काव्य-पल्लवन सामूहिक कविता-लेखन
विषय - टीस
विषय-चयन - आलोक कुमार सिहं "साहिल"
अंक - दस
माह - दिसम्बर 2007
"टीस" यानी "पीड़ा" सिर्फ़ उसकी मात्रा में भेद हो सकता है परन्तु परिणाम एक ही होता है..आँसू, संताप। सुगंधित इत्र से कौन वाकिफ़ नहीं है असल में वह भी "टीस" का दूसरा रूप है। जिन सुन्दर-सुन्दर फूलों से इसे बनाया जाता है वो न जाने किस पीड़ा व किस टीस से गुजरते होंगे। इस बार श्री आलोक कुमार सिंह "साहिल" द्वारा सुझाए गये विषय "टीस" पर हम काव्य पल्लवन में २८ कविताओं का गुलदस्ता ले कर आये हैं। आशा है सभी रचनायें आपके हृदय को छू पायेंगी और हमें आपकी प्रतिक्रियाएँ प्राप्त होंगी जिसकी हमें बड़ी उत्सुकता से प्रतीक्षा रहती है।
*** प्रतिभागी ***
| डा. आशुतोष शुक्ला | शोभा महेन्द्रू | ममता | श्रीकान्त मिश्र 'कांत' | संजीव कुमार गोयल "सत्य" |
| आलोक शंकर | संजय साह | रंजना भाटिया | विपिन चौधरी | डॉ. नंदन | हरिहर झा |
| पंकज रामेन्दू मानव | प्रगति सक्सैना | रंजना सिंह | सीमा गुप्ता | विवेक रंजन श्रीवास्तव "विनम्र" |
| प्रो.सी.बी.श्रीवास्तव "विदग्ध" | शैलेश चन्द्र जमलोकी | आशुतोष मासूम | दिव्या श्रीवास्तवा |
| महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश | भूपेन्द्र राघव | अभिनव कुमार झा | आलोक सिंह "साहिल" |
| अमिता मिश्र 'नीर' | मधुकर (मधुर) | सतीश वाघमरे | दिव्य प्रकाश दुबे | सोमेश्वर पाण्डेया |
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जब विचार मन में हों उलझे,
और बुद्धि को भ्रम भारी,
मिलती नहीं राह जब कोई,
बढ़ती जाती फिर लाचारी,
आगे बढ़ने के प्रयास में,
ठोकर पल-पल लगती है,
मुझसे मत पूछो तुम आकर,
टीस मुझे क्यों उठती है ?
है उदार अब अर्थ-नीति,
हम स्वागत में लगते बिछने,
पूंजी के बढ़ते प्रवाह में,
लगे आंकड़े स्वच्छ सलोने
घटती मुद्रा की स्फीति,
भूख कुलांचे भरती है
मुझसे मत पूछो तुम आकर,
टीस मुझे क्यों उठती है ?
ठेके वाले और अधिकारी-नेता,
का गठजोड़ बना हैकर चोरों की मौज हुई,
और आम आदमी अदना है,
तीन महीने मात्र पुरानी,
सड़क उधड़ने लगती है
मुझसे मत पूछो तुम आकर,
टीस मुझे क्यों उठती है ?
नई सदी में क्या कुछ सीखा,
कैसे कहें और कितना ?
शिक्षा के ऊँचे आयाम में,
हम तो गिर गये हैं इतना,
महिलाओं की ध्वनियां भी,
जब और सिसकने लगती हैं
मुझसे मत पूछो तुम आकर,
टीस मुझे क्यों उठती है ?
बम विस्फोटों से मरते हैं,
कौन कहीं कब रोता है ?
मेरा मन जब ख़ून के धब्बे,
फिर आंसू से धोता है
राष्ट्रवाद की होली जब भी,
"मत" की आग में जलती है
मुझसे मत पूछो तुम आकर,
टीस मुझे क्यों उठती है ?
भगत, सुभाष, राजगुरु, बिस्मिल और नरेन्द्र की थाती हैं
गांधी, नेहरू और बल्लभ की फिर से आई पाती है
युवा शक्ति जब देश भूलकर,
बस ज़ुल्फों में फंसती है
मुझसे मत पूछो तुम आकर
टीस मुझे क्यों उठती है ?
