फटाफट (25 नई पोस्ट):

Tuesday, December 25, 2007

जीवन बाँसुरी


अरी ! बाँसुरी
ओ ! जीवन की
कितनी प्यारी लगती
अधरों से लिपटी
तू हर पल…
जीवन गुँजित करती

जलदों
से…
जीवन रस लेकर
विहगों से ले कलरव
चहक-चहक कर
वन-वन उपवन
कुसुमित कर दे हर मन

विध्वंसों
के विस्फोटों से
नीऽरव में हाय हलाहल
मानवता अब है आतंकित
त्राऽसद युग में कोलाहल

क्यों अंगार लिये फिरता है
सत्तापेक्षी मानव ….
आखेटक की कुटिल-फाँस ले
सृष्टि में बन दानव …

मधुर रागिनी राग छेड़ दे
जीवन कुंचित पल में
यौवन रस मद घुल जाता है
सरित प्रवाह सलिल में

निरावृत जीवन काया जब
मिट्टी बन जायेगी …
हो विदग्ध विरहाग्नि व्याकुल
मुरली खो जायेगी …

यौवन काया, जरा देह ..
ये मुरली से हैं लगते
मधुर स्वरों से ही गुँजित हों
श्वासों से ही बजते

आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)

13 कविताप्रेमियों का कहना है :

शोभा का कहना है कि -

श्रीकान्त जी
जीवन बाँसुरी -- बहुत बढ़िया रूपक बाँधा है । जीवन की बाँसुरी पर सुःख और दुॆक दोनो की धुन बजती रहती है। बहुत ही सुन्दर बिम्ब है । दार्शनिकता ने सोने में सुहागे का काम किया है । विशेष रूप से निम्न पंक्तियाँ-
मधुर रागिनी राग छेड़ दे
जीवन कुंचित पल में
यौवन रस मद घुल जाता है
सरित प्रवाह सलिल में
निरावृत जीवन काया जब
मिट्टी बन जायेगी …
हो विदग्ध विरहाग्नि व्याकुल
मुरली खो जायेगी …
यौवन काया, जरा देह ..
ये मुरली से हैं लगते
मधुर स्वरों से ही गुँजित हों
श्वासों से ही बजते
एक सुन्दर प्रस्तुति के लिए बधाई

anuradha srivastav का कहना है कि -

श्रीकान्त जी जीवन बाँसुरी सुन्दर रचना है। अत्यन्त ही कुशलतापूर्वक जीवन के हर पहलु को दार्शनिक तरीके से उजागर किया है। बधाई...........

मीनाक्षी का कहना है कि -

यौवन काया, जरा देह ..
ये मुरली से हैं लगते
मधुर स्वरों से ही गुँजित हों
श्वासों से ही बजते
--- मुरली अधरों पर श्वासों का गीत सा लगने लगी है... बहुत सुन्दर रचना..

Anonymous का कहना है कि -

श्रीकांत जी हरबार की तरह इसबार भी एक बेहद संतुलित और प्यारी कविता, पढ़ कर मस्त हुए बिना नही रहा जा सकता,
मजा आ गया
आलोक सिंह "साहिल"

अभिनव झा का कहना है कि -

श्रीकांत जी,इस जीवन बासुरी में आज का दर्शन और इसकी दार्शनिकता को जिस तरह से आपने शब्दों से सजाया है, बस एक ही आवाज निकलती है-
वाह क्या गजब ढाया!
शुभकामनाओं सहित
अभिनव कुमार झा

Anonymous का कहना है कि -

विध्वंसों के विस्फोटों से
नीऽरव में हाय हलाहल
मानवता अब है आतंकित
त्राऽसद युग में कोलाहल
---
सुंदर भावों और सामायिक जीवन के दुखों को सही रूप से बताने का कुशल प्रयास है.
बधाई
अवनीश तिवारी

भूपेन्द्र राघव । Bhupendra Raghav का कहना है कि -

हमेशा की तरह एक सुगठित सशक्त रचना..

