१ उन्हें मेरे इश्क की इन्तहां मालूम है,
तड़पाकर हँसते हैं, मेरी आँखों के सामने वो।
हबीब और रकीब में बस इतना हीं फर्क है॥
२ शीशे के तेरे वादे जो गढे थे मेरे वास्ते,
आह! तूने हीं अपने हाथों उन्हें तोड़ डाला।
फेविक्विक डाला पर जोड़ अब भी चुभते हैं॥
३ अपने हाथों से बुनकर दिया था जो स्वेटर,
सुना है उससे तुम अब पाँव पोछते हो।
दिल से धूल का सफर पेशे-खिदमत है॥
४ आँखों से, आइनों से कभी गुफ्तगू न करना,
कमबख्त सच कहने की इन्हें आदत-सी पड़ी है।
अपना-सा मुँह लेकर लौटोगे तो जानोगे ॥
५ एक दुकान हो जहाँ हो शर्म की खरीद-फरोख्त,
सेर- सवा सेर खरीदकर उन्हें उपहार दूँ ।
दिल लिया जो शेर-दिल ने तो टुकड़े कर दिया ॥
६ कुदरत इन्हें यूँ हीं हँसता-मुस्कुराता छोड़ दे,
कि क्या पता कब जिंदगी के ख्वाब ना रहें ।
नीम-नींद में हँसते हुए बच्चे हैं ये सारे ॥
-विश्व दीपक 'तन्हा'
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11 कविताप्रेमियों का कहना है :
वाह जी वह तन्हा जी! कमाल कर दिया आपने तो बहुत ही धांसू कविता लगी, मजा आ गया
बधाई समेत
आलोक सिंह "साहिल"
नमस्कार ,
आपकी कविता मुझे बहुत ही अच्छी लगी है .....
खैर मेरे बस में इतना टू नही है की मैं अआप की कविता में कोई नुक्स निकल सकूं ...
नव वर्ष की शुभ कामनाओं के साथ .......अश्वनी कुमार गुप्ता ...
नमस्कार ,
आपकी कविता मुझे बहुत ही अच्छी लगी है ... .
खैर मेरे बस में इतना टू नही है की मैं अआप की कविता में कोई नुक्स निकल सकूं ...
नव वर्ष की शुभ कामनाओं के साथ .......अश्वनी कुमार गुप्ता ...
"कुदरत इन्हें यूँ हीं हँसता-मुस्कुराता छोड़ दे,
कि क्या पता कब जिंदगी के ख्वाब ना रहें ।
नीम-नींद में हँसते हुए बच्चे हैं ये सारे "
ये विशेष अच्छी है.....feviquick वाला क्या था ??? कोई मोबाइल संदेश था क्या....
निखिल
तनहाजी,
बढिया लगी सभी पंक्तियाँ !
धन्यवाद ! अपनी एक रचना आपके नजर कर रहा हूँ , कृपया स्वीकार करें:
......
एक ज़माना था, जब थे यह कहते,
' कितने हैं हमारे खयालात मिलते!'
अब तो यह आलम है के हर पल
कहते हैं याद कर गुज़रा हुआ कल,
'हमखयाल, और हम ? इम्पॉसिबल!'
.....
सतीश वाघमारे
२ शीशे के तेरे वादे जो गढे थे मेरे वास्ते,
आह! तूने हीं अपने हाथों उन्हें तोड़ डाला।
फेविक्विक डाला पर जोड़ अब भी चुभते हैं॥
फेविक्विक...के मध्यम से आप ने उसके किए हुए वादे को जोड़ने की असफल कोशिश कर बैठे .!
हाए रे कितना चुभा होगा ..:-)
अच्छा प्रयोग है
सुनीता यादव
तनहा जी
आपने बहुत सुन्दर त्रिवेणियाँ लिखी हैं । विशेष रूप से
आँखों से, आइनों से कभी गुफ्तगू न करना,
कमबख्त सच कहने की इन्हें आदत-सी पड़ी है।
अपना-सा मुँह लेकर लौटोगे तो जानोगे ॥
५ एक दुकान हो जहाँ हो शर्म की खरीद-फरोख्त,
सेर- सवा सेर खरीदकर उन्हें उपहार दूँ ।
बहुत ही बढ़िया लिखा है । बधाई स्वीकारें
तनहा जी अच्छी है सारी त्रिवेनियाँ.
ख़ास कर---
'आँखों से, आइनों से कभी गुफ्तगू न करना,
कमबख्त सच कहने की इन्हें आदत-सी पड़ी है।
अपना-सा मुँह लेकर लौटोगे तो जानोगे ॥'
-खूब लिखा है.
*लेकिन 'फेविक्युइक' शब्द का प्रयोग त्रिवेणी २ में मुझे पसंद नहीं आया.क्यों कि ऐसे शब्दों से भावों का वज़न कम हो जाता है [ऐसा मेरा अपना विचार है].
तनहा जी,
त्रिवेणियाँ आपने साध ली हैं, आपसे यहाँ विधा सीखने के लिये कोचिंग लेनी पडेगी। हर एक बेहतरीन है विषेश कर:
फेविक्विक डाला पर जोड़ अब भी चुभते हैं॥
अपने हाथों से बुनकर दिया था जो स्वेटर,
सुना है उससे तुम अब पाँव पोछते हो।
दिल से धूल का सफर पेशे-खिदमत है॥
अपना-सा मुँह लेकर लौटोगे तो जानोगे ॥
नीम-नींद में हँसते हुए बच्चे हैं ये सारे ॥
***राजीव रंजन प्रसाद
कुदरत इन्हें यूँ हीं हँसता-मुस्कुराता छोड़ दे,
कि क्या पता कब जिंदगी के ख्वाब ना रहें ।
नीम-नींद में हँसते हुए बच्चे हैं ये सारे
वाह
तनहा जी त्रिवेनियों के प्रयोग सिर्फ आप ही कर रहे हैं और बहुत अच्छा कर रहे हैं, जारी रखियेगा,
आँखों से, आइनों से कभी गुफ्तगू न करना,
कमबख्त सच कहने की इन्हें आदत-सी पड़ी है।
अपना-सा मुँह लेकर लौटोगे तो जानोगे ॥
बहुत खूब लिखतें हैं आप ....बहुत ही सुन्दर लिखी है यह सब ..मज़ा आ गया पढ़ के !!
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