अरी सांझ !
तू मत डरपा
मैं जानूं
तम की कोख
सवेरा उपजे
उपजेगा मैं मानूँ.
क्लान्त सभी
भयभीत पखेरू
नीड़ खोजते जाते
अस्त हुये
रवि की किरणों से
इन्द्रधनुष उपजाते
सतरंगी स्वप्नो
में आकर
आशा मुझे जगाये
तम का भय
अब शेष नहीं है
पास सवेरा आये
'नया सवेरा'
आयेगा ही
भयातीत हो मानूं
तम की कोख
सवेरा उपजे
उपजेगा मैं मानूँ.
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19 कविताप्रेमियों का कहना है :
आपकी अपनी तरह की प्रस्तुति, शब्दों का शानदार सामंजस्य
उत्कृष्ट रचना के लिए साधुवाद
'कान्त जी'
शब्दों के परफेक्ट चुनाव ने एक साधारण विषय की कविता को बहुत ही सुंदर,रोचक व पठनीय बना दिया है।
बधाई
अरे वाह जी वाह shrikant जी, क्या खूब लिखा आपने,बेहद मनोहारी और उत्कृष्ट रचना
बधाई हो.
अलोक सिंह "साहिल"
बहुत श्रंग लिये हुए कविता..
जबरदस्त शब्द चयन हमेशा की तरह..
क्लान्त सभी
भयभीत पखेरू
नीड़ खोजते जाते
अस्त हुये
रवि की किरणों से
इन्द्रधनुष उपजाते
बहुत बहुत बधाई
सतरंगी स्वप्नो
में आकर
आशा मुझे जगाये
तम का भय
अब शेष नहीं है
पास सवेरा आये
बहुत ही सुंदर शब्दों से सजी यह रचना एक आशा का संचार कर गई दिल में
बहुत ही सुंदर लफ्जों से सजाया है आपने इसको श्रीकांत जी .बधाई आपको !!
'रात के बाद सुबह आती है-'-
बहुत बार सुनी -कही बात को सुंदर तरीके से आपने अपनी कविता में प्रस्तुत किया है.
क्लान्त सभी
''भयभीत पखेरू
नीड़ खोजते जाते
अस्त हुये
रवि की किरणों से
इन्द्रधनुष उपजाते''
बहुत खूब लिखा है!
शब्दों का चयन और कविता का सुंदर गठन अच्छी कविता होने का श्रेय ले रहे हैं.
धन्यवाद.
श्रीकान्त जी,
हर सवेरे का जन्म एक अन्धेरे की कोख से... सुन्दर आशावादी भाव लिये एक सशक्त कविता.
श्रीकांत जी
बहुत ही प्रभी कविता लिखी है.. आशा का सुंदर संदेश दिया है
'नया सवेरा'
आयेगा ही
भयातीत हो मानूं
तम की कोख
सवेरा उपजे
उपजेगा मैं मानूँ.
बधाई स्वीकारें
श्रीकांत जी,
सर्वप्रथम तो आपकी शैली की प्रशंसा करना चाहूंगा। जानूं, मानूं, अरी, उपजे जैसे शब्दों नें रचना का प्रवाह और कलात्मकता बढायी है।
'नया सवेरा'
आयेगा ही
भयातीत हो मानूं
तम की कोख
सवेरा उपजे
उपजेगा मैं मानूँ.
भयातीत हो कर नये सवेरे को मानने के कथ्य नें रचना को और प्रभावी बनाया है।
*** राजीव रंजन प्रसाद
लगता है आज युग्म पर आशा दिवस मनाया जा रहा है
सतरंगी स्वप्नो
में आकर
आशा मुझे जगाये
तम का भय
अब शेष नहीं है
पास सवेरा आये
वाह ,.... जवाब नही, ....
श्रीकान्त जी
आपकी कविता बहुत अच्छी बनी है
१) शब्द चयन बहुत सुन्दर है
२) शीर्षक कविता पर बहुत सुन्दर बैठता है
३) रात के बाद सवेरा... पुरानी बात नए तरीके से कही गयी है
४) अँधेरे मै उम्मीद की किरण दिखाती कविता है
बधाई स्वीकारें!!!
सादर
शैलेश
कांत जी,
आपके शब्द चयन के तो सभी कायल हैं ही उसके बारे में मैं कुछ नहीं कहूँगा। परन्तु जिस तरह से आपकी ये कविता आशावादिता का संचार कराती है निस्संदेह, उससे निराशा से भरा हर मन आशा की किरणों से भर जायेगा।
तम की कोख
सवेरा उपजे
उपजेगा मैं मानूँ!!
कमाल की कलम है आपकी।
धन्यवाद
श्रीकांत जी आपकी एक ऐसी कविता का इंतज़ार है जो आम आदमी की बोल-चाल की ज़ुबान में लिखी गई हो...