ओ ! जीवन की
कितनी प्यारी लगती
अधरों से लिपटी
तू हर पल…
जीवन गुँजित करती

जलदों से…
जीवन रस लेकर
विहगों से ले कलरव
चहक-चहक कर
वन-वन उपवन
कुसुमित कर दे हर मन

सुन्दर कृति

RAVI KANT का कहना है कि -

श्रीकांत जी,
बहुत प्यारी रचना है। एक ही साँस में आद्योपांत पढ़ गया।

जलदों से…
जीवन रस लेकर
विहगों से ले कलरव
चहक-चहक कर
वन-वन उपवन
कुसुमित कर दे हर मन
*******
यौवन काया, जरा देह ..
ये मुरली से हैं लगते
मधुर स्वरों से ही गुँजित हों
श्वासों से ही बजते

Sajeev का कहना है कि -

श्रीकांत जी कितनी मधुर कितनी सुंदर कविता लिखी है आपने गुनगुनाने का मन हो रहा है

शैलेश भारतवासी का कहना है कि -

लगता है आपकी शैली से मेरी शिकायत नहीं जायेगी :)

Alpana Verma का कहना है कि -

कविता में बांसुरी के माध्यम से अपनी बात को कह देना बहुत सुरीला हो गया है.

'क्यों अंगार लिये फिरता है
सत्तापेक्षी मानव ….को एक संदेश देती हुई गंभीर
और
अंत में'यौवन काया, जरा देह ..
ये मुरली से हैं लगते.....'कहती हुई कविता दार्शनिक हो गयी है.
बधाई इस सुंदर रचना हेतु!

Alok Shankar का कहना है कि -

"विहगों से ले कलरव"
की जगह
"विहगों से लेकर कलरव" कर दें , लय में एक मात्रा कम लग रही है ।
"कुसुमित कर दे हर मन" पूरी कविता के शिल्प के साथ विद्रोह कर रहा है ।
यहाँ "मन " अपनी ऊपर की पंक्ति के अन्तिम शब्द "उपवन " के साथ तुक मिला रहा है, पर बाकी सभी जगह ऐसा नहीं है , ध्यान दें - हलाहल - कोलाहल , लगती - करती , मानव-दानव , जायेगी-जायेगी ,लगते- बजते। पूरी कविता का पैटर्न उपवन-मन से अलग तुकबंदी वाला है ।
"विध्वंसों के विस्फ़ोटों से" या "विस्फ़ोटों के विध्वंसों से " ? वैसे दोनों का अलग अर्थ है निर्णय कवि का है ।

"नीऽरव में हाय हलाहल" इसमें भी एक मात्रा कम है लय में , हाय के बाद '!' लगा दें या फ़िर हाय के पहले 'है 'भी चलेगा ।

"सृष्टि में बन दानव …" को अगर "सृष्टी में बन दानव …" पढ़ा जाये तभी लय मिलती है , मात्रा और उच्चारण का विद्रोह है ।

जीवन कुंचित - जीवन-कुंचित समासित पदों में '-' का अपना महत्व है ।

निरावृत को निराSवृत पढ़ना पड़ रहा है , 'निरावृत्त' भी चलता , विरहाग्नि को "विरहाSग्नि " पढ़ना पड़ रहा है ।

" हो विदग्ध विरहाग्नि व्याकुल" इसी पंक्ति को अगर ऐसे लिखें - "हो विदग्ध, विरहाग्नि-व्याकुल"
तो अर्थ ज्यादा स्पष्ट है ।

"यौवन काया, जरा देह .."
यौवन एक स्थिति है , उसके साथ काया का प्रयोग सही नहीं लगता । ज़रा और देह के साथ यही बात है ।

युग्म के पाठकों से अनुरोध है कि कविताओं को थोड़ा गहराई से देखें हर कवि में सुधार की गुंजाइश है, चाहे वो मेरे जैसा नौसिखिया हो या श्रीकांत जी जैसा अनुभवी कवि । सुधार हर जगह हो सकता है । हम अपना स्तर इसी तरह बढ़ा सकते हैं । श्रीकांत जी अगर कुछ बड़बोलापन लगे तो माफ़ करें पर मैंने अब निश्चय किया है कि तारीफ़ तो सभी करते ही हैं , मैं सुधार की संभावनायें बताऊँगा ।

Unknown का कहना है कि -

बन्धुवर आलोक जी !

