अब हम आगे बढ़ते हैं और टॉप २० की उन कविताओं की बात करते हैं जो दशमलव अंकों से थोड़ी पीछे रह गईं। शुरूआत करते हैं १६वीं कविता से। इस कविता के रचनाकार देव मेहरा, इंटरनेट से नहीं जुड़े हैं, लेकिन उनकी बेटी अवन्तिका मेहरा नेट पर सक्रिय हैं और पिताजी की कलम को बुलंद करना चाहती हैं। और हिन्द-युग्म तो इंटरनेट से जो नहीं जुड़े हैं, उनकी रचनाओं को भी सलाम कर उन्हें यहाँ तक खींच लाने में यकीन रखता है।
पुरस्कृत कविता- मेरे शहर में
यहाँ सब कुछ है
मेरे शहर में
हर सुबह उठता है
रात का पसरा हुआ धुँआ
रोज़ मेरे शहर में
उधर से आती हुई अज़ान
इधर से बजता मंज़ीरा
बीमार शहर के लिये सिर्फ
कोलाहल ही तो है
और जब-
कभी मौलवी कहता है --
अल्लाहो-अकबर??
पंडित कहता है --
हरे राम, हरे कृष्ण??
मोहल्ले में पड़े बीमार को
दुआयें मिलतीं हैं जैसे
दोनों तरफ़ से मेरे शहर में!
बीमार आदमी नहीं जानता
पीड़ा की सीमा--
उसका धर्म और जात
वो जानता है--
सिर्फ़ पीड़ा का अहसास!
सोचता हूँ--
रोज़ उनींदे लगते दिन
मेरी छटपटाहट को
बिखेर रहे हैं मुहल्लों में
अनघटे से मेरे शहर में!
यहाँ सब कुछ है--
आलीशान घरों के पीछे
मिट्टी में पसरते
नंग-धड़ंग बच्चे और
सकुचाती, सिकुड़ी माँ!
सदाबहार पेड़ से
हर रोज़ पीले पत्ते
झड़ते रहते हैं
रोज़ मेरे शहर में....
जजों की दृष्टि-
प्रथम चरण के ज़ज़मेंट में मिले अंक- ६॰६, ६
औसत अंक- ६॰३
स्थान- सोलहवाँ
द्वितीय चरण के ज़ज़मेंट में मिले अंक- ६, ७॰१, ६॰३, ६॰३ (पिछले चरण का औसत)
औसत अंक- ७॰४२५
स्थान- सोलहवाँ
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
12 कविताप्रेमियों का कहना है :
bahut hi sunder abhivyakti hai, pata nahi kyon piche rah gayi ye kavita, chuninda alfaaz, sunder prastuti, dev mehra ji badhaai
वाकई गजब की कविता..
सुन्दर, सुगठित
प्रबल भाव
आत्मीयता
बहुत बहुत बधाई देव जी
देव मेहरा जी
बहुत ही सही लिखा अपने . हमारे शहर मैं सब कुछ है पेर सुख और शान्ति ही नहीं है . एक अच्छी प्रस्तुति के लिए बधाई
देव साहब बहुत ही अच्छी प्रस्तुति.
आपकी कवता पढ़ कर एक शेर याद आ गया-
" धरती पे हमने कितने सितारे सजा लिए,
लेकिन जमीं से चाँद बहुत दूर हो गया."
शुभकामनाओं समेत
आलोक सिंह "साहिल"
देव मेहरा जी,
बेहद सशक्त रचना है। बिल्कुल हमारे पास से छूकर गुजरती हुई कविता।
अवन्तिका धन्यवाद कि तुम ने अपने पापा की कविता हम तक पहुँचाई.
कविता में ये पंक्तियाँ-
'बीमार आदमी नहीं जानता
पीड़ा की सीमा--
उसका धर्म और जात
वो जानता है--
सिर्फ़ पीड़ा का अहसास!'
बताती हैं कि कवि ने कितने क़रीब से कविता में बताये हर दर्द को महसूस किया है.
बधाई स्वीकारें
यहाँ सब कुछ है--
आलीशान घरों के पीछे
मिट्टी में पसरते
नंग-धड़ंग बच्चे और
सकुचाती, सिकुड़ी माँ!
बहुत ही खूबसूरत लिखा है आपने ..बधाई देव जी!!
बहुत सुन्दर रचना है देव जी
बहुत खूब
सच में मुझे भी बहुत आश्चर्य हो रहा है की कविता किन कारणों से पीछे रह गई
बहुत सुन्दर
बधाई
अच्छी कविता है भाई!
बीमार आदमी नहीं जानता
पीड़ा की सीमा--
उसका धर्म और जात
वो जानता है--
सिर्फ़ पीड़ा का अहसास!
सुंदर, सशक्त , कविता .....!
सुनीता
आपकी इस कविता को पढ़कर तो हम यही अनुरोध करेंगे कि आप अपनी कलम के कुछ अशआर हमें भेंट करते रहें। साहित्य को जन-जन तो पहुँचना ही चाहिए और हिन्द-युग्म तो कम से कम जन तक पहुँच गया है, यदि आप साथ दें तो जन-जन तक पहुँच जायेगा।
कविता बहुत सटीक है......मुझे आश्चर्य है कि इतने नीचे पायदान पर कैसे है....
अवंतिका को भी बधाई जिन्होंने हिंद युग्म की गहराई को समझा और पिताजी को भी हमसे जोड़ा....उनका यह प्रेम निश्चय ही भविष्य में रंग लाएगा....
आगे भी वो हमारा पीछा नही छोड़ने वाली, मुझे पूरा यकीन है....
हिन्दी जिन्दाबाद...
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)