आज हम क्रिस्मस के इस महत्वपूर्ण अवसर पर अपने सबसे अधिक सक्रिय पाठक आलोक कुमार सिंह 'साहिल' की कविता की बात करेंगे। पहली बार इन्होंने प्रतियोगिता में भाग लिया और टॉप २० में स्थान भी बनाया। अब आप पाठक करें इनके प्रयास की मीमांसा।
कविता- शीर्षक उपलब्ध नहीं है
है प्रकृति का ये ध्वंष
मानव जीवन का ये कैसा अपभ्रंष
कि त्याग कर के तरुणियों को
चल रहे हैं वंश
घुटनमय सी हो गई है
ज़िंदगी माँ-बाप की
कन्या को जनने का कैसा ये दंश
कि त्याग कर के तरुणियों को
चल रहे हैं वंश
न ब्याह सका बेटी को
अपनी लाचारी से
इसी एक घुटन में दिया खुद को हंत
कि त्याग कर के तरुणियों को
चल रहे हैं वंश
कैसे होगा हाथ पीला
खत्म कर दो इसकी लीला
भ्रूण-हत्या की युक्ति ने किया सब प्रबन्ध
कि त्याग कर के तरुणियों को
चल रहे हैं वंश
साहिल निराश है बहुत
सृष्टि के इस संहार से
फिर से एक बार 'काली' ले लो तुम जनम
कि त्याग कर के तरुणियों को
चल रहे हैं वंश
जजों की दृष्टि-
प्रथम चरण के ज़ज़मेंट में मिले अंक- ७, ६
औसत अंक- ६॰५
स्थान- दसवाँ
द्वितीय चरण के ज़ज़मेंट में मिले अंक- ७॰२५, ६॰७, ४॰५, ६॰५ (पिछले चरण का औसत)
औसत अंक- ६॰२३७५
स्थान- उन्नीसवाँ
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12 कविताप्रेमियों का कहना है :
साहिल जी
आपने सही विषय उठाया है । आज के समय की वेदना उभर कर व्यक्त की है ।
साहिल निराश है बहुत
सृष्टि के इस संहार से
फिर से एक बार 'काली' ले लो तुम जनम
कि त्याग कर के तरुणियों को
चल रहे हैं वंश
निराश मत होना साहिल जी । कवि निराश हो गया तो आम लोगों का क्या होगा
बहुत सही वेदना उभर के आई है इस रचना में साहिल जी....पर कभी उजाला होगा निराश होने से काम नही चलेगा न ..बहुत अच्छा लिखा है आपने !!
साहिल जी चिन्तन के लिये ज्वलन्त मुद्दा उठाया है। समस्या से सभी त्रस्त और दुखी हैं। अब सकारात्मक रवैया अपनाना होगा। कन्या को हर हाल में इस धरा पर लाना होगा। कुछ इस तरह की जागरूकता तो लानी ही होगी ना।
साहिल जी आपने आज के परिदृश्य को बहुत ही व्यापक ढंग से अपनी कविता में पिरोया हिया.
बस निराश न हो एक दिन ऐसे चिंतन ही नई क्रांति का सूत्रपात करेंगे.
बस अपनी नींव कमजोर न होने दें, किसी ने कहा है -
एक डगर चले हैं हम, मंजिल नई बनाने
रुख जिंदगी के आलम में आसमां को झुकाने
तो बस अप से विनती है की अपनी रफ्तार को और तेज बनायें.
शुभकामनाओं के साथ
अभिनव कुमार झा
बहुत खूब !
लेकिन शीर्षक क्यों नही ?
सुंदर रचना |
अवनीश तिवारी
आलोक कुमार सिंह 'साहिल' जी
आपने बहुत ही सामयिक विषय काव्य के लिए चुना. काफ़ी जोश है.. आपकी सकारात्मक सोच और ये आवाहन... जननी और उसकी शक्ति को जागृत करने में सहयोग करेगा. काव्य शिल्प में कुछ और ध्यान दें
शुभकामनाएं
साहिल जी..
बहुत ही सुन्दर रचना.. सामायिक विषय वस्तु और गहरे भाव..
कहने का अभिप्राय लिखा है लाजवाब
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बधाई हो जनाब
*ज्वलन्त मुद्दा है.
*सामायिक विषय चुना.
*'भ्रूण-हत्या की युक्ति ने किया सब प्रबन्ध
कि त्याग कर के तरुणियों को
चल रहे हैं वंश'
बहुत अच्छा लिखा है
'साहिल' जी शुभकामनाएं
अच्छा प्रयास
साहिल जी,
आप्का सामजिक सरोकार स्तुत्य है। विषय एवं उसकी प्रस्तुति अच्छी है लेकिन...मैं भाषाविद तो नही हुँ पर भ्रूणहत्या के संदर्भ में तरुणि शब्द का प्रयोग उचित नही जान पड़ता।
साहिल जी,
"त्याग कर के तरुणियों को
चल रहे हैं वंश"
इन पंक्तियों का बारम्बार प्रयोग या तो इस कविता की गंभीरता खत्म कर रहा है या तो इस बात पर ज़ोर दे रहा है कि यह वास्तव में बहुत आश्चर्यजनक बात है।
लेकिन आप दूसरे भाव तक शायद नहीं पहुँच पा रहे हैं।
फिर भी इस कोशिश के लिए साधुवाद।
सभी साथियों का मैं दिल से आभारी हूँ जिन्होंने मेरे प्रयासों को अपनाया.
विशेषकर के मैं रविकांत सर और भारतवासी जी (जिनका कि मैं जबर्दुस्त fan हूँ) का vishes आभारी हूँ जिन्होंने मेरी कमियों के तरफ़ मेरा ध्यान आकृष्ट किया. भविष्य में इन त्रुटियों से निबटने की भरपूर कोशिश करूँगा,
आशा करता हूँ भविष्य में भी आपका प्यार यूं ही मिलता रहेगा.
बहुत बहुत धन्यवाद.
आलोक सिंह "साहिल"
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