आज बारी है सातवीं कविता की जिसके रचनाकार पंकज रामेन्दू मानव हिन्द-युग्म के सक्रियतम प्रतिभागी कवियों एवम् पाठकों में से हैं. पिछले ५-६ महीनों से लगातार प्रतियोगिता में भाग ले रहे हैं और अच्छी बात यह है कि हमेशा ही टॉप २० में रहे हैं। आज हम इनकी कविता 'धर्म-एक मीमांसा' के साथ इनका पूरा परिचय भी प्रकाशित कर रहे हैं।
इनका जन्म मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में २९ मई १९८० को हुआ। इनको पढ़ने का शौक बचपन से है, इनके पिताजी भी कवि हैं, इसलिए साहित्यिक गतिविधयों को इनके घर में अहमियत मिलती है। लिखने का शौक स्नातक की कक्षा में आनेपर लगा या यूँ कहिए की इन्हें आभास हुआ कि ये लिख भी सकते हैं। माइक्रोबॉयलजी में परास्नातक करने के बाद P&G में कुछ दिनों तक QA मैनेज़र के रूप में काम किया, लेकिन लेखक मन वहाँ नहीं ठहरा, तो नौकरी छोड़ी और पत्रकारिता में स्नात्तकोत्तर करने के लिए माखनलाल चतुर्वेदी विश्वविद्यालय जा पहुँचे। डिग्री के दौरान ही ई टीवी न्यूज़ में रहे। एक साल बाद दिल्ली पहुँचे और यहाँ जनमत न्यूज़ चैनल में स्क्रिप्ट लेखक की हैसियत से काम करने लगे। वर्तमान में 'फ़ाइनल कट स्टूडियोज' में स्क्रिप्ट लेखक हैं और लघु फ़िल्में, डाक्यूमेंट्री तथा अन्य कार्यक्रमों के लिए स्क्रिप्ट लिखते हैं। कई लेख जनसत्ता, हंस, दैनिक भास्कर और भोपाल के अखबारों में प्रकाशित। कविता पहली बार हिन्द-युग्म को ही भेजी और इससे पहले कभी प्रयास नहीं किया।
पुरस्कृत कविता- धर्म-एक मीमांसा
मनुष्य को जानवर से इंसान बनाना था,
तब मेरा धरती पर आना हुआ
इंसान ने मुझे धारण किया
तब सभ्यता का अवतरण हुआ
कभी ईसा बनकर, कभी मसीहा बनकर
कभी राम के रूप में कभी रहीम के स्वरूप में
मैं इंसानियत की रूह क़ायम करता रहा
सत्य,करुणा, प्रेम, संयम
सभ्य समाज निर्माण में मेरा एक आयाम थे।
समाज बढ़ा, विकसित हुआ
और मैं, मैं विभाजित हुआ।
कभी गोल टोपी पहने अल्ला हूँ के नारो ने
कभी गेरूआ पहने जय श्री राम के जयकारों ने
कभी सच्चा सौदा करने वाले नानक की ओट ने
तो कभी क्रॉस लटकाती धर्म परिवर्तन की चोट ने
इंसानी रिश्तों को काट दिया
और मुझे टुकड़ों-टुकडों में बांट दिया
अब कहीं ट्रेन में बम फटता है
या कहीं गिरती हुई ईमारत का ग़ुबार छंटता है
तो नुचा हुआ लुटा पिटा, चिथडों में तब्दील
खून से लथपथ, बेसहारा, हताहत
मैं बिखरा हुआ पड़ा रहता हूँ
धरती पर बिखरे हुए मेरे विभिन्न टुकड़ों से
जब खून रिसता है,
तो उसमें एक ही दर्द होता है
उसमें एक ही रंग बसता है
मुझे ना जानने वाले ही एक दूसरे को काटते हैं
मुझे राम में, रहीम में ईसा में और नानक में बांटते हैं
मैं धर्म हूँ, मेरा अर्थ धारण करना है,
एक दूजे में प्रेम का, सदभाव का संचारण करना है
मैं धर्म हूँ, मेरे रूप अनेक हैं
किंतु परछाई एक हैं।
इंसान से जानवर बना मानव
फिर एक दिन मेरा अर्थ जानेगा
शरीरों में बसती मेरी एक आत्मा को पहचानेगा
उस दिन मेरी थकी हुई बोझिल आत्मा
फिर जी उठेगी
मेरे सम भावों की मुस्कुराहट फिर लहकेगी
जजों की दृष्टि-
प्रथम चरण के ज़ज़मेंट में मिले अंक- ६॰३, ६॰५
औसत अंक- ६॰४
स्थान- बारहवाँ
द्वितीय चरण के ज़ज़मेंट में मिले अंक- ८, ७॰३, ५॰४५, ६॰४ (पिछले चरण का औसत)