सतरंगी स्वप्नो
में आकर
आशा मुझे जगाये
तम का भय
अब शेष नहीं है
पास सवेरा आये
ati sundar rachna....yeh shaili aachi lagi likhne ki...khuda kare aap aise hi likhte rahen
श्रीकांत जी,
अब आपको शब्दों के ऐसा खेल खेलने की ज़रूरत है कि सुंदर और गूढ़ शब्दों को भी आम आदमी तक पहुँचा पायें और सामयिकता भी बनी रहे।
श्रीकांत जी,
यदा कदा दर्शन देने के चलते युं तो मै हिन्द्-युग्म पर ज्यादा समय नही दे पाता और बीच की कविताये मेरे टिपन्नी के लिहाज से छुट ही जाती है (अमुनन सभी कविताओ को पढ्ने के लिये तो वक्त निकल ही आता है) पर जिस दिन सन फ्रांसिस्को को प्रशांत महासागर जोर से हिलोरे लगाता है और उसमे हिन्द महासागर से मिली नमक मुझे धिक्कारती है, मै कुछ लिखने के लिये व्याकुल हो जाता हुं| अब मेरा सौभाग्य कहिये या आपका दुर्भाग्य, आपकी कविता से ही मै टकरा जाता हुं|
आपकी इस कविता के जिस बात ने मेरा ध्यान आकर्षित किया वह है इस कविता का भाव और विषय वस्तु| आपने वास्तव मे क्या संध्या (सांझ) के बारे मे ही लिखा है या आपके मन मे कुछ और था? बाकी लोगो की टिप्पन्नी भी यह स्पष्ट नही करती की उन्होने किस रुप मे इस कविता को लिया है, यह महज प्रकृती के एक पहुलु को उजागर करता है या समाज की त्रासदा झेल रही उन बेकसुरो के दर्द को देख कर उन्हे आशावाद की किरन दिखाता है?
अगर कवि का भी वही दर्शन था और टिप्प्नीकारो का भी वही, तो मै प्रक़ट को अप्रक़ट या अप्रक़ट को प्रक़ट करने की गुस्ताखी करता हुं| क्योकि मेरा मानना है की "सांझ" से ज्यादा यह उन बेकसुर महिला को आशा की किरन दिखाता है जिन्हे यह समाज "बांझ्" कह कर उसकी सूनी कोख को और सूना कर जाता है|
अरी सांझ ! -----> बांझ..??? (आदर और आशा के स्वर मे)
तू मत डरपा
मैं जानूं
तम की कोख
सवेरा उपजे
उपजेगा मैं मानूँ.
क्लान्त सभी
भयभीत पखेरू
नीड़ खोजते जाते
अस्त हुये
रवि की किरणों से
इन्द्रधनुष उपजाते
सतरंगी स्वप्नो
में आकर
आशा मुझे जगाये
तम का भय
अब शेष नहीं है
पास सवेरा आये
'नया सवेरा'
आयेगा ही
भयातीत हो मानूं
तम की कोख
सवेरा उपजे
उपजेगा मैं मानूँ.
किसी की सूनी कोख मे आशा का बीज बोती इस कविता के लिये बहुत बहुत धन्यबाद....
कुणाल किशोर जी !
आपका मेरी कविता से हर बार टकराना मेरा दुर्भाग्य नहीं सौभाग्य ही है. आप हर बार यूं ही टकराते रहें और रचनाओं पर टिपण्णी देते रहें
धन्यवाद
कुणाल जी
कविता आपको कैसी लगी ये तो आपका व्यक्तिगत मत है किन्तु अत्यन्त आदर के साथ आपने जिस शब्द का प्रयोग किया है वह काफी अन- आदरणीय है । कृपया इस तरह की प्रतिक्रिया से पहले अवश्य सोचें कि बहुत सी महिलाओं को आपत्ति हो सकती है। शब्दों से खेल सही दिशा में ही अच्छा लगता है । सस्नेह
शोभा जी, अब तो बात निकल गई है और Delete का कोइ option भी नही है पर मै इस आपत्तीजनक शब्द और अपने भावार्थ के लिये क्षमा चाहता हुं पर मेरा उद्देश्य किसी को ठेस पहुँचाना कतई नही था| कुछ ऐसे शब्द है जिनको सुनने मात्र से सारे शरीर मे कंपन हो जाती है और तरह तरह के विचार मन को झंझोर देती है| मै प्रकृतीवादी नही हुँ और इस कारन किसी भी चीज को मानविय पहलुवो से जोडने लगता हुँ, और इसी क्रम मे मै अनायास कही और चला गया था| उस शब्द का मेरे दिमाग मे आना जितना सहज था, उस शब्द की पीडा उतनी ही मुझे असहज कर रही थी और मुझे लग रहा था की जिस आशा का संचार इस कविता मे है मै बिना उस शब्द के प्रयोग से वही आशा उन्हे दिलाउ... यह शब्द अवांछित है, असहनीय है... पर ऐसा सिर्फ उसके ना प्रयोग करने से नही होगा.... उसके अर्थ बदलने होगे, उसकी पीडा समझनी होगी.. फिर भी शायद कुछ चीज नही कही जाये तो बेहतर है, मै लज्जित हुं अपने मनोभवो को प्रकट करने के लिय इस शब्द के चयन से और क्षमा चाहता हुं|
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