आपका निर्णय बहुत ही उपयुक्त है और मंच की आवश्यकता भी. आपने मेरी कविता पर इतनी गहराई से टिपण्णी कर, बड़बोलापन नहीं किया अपितु मेरे प्रति अपना लगाव ही प्रदर्शित किया है. इसके लिए आभार प्रकट करके मैं भावनात्मक निकटता को दूरी में परिवर्तित करने का प्रयास नहीं करूंगा.

अब आते हैं आपके द्वारा सुझाये गए कई बिन्दुओं पर स्पष्टीकरण एवम सुधार की चर्चा पर...

१ "कुसुमित कर दे हर मन" पूरी कविता के शिल्प के साथ विद्रोह कर रहा है ।
यहाँ "मन " अपनी ऊपर की पंक्ति के अन्तिम शब्द "उपवन " के साथ तुक मिला रहा है,
यहाँ पर मैं आपसे सहमत हूँ मेरे अपने मष्तिष्क में भी यह बात खटक रही थी. परन्तु उस पल की उपेक्षा का ही यह दुस्परिणाम है

२ "विध्वंसों के विस्फ़ोटों से" या "विस्फ़ोटों के विध्वंसों से " ? वैसे दोनों का अलग अर्थ है निर्णय कवि का है ।
यहाँ पर जैसा कि आप स्वयम ही कह रहे हैं, विध्वंश के सभी रूपों को मैं संज्ञान में लेकर ही चल रहा हूँ. मेरा मंतव्य यही है कि आज की सामजिक राजनीतिक परस्थिति में मुझे बहुत सी घटनाएँ विध्वंस और विस्फोट जैसा ही करते हुए प्रतीत होती हैं. मात्र बारूद के विस्फोट से होने वाला विध्वंस, समेकित विध्वंश का एक छोटा सा हिस्सा भर ही है. अतः मैंने जो लिखा है, सोच समझकर वैसा ही उसी अर्थ में लिखा है

३ इसके अतिरिक्त बीच के अन्य इंगितों की उत्पत्ति का कारण, टाइपिंग टूल एवं प्रूफ़ की समस्या अधिक है. अतः उसे मैं तकनीकी उपेक्षा पर छोड़ कर आगे से और ध्यान दे सकूं यह प्रयास करूंगा

४ मित्र ! अब सबसे अन्तं में जिस बिन्दु पर मैं आपसे सहमत नहीं हूँ वो है

यौवन काया, जरा देह .."
यौवन एक स्थिति है , उसके साथ काया का प्रयोग सही नहीं लगता । ज़रा और देह के साथ यही बात है ।

प्रयोग बिल्कुल सही है. यौवन एवं वृधावस्था (वृद्धावस्था)की स्थिति में व्यक्ति की देह यष्टि आप निरुपित करने के वारे में पुनः विचार करियेगा. साथ ही साथ अभी यहीं ऊपर ही एक शब्द को अलग अलग टूल से टाइप करने पर वर्तनी की समस्या पर भी ध्यान दीजियेगा. मैंने इसीलिए जानबूझकर कोष्ठक में दूसरे टूल से टाइप करके लिखा है

अस्तु बहुत ही अच्छा लगा आपकी प्रतिक्रिया और निर्णय से परिचित होकर. अन्य पाठको से मेरा भी आलोक जी वाला ही अनुरोध है कि सुधार की हमें निरंतर आवश्यकता है. कृपया जब भी समय मिले रचनाकारों और साहित्य की भलाई के लिए गंभीर टिप्पणियां देने वाले सभी पाठक मित्रों से निवेदन है हमें इंगित कर उपकार करते रहें.

इति शुभम

आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)