औसत अंक- ६॰७८७५
स्थान- आठवाँ
तृतीय चरण के ज़ज़ की टिप्पणी-नएपन का अभाव और प्रवचनात्मक।
मौलिकता: ४/१ कथ्य: ३/॰६ शिल्प: ३/२॰५
कुल- ४॰१
स्थान- दसवाँ
अंतिम ज़ज़ की टिप्पणी-
विश्लेषनात्मक रचना में कोई नयी बात अथवा कोई शिल्पगत नवीनता नहीं है। खींच-खींच कर स्थापित सत्य को पुनर्परिभाषित किया गया है। रचना में आशावादिता भरा अंत इसके प्राण हैं।
कला पक्ष: ६/१०
भाव पक्ष: ५॰५/१०
कुल योग: ११॰५/२०
पुरस्कार- प्रो॰ अरविन्द चतुर्वेदी की काव्य-पुस्तक 'नक़ाबों के शहर में' की स्वहस्ताक्षरित प्रति
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9 कविताप्रेमियों का कहना है :
okjunमानव जी आपकी धर्म: एक मीमांसा बहुत ही जोरदार रचना है,इसके लिए दिल से ढेरों शुभकामनाएं , साथ ही आपके सफलता पेर भी बधाईयाँ
अलोक सिंह "साहिल"
पंकज जी,
अच्छी सोच है आपकी,.....मगर कविता की दृष्टि से थोडी शिल्पगत कमियों पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए...
कोशिश जारी रहे,.....
निखिल
यार सीधे इसा तक जा पहुचे । भारत की भुमी के बाहार का कोइ भी धर्म मुझे स्विकार्य नही है । क्योकी धर्म का सिधा प्रभाव राष्ट्रिय आस्था पर पडता है । धारण करो इस सत्य को ।
अच्छी कोशिश....लिखते रहें
"करत करत अभ्यास के जडमति होत सुजान"...
फिर आप तो लेखन की विधा में पहले से ही हैँ...
अपुन के बस की तो इतनी भी नहीं है...
पुरानी बात, नए शब्दों के साथ
अच्छी रचना के लिए साधुवाद
पुरस्कार के लिए बधाई .
बेशक विषय पुराना है लेकिन अंत में एक उम्मीद के साथ आपने कविता पूरी की है.यह अच्छा किया है.आशा नहीं छोड़नी चाहिये.
आप जैसे युवा ही इस देश की उम्मीद हैं.
लिखते रहीये.
आलोचनाओं पर ख़ास ध्यान दें इन्हीं से हम सीखते हैं.
पंकज जी
आप की कविता मुझे पसंद आई क्युकी
१) बहुत ही सवेदंशील विषय पर आपने कविता बहुत अछे से लिखी है
२) धरम का ऐसा लगता है पूरा जीवन चक्र दिखाया गया है
३) धरम के सभी पहलुवो को बहुत अछे तरीके से कहा है
४) बीच बीच मै अच्छी सीक्षा भी दी है जैसे
"मैं धर्म हूँ, मेरा अर्थ धारण करना है,
एक दूजे में प्रेम का, सदभाव का संचारण करना है"
अंत मै एक चीज़ जरूर कहना चाहूँगा
थोडा अच्छे तरीके से और कहा जा सकता था..
पर मुझे यकीन है..आप अपनी हर कविता के साथ सुधार लाते रहेंगे..
सादर
-शैलेश
मानव जी,
अच्छी कविता है। कम से कम अपने अंदर के मानव को बचाए रहियेगा।
we sabhi jinhone meri kavita ko pada aur jinhone us par apne vichar vyakt kiye me unhe dhanyawad deta hun, sath hi me yeh kahna chahta hun ki , (shayad mere samjhane me koi truti rah gai ho) darasal yeh kavita jise updeshatmak kaha gaya hai, unhe me bahut hi aagrah ke sath kahna chahunga ki is kavita me dharm swayam khud ko mimansit kar raha hai, isliye iska kathhya is prakar ka hai, aur jahan tak shilpgat truti ka sawal paida hota hai to me har ki tarah yahi kahunga ki me bhavna ko zyada tavajjo deta hun aur doosri baat lekhak aur kavi to bhasa ke rachiyat hota hai.
sabhi ko dhanyawad
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