूपित किया गया है, यथा अबोध अभिमन्यु, अधूरे ज्ञान से किया था उसने दुस्साहस एवम् अपार ज्ञान का स्वामी, जबकि मूल स्वर एक ही है। कवि को यह समझना चाहिए कि जो अबोध और अधूरे ज्ञान का स्वामी है वो अपार ज्ञान का स्वामी कैसे हो सकता है! यहाँ कवि को भटकाव से बचना था।
मौलिकता: ४/२ कथ्य: ३/२ शिल्प: ३/॰५
कुल- ४॰५
स्थान- नौवाँ
अंतिम ज़ज़ की टिप्पणी-
कविता मे महाभारत के जिस प्रसंग का कवि ने उल्लेख किया है उसकी तथ्यगत प्रस्तुति नहीं है। अभिमन्यु ने पद्मव्यूह नहीं चक्रव्यूह तोड़ने का दुस्साहस किया था। कविता लच्छेदार हो गयी है और बीच से अंत तक लचर भी है। सोच अच्छी है।
कला पक्ष: ४/१०
भाव पक्ष: ५॰५/१०
कुल योग: ९॰५/२०
पुरस्कार- प्रो॰ अरविन्द चतुर्वेदी की काव्य-पुस्तक 'नक़ाबों के शहर में' की स्वहस्ताक्षरित प्रति
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8 कविताप्रेमियों का कहना है :
शंकर जी
बहुत ही बढ़िया लिखा है. कविता मैं ओज गुण की प्रधानता है. नई सोच है.
अधूरे ज्ञान के अभिनव अभिमन्यु
आज भी नज़र आ रहे हैं
जात-पाँत के दायरे में फँसकर
लौट नहीं पा रहे हैं
सांप्रदायिक दायरे में फँसकर
साहसी अभिमन्यु-सा संघर्ष करने लगे हैं।
सब अपने ही तो हैं
जाति पाँत अपना, संप्रदाय अपना
बहुत अच्छे
जयशंकर जी,
आपने मुद्दे तो बढ़िया उठाये हैं लेकिन बिम्बगत असावधानी के चलते कविता बिखर गई है। जजों ने इतना कुछ कहा है, मुझे अधिक कहने की आवश्यकता नहीं है। बस इतना कहूँगा कि प्रयास ज़ारी रखें।
जय शंकर जी आपकी प्रस्तुति बेहद सराहनीय है.
जो मुद्दा आपने उठाया वह किसी का भी ध्यान बरबस ही आकृष्ट कर लेते हैं
बहुत बहुत बधाई
आलोक सिंह "साहिल"
-अभी तक मैंने जितनी भी इस महीने की इस प्रतियोगिता की कवितायेई पढी उनका विषय कुछ हट कर लगा..
- इस कविता के बारे मै ये कहूँगा
१) विषय अच्छा चुना है की "अधूरा ज्ञान"
२) उसे इतिहास से भी अच्छी तरह नहीं जोड़ पाए.. (मै जजों से सहमत हूँ )
३) अगर इतिहास हटा कर पढी जाय तो ज्यादा अच्छी लगती है पढ़ने मै .. और सार्थक भी लगती है
अच्छा प्रयास है.. आगे की कविताओं के लिए शुभकामनाएं
सादर
शैलेश
कवि अभिमन्यू
मात्रभाषा न होते हुये भी जिस बखूबी से हिन्दी कविता का चक्रव्यूह तोड़ा है, कुछ घाव तो आपको
लगने ही थे पर साहस और सफल अभिव्यक्ति के लिये बधाई
शंकर जी ,
-आप की कविता में आप का चिंतन झलक रहा है .
-इतिहास की घटनाओं से ही हम सीख ले कर भविष्य को सुन्दर और सफल बना सकते हैं .
-तृतीय जज की बात से सहमत हूँ.
लेकिन एक अच्छा सन्देश देने की सफल कोशिश की गयी है.
-'अधूरे ज्ञान के अभिनव अभिमन्यु
आज भी नज़र आ रहे हैं
जात-पाँत के दायरे में फँसकर
लौट नहीं पा रहे हैं------------'
बेहद सराहनीय है.
-आप की अभिव्यक्ति कविता का अर्थ समझाने में सफल रही इस के लिए आप को बधाई.
पौराणिक पात्र के माध्यम से आज की समस्याऒं को निरुपित किया है । बेहतरीन तरीके से........ बधाई
तथ्यगत खामियों के बावजूद कविता अप्ना संदेश देने में सफ़ल है।
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