डा. आशुतोष शुक्ला
मैं एक संवेदनशून्य
पत्थर दिल एवं
कठोर हृदय
बुद्धिजीवी हूँ
टीस से मेरा
दूर-दूर तक
कोई नाता नहीं है
आत्म केन्द्रित
आत्म सन्तुष्ट
मेरे सामने लोग
सर्द रातों में
काँपते ठिठुरते
सर्दी से मर जाते हैं
और मैं --
हीटर लगाकर
रजाई में सो जाता हूँ
मेरे आस-पास
कितने ही बच्चे
भूख से बेहाल होकर
ठठरी बन जाते हैं
सड़कों का कूड़ा
बीन-बीन खाते हैं
झूठे बर्तनों को
चाट कर
जानवर सा जीवन
बिताते हैं
और मैं--
बढ़िया भोजन कर
फूलता जाता हूँ
कभी कोई संवेदना
नहीं जगा पाता हूँ
कभी-कभी
मेरे सामने ही
कोई सड़क पर
कुचला जाता है
लहू-लुहान होकर
छटपटाता है
मैं चुप- चाप
संगीत की धुन
गुनगुनाता हुआ
आगे बढ़ जाता हूँ
कोई टीस नहीं
सुन पाता हूँ
कोई जिए या मरे
मुझे कोई फर्क नहीं
मैं आत्म केन्द्रित
आत्म चिन्तित
और आत्म सन्तुष्ट हूँ
हाँ अगर कभी
बिजली चली जाए
या पानी ना आए
तब मैं बहुत चिल्लाता हूँ
व्यवस्था को
दोषी बताता हूँ
मेरे भीतर एक
टीस सी जगती है
और मैं तड़प जाता हूँ
शोभा महेन्द्रू
जन्म से मिले
रिश्ते सहज ही
मान्यता पा जाते हैं
पर ---
नेह का वह अनमोल रिश्ता
जो तुमने
मेरे जीवन के
प्रथम बसन्त में
मेरे भीतर रोंपा था-
आज भी-
हाँ- आज भी अमान्य है
उस समय भी समाज के
क्रूर हाथों ने
इसकी कलियों को
नोच डाला था
तुम्हारी असमर्थता
एक टीस जगा गई थी
मेरे भीतर--
तुमसे अलग होने के बाद भी
यह टीस तुम्हारे रिश्ते को
मेरे भीतर पालती रही
और आज भी--
बरसों बाद--
जब बालों में सफेदी उतर आई है
समय चक्र घूम कर
फिर से तुम्हें--
मेरे पास ले आया है
यह टीस है कि
मिटती ही नहीं
आत्मीयता के चरम क्षणों में भी
सुख की तरलता के साथ-साथ
इसकी चुभन आँखों में
ठहर जाती है
क्यों प्रिय--
क्या इसलिए कि
उस समय की तुम्हारी दुर्बलता
मेरी नियती बन गई?
या फिर इसलिए कि--
आज भी-
हाँ आज भी यह रिश्ता
अमान्य है ?
या- फिर -इसलिए कि
तुम्हारे रिश्ते में मिली
यह टीस मेरी पहचान है?
ममता
है टीस
यहीं कहीं आस-पास
पर्वत शिखरों पर
आच्छादित मेघ
कभी ऊपर कभी नीचे
पल-प्रतिपल खिलती धूप छाँव
है टीस
यहीं कहीं आस-पास
चाय बागानों की
कोई पगडण्डी सी
दूर तक हरियाली में
जैसे हैं असंख्य नाली छिपी
देख तो पाऊं नहीं
बस है एक अहसास
है टीस
यहीं कहीं आस-पास
मेरे पास
इसीलिये
मैं उदास
है टीस मेरे पास
मेरे पास
श्रीकान्त मिश्र 'कांत'
विरह की, वेदना की,
अंतर निहित संवेदना की,
विस्मृत स्मृतियों की,
अव्यक्त अभिव्यक्तियों की,
अनायास ही,
जब याद आ जाती है,
हृदय में एक,
"टीस" उभर आती है
मन -
उन विस्मृत पलों को कुरेदता है,
मुदित-अमुदित पलों को सहेजता है,
अधीर सा रहता है,
भावनाओं में बहता है
तब -
अंतर्मन सान्तवना, दुलार देता है,
और हर "टीस" से उबार लेता है
संजीव कुमार गोयल "सत्य"
कमरे के बियाँबान में
काँटों को छूती हुई
अष्टावक्र सी दिखती हुई एक आकृति
लेटी है,
या बचना चाहती
काँटों से बदन पर लिख रहे
अँधेरों से--
शरीर के गँदले पर
चीरे की कालिख़ दुखती है
आह! यह पिंजर!! पिंजर !!
फड़फड़ाते हुए विखंडित पंख ,
मिरगी-से काँपते -उछलते
फड़-फड़ फड़-फड़, शांत ।
असंभव है , उल्लंघन -
फड़फड़ाने की सीमा-ऊर्जा का ;
दूसरा भाग-
कसमसाता है, फड़-फड़ होती थोड़ी
हाय! चुभते हैं काँटे,
छलनी-छलनी होती चमड़ी में
और बारीक छिद्र करते -
तीर सी चुभती है हवा, समाती है
भीतर- कँपा देती वहाँ के निर्वात को भी !
उग आते हैं वक्र के आठों चिन्ह
चेहरे पर भी !
विध्वंसक है टकराव,
बाहर-भीतर की कालिख का-
जाने कब फ़ट पड़े
विष की झील के नीचे
सोया ज्वालामुखी,
छनाक! तोड़कर पानी की परत को
चमड़ी की छेदों से निकलती
विषैली आग और धुआँ
बदल न दे हरी भरी दुनिया को
गैस चेम्बर में!
कोटिशः बार मृत बदन
के विषैले धुएँ से
मर न जाएँ हजारों जीवित लोग,
चीखते-चिल्लाते-भागते
एक-दूसरे और अपने आप से,
और मढ़ें इल्ज़ाम धुएँ पर-
उफ़! घुटन होती है,
फ़िर वही कसमसाहट!
चमड़ी में फ़िर छेद !
फ़िर चुभन!
धुआँ ! धुआँ !!
कमरे की टीस असह्य है ।
उठकर भागता है
लेकर कटे-फटे बदन को ले-
रिसते गंदे लिज़लिज़े रक्त को
तोड़कर दरवाज़ा
जंगल के उस अकेले कमरे का,
झील की तरफ़
नंगे पाँव ,
अपने हिस्से की लाल कीचड़ में
डुबोते हुए पाँव ,
अंगुलियों के बीच की फ़ाँक से
ठंढे कीचड़ को रास्ता देते हुए,
और रखते हुए कदम
हड्डियों के ढेर पर !
जंगल के अपने हिस्से की
छिदी, रिसती आत्माओं की हड्डियाँ
पाँवों के नीचे आकर टूटतीं
और
चुभतीं पाँवों में
चूसकर रक्त थोड़ा
मिलाती और लाल रंग
कीचड़ में !!
झींगुरों की टिर्र टिर्र ………
जंगल की टीस असह्य है !
तेजी से भागता है-
खिसकती-सिसकती खोपड़ियों पर
सरपट रखता पैर,
झील के पानी से
जल्दी जल्दी ,धोता है लाल खून,
सफ़ेद पानी में लाल रंग
घुलता है धीरे धीरे,
हो जाता है हल्का लाल
पनियाले रक्त से धुलता है
और रक्त , अजस्र स्रोत से निकलता हुआ,
और झील में भर जाता है -
लाल पानी;
लाल से धुलता लाल !!
