काफिर तो नही हूँ मैं मगर , हाँ अंदाजे-परस्तिश है जुदा ज़रा,
दरकार नही मंदिरों -मस्जिद, हर सिम्त मुझे दिखता है खुदा मेरा,
ये तजुर्बा जरा सा ज़ाती है, सरे- आम बयान करना मुश्किल है,
आजमा के देख क्या मिलता है, तू भी इश्क में ख़ुद को मिटा ज़रा,
कभी बैठ के ख़ुद के रूबरू, आइना दिल को बना कर देख तो,
क्या दर्द है जो जल रहा है, ज़रा पूछ कि क्या है गम का माज़रा,
जब तक अम्मा- बापू रहते है, सर पर छत सी बनी रहती है,
दिखाता है असली रंग आसमान भी , जब उठ जाता है ये असरा,
ये तल्खियां भी ताक़त है, गम का ताप भी ज़रूरी है बहुत,
सफर मंजिलों का अभी बाकी है, तू रहने दे दिल मे गिला ज़रा,
मुझे शौक रफ़्तार का है, और जनूं हवा के रुख को मोड़ने का
हमे वक़्त को आज पीछे छोड़ देना है , मेरे हबीब कदम मिला ज़रा
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
15 कविताप्रेमियों का कहना है :
क्या बात है! सुबहान-अल्ला!!
वाह सजीव जी बहुत खूब लिखा आपने ..बहुत ही सुंदर ...यह शेर तो विशेष रूप से पसंद आए
जब तक अम्मा- बापू रहते है, सर पर छत सी बनी रहती है,
दिखाता है असली रंग आसमान भी , जब उठ जाता है ये असरा,
मुझे शौक रफ़्तार का है, और जनूं हवा के रुख को मोड़ने का
मैं वक्त से आगे बढ़ कर सोचता हूँ, मेरे हबीब कदम मिला ज़रा
लाजवाब हैं यह ...बहुत बहुत बधाई
सजीव जी,
शानदार, उर्दू शब्दावली जबरदस्त है..
बहुत बहुत बधाई
सजीव जी
बहुत बढ़िये तल्खियां भी ताक़त है, गम का ताप भी ज़रूरी है बहुत,
सफर मंजिलों का अभी बाकी है, तू रहने दे दिल मे गिला ज़रा,
मुझे शौक रफ़्तार का है, और जनूं हवा के रुख को मोड़ने का
हमे वक़्त को आज पीछे छोड़ देना है , मेरे हबीब कदम मिला ज़राया ग़ज़ल लिखी है -
बधाई
सजीव साहब, कोई चाहे गद्य लेखक हो या पद्य, उसकी सफ़लता तभी होती है जब पाठक उसके शब्दों को अपने से जुड़ा हुआ महसूस करे। और इस मामले में, आपकी इस रचना में कम से कम मै तो यह महसूस कर रहा हूं कि यह भाव मेरे हैं भले ही शब्द आपके।
बधाई एक बेहतरीन रचना के लिए!!
शुभकामनाएं
संजीव जी उर्दू जबां के मसाले में भुनी हुई आपकी ये गजल किसी को भी हिला देने को पर्याप्त है.
अनान्दम अनान्दम
बहुत अच्छे
आलोक सिंह "साहिल"
सजीव जी,
उम्दा लिखा है आपने।
मुझे शौक रफ़्तार का है, और जनूं हवा के रुख को मोड़ने का
हमे वक़्त को आज पीछे छोड़ देना है , मेरे हबीब कदम मिला ज़रा
वाह-वाह!
मंझी हुई भाषा ,
सारे ही शेर लाजवाब और उम्दा लगे .
यह शेर सच्चा और ख़ास लगा- -
'ये तल्खियां भी ताक़त है, गम का ताप भी ज़रूरी है बहुत,
सफर मंजिलों का अभी बाकी है, तू रहने दे दिल मे गिला ज़रा,
बहुत बधाई
ये तल्खियां भी ताक़त है, गम का ताप भी ज़रूरी है बहुत,
सफर मंजिलों का अभी बाकी है, तू रहने दे दिल मे गिला ज़रा,
मुझे शौक रफ़्तार का है, और जनूं हवा के रुख को मोड़ने का
हमे वक़्त को आज पीछे छोड़ देना है , मेरे हबीब कदम मिला ज़रा
क्या बात है !!! बहुत सुंदर ...
वाह सजीव जी वाह
कमाल की गलज़ लिखी है
हर शेर काबिले तारीफ है
एक सुन्दर प्रयास के लिए बधाई
जब तक अम्मा- बापू रहते है, सर पर छत सी बनी रहती है,
दिखाता है असली रंग आसमान भी , जब उठ जाता है ये असरा,
ये तल्खियां भी ताक़त है, गम का ताप भी ज़रूरी है बहुत,
सफर मंजिलों का अभी बाकी है, तू रहने दे दिल मे गिला ज़रा,
क्या बात है ! सजीव जी
बहुत ही भावुक पंक्तियाँ ....
सुनीता
भाई,
आजकल तो आपकी लेखनी पूरे शबाब पर है। हम पाठकों पर बिजलियाँ गिर रही हैं। बहुत बढ़िया कोशिश। बहुत खूब।
काफिर तो नही हूँ मैं मगर , हाँ अंदाजे-परस्तिश है जुदा ज़रा,
दरकार नही मंदिरों -मस्जिद, हर सिम्त मुझे दिखता है खुदा मेरा,
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मुझे शौक रफ़्तार का है, और जनूं हवा के रुख को मोड़ने का
हमे वक़्त को आज पीछे छोड़ देना है , मेरे हबीब कदम मिला ज़रा
मत डिस्टर्ब कर मेरे साथी पहले मुझे पढ़ तो लेने दे जरा ...... वाह सजीव जी !! किस किस शेर की बात करूं यहाँ तो सारे ही शेर सवा सेर हैं
नमस्कार महोदय ,आपने तोः मेरे ह्रदय को झकझोर दिया है ,
बहूत ही अच्छी कविता लिखी है आपने ....
सजीव,
माफी चाहूँगी आपके पिछले गीत के बारे में लिख नहीं पायी। पर मैंने उसे पढ़ा था। याद है जब पढ़ा था अच््छा लगा था।
आपकी गज़ल बहुत सुन््दर है कहने की ज़रूरत नहीं।
मुझे पहला शेर बहुत पसन््द आया क््योंकि मेरी सोच से मिलता है, मैंने भी ऐसा ही कुछ लिखा है हाँ अलग तरीके से।
आखिर वाला शेर भी अच््छा लगा। लगता है उर््दू आपसे सीखनी पड़ेगी।
अगला गीत या गज़ल जब भी post करो जल््दी याद दिलाना ताकि मैं टिप््पणी करने में देर न करूँ।
आधे अक्षर type नहीं हो रहे हैं। मेरे system के साथ कुछ समस््या आ रही है।
क्षमा चाहूँगीं।
ऐसे ही लिखते रहो।
शुभकामनाओं के साथ
संध््या
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