झील की टीस असह्य है ।
आलोक शंकर
दिल पकड़ कर बिठाया है वो
ऐसा लगा है टीस दिल पर लगा
गम उस्को कुछ ऐसा मिला
खुल कर हंस भी न सके
कुल कर रो भी न सके
देख कर हाथों में खंजर दिल दहल जाता है
जुंबा कुछ न कहे मगर
आंखों से बयाँ कर जाता है
वो कुरेदते ही रहते हैं जख्मों को
दिन गुजरते ही जाते हैं
उम्मीद जिस चीज के पाने की करते हैं
जब वो चीज न मिले
तभी तो टीस लगती है
कांटों की सेज पाने वाले
मखमल की सेज ढूंढते हैं
उसका खामोश और उदास चेहरा
देखकर दिल दहल जाता है
हर चीज हए मेरे पास फ़िर भी
नये चीज को देखकर दिल मचल जाता है
चाह रहे थे अब तो दूर होगा गम
अपने ही अपनो को जब गम देते हैं
बेगानों से क्या शिकवा और किस से करें शिकायत
चन्द पैसे और चन्द चीजों के लिये
दिल को तार-तार कर गाते हैं संजय
टीस चीज ही ऐसी है जुंबा खामोश कर जाते हैं
दिल अन्दर से रोता है दर्द आंसू बनकर छ्लक जाते हैं
संजय साह
दिखे जब रंग इन्द्रधनुष के
कुछ स्वप्न भूले बिसरे याद आए
दे के दर्द गए वह पवन के झोंके भी
जब हौले से वह यूं छु जाए
चुभी दिल में कोई फाँस सी
जब कोयल कुहू कुहू गाए
हर बीता मौसम दे याद तुम्हारी
पर गुजरा वक्त कब हाथ है
आए टीस दे इस दिल को हर वो लम्हा
जो गुजरा तुम संग साथ बीताये
भेजे कई मिलन के संदेशे हमने
दिल की बात तुम समझ न पाये
न न.. मत अब सहलाना
कोई दिल का दाग तुम
अब मेरा जब तक दिल में .......
यह विरह की टीस घनेरी तब तक हैं
यादों में तेरा बसेरा
चुभती बात में याद आए
तुम हर दर्द में दिखे
चेहरा तेरा रहने दो अब
टीस यह दिल में यूं तो
रहेगा साथ तेरा मेरा !!
रंजना भाटिया
मामला टीस का न हो
तो बेहतर
पर कम या ज्यादा मामला
टीस का ही है।
जब टीस उखड़ती है
तो दरद देती है
दबी रहती है
तो ज्यादा दुख देती है।
तमाम खुशगवारियाँ कहीं
पीछे छूट जाती हैं
तारों भरा आकाश सूना लगता है
धरती तो सदा से बयाबान रही हैं
हमारे लिये
ना चाँद से काम चलता है
ना फूल काम आते है।
कभी कम
कभी ज्यादा
रहती है टीस भीतर हमेशा
विपिन चौधरी
जब भी उठती है कोई टीस मेरे ज़ख्मी दिल में,
मैं ज़ेहन में तेरी यादों का मरहम बना लेता हूँ।
तुम तो खामोश हो इस कदर बेज़ुबान की तरह,
मैं तो तफसील से अपना सारा भेद बता देता हूँ।
इक तेरी हँसी के बिना बेकार है ये दुनिया सारी,
इस खामोशी पर मैं सारी खुशियाँ लुटा देता हूँ।
करके दीदार तसवीरों में ही तेरी खुबसूरती का,
मैं तो आवारगी में अपनी औकात भुला देता हूँ।
मेरी नींद पर पहरा है बेरहम वादों का तेरा,
अब आँखों ही आँखों में सारी रात बिता देता हूँ।
ख्वाबों में आना ही तेरा बार-बार पिराता है मुझे,
अब परछाई पकडते हुए ही दिन गुजार देता हूँ।
अब तो आ जाओ एक बार वे वादे डराते हैं मुझे,
लो उन वादों पर मैं अपनी ज़िंदगी मिटा देता हूँ।
डॉ. नंदन
पड़ोस की वह अन्धी लड़की
पूछ बैठती है
यह दिन है या रात ?
टीस उठती है मेरे दिल में
इतना भी नहीं जान पाती वह
और जान कर करेगी भी क्या ?
देखने से तो रही बिना आंख के
वैसे वह जन्म से अन्धी नहीं
सहपाठिन थी मेरी
केमेस्टी की प्रयोगशाला में
हुई एक दुर्घटना
ऐसी अफवाह है
कि थी किसी की शरारत
पर जब वह पूछ बैठती है
यह दिन है या रात ?
फटती हैं मेरे दिल की नसें
चीर जाती हैं सीने की पसलियां
निकलती पीड़ा की बूंदें
समा जाती रक्त में
मैं पागल हो उठता हूँ ।
कभी कभी सोचता हूँ
क्यों न उसके इलाज का खर्च भी
मैं उठा लूं
पर इतना भी संवेदना में
बह जाना
ठीक नहीं
क्यों कि इसमें मैंने… मैंने…
क्या किया था
क्या कसूर था मेरा
इसका प्रमाण भी क्या है
कौन जानता है इसे?
हां, जो मैं भुगत रहा हूँ
इसका नाम है कुछ
गर्मी दिमाग में
कि लपलपाती वेदना की भाप
फेफड़ों से बाहर निकलने पर
श्वांस नली
चिल्लाती है
ऐसी टीस उठती है ।
हरिहर झा
पैदा होती टीस बहुत कुछ है मेरे इर्द गिर्द,
बहुत सा परेशानियां, बहुत सा दर्द
अव्यवस्थाओं के अखबार में जैसे तैसे
लिपटी हुई व्यवस्थात्मक व्यवस्थाएँ
अपराधों को वैधानिक स्वरूप देती
प्रशासनिक संस्थाएं,
रोटी की बाट जोहती व्यथाएँ,
न्याय की तलाश में भटकती,
बुढ़ाती झर्रियों में चेहरा तलाशती कथाएं
इन कथाओं को सुनते समझते भी
जब मानव कुछ ना कर पाता है
तो दिल में कुछ चुभता है,
एक टीस पैदा कर जाता है ।
बाज़ार बना समाज
सब कुछ बिक रहा है आज
पहले बिका करते थे जिस्म,
अब रूह भी बिक जाती है
दर्द, संवेदनाओं का बाज़ार गर्म है
आस्था भी बोली लगाती दिख जाती है
अब वो ग़ालिब नही जिसके दिल में
नीम कश तीर से ख़लिश हुआ करती है
अब तो मतलब के बाज़ार में बस
मौका परस्त प्यार की तपिश हुआ करती है
इस बाज़ार मे जब मानव खुद को
एक भिखारी की तरह पाता है
तो दिल में कुछ चुभता है
एक टीस पैदा कर जाता है ।
बस्ते के बोझ तले दबा बचपन
अपनी झुकी कमर सहलाता है
हर मां-बाप को अपना बच्चा
तथागत तुलसी नज़र आता है
हरदम प्रथम की हसरत पाले
मासूम बचपन क़त्ल हो जाता है
होड़ लगाता बुधिया सा बचपन
जब निरंतर भगाया जाता है
मानव जब खुद को अससमर्थ पाता है
तब दिल में कुछ चुभता है
एक टीस पैदा कर जाता है
सत्ता दर पर नाक रगड़ती चापलूसी
आंखों पर पट्टी बांधे, कानों में रुई ठूंसे
बुज़दिली भरी कई खोखली हंसी
कई सवाल पैदा कर जाती है
इन सवालों के जंगल में उत्तर तलाशता
मानव जब खुद को लाचार पाता है
तब दिल में कुछ चुभता है
एक टीस पैदा कर जाता है
पंकज रामेन्दू मानव
जब जब मेरे कलम की स्याही बनी टीस,
मेरे ज़ख्मों की दवाई बनी टीस
जब जब मेरे हूक -ऐ -हलक की आह बनी टीस,
मेरी खामोशी की वजह बनी टीस
जब जब मेरी एक बेनूर परछाई बनी टीस,
वहीं एक ताबिंदगी दिखती बनी टीस
जब जब मेरी करवटों की रात बनी टीस,
सुबह सलवटों में बन कर मिटी टीस
जब जब अश्कों में काजल घुल कर गुजरी टीस,
हर रंजो ग़म को स्याह कर .. बिसरी टीस .
प्रगति सक्सैना
मैं, समुद्र के किनारे,
लहरों द्वारा रेत पर फेंक दी गई,
एक टूटी सीपी.
कोई नाम नहीं,
पहचान नही,
रूप-गुण रहित
नितांत मूल्यहीन.
क्षितिज के छोर तक विस्तृत
विशाल जलराशि और
अगाध बालुकराशि के मध्य
मेरी उपस्थिति..........
अमावस के रात की चाँद सी
या मरुभूमि के एक झाड़ सी.
मलाल तो है.......क्या बिगड़ जाता समुद्र का
यदि वह मुझे निज गर्भ मे ही समाये रखता,
या फ़िर, मुझे बिन तोड़े,
एक पूरी सीपी ही रहने देकर,
रेत पर फेंक जाता.
रंजना सिंह
लम्हा-लम्हा तेरे साये को सीने से लगाया मैंने,
दिल मे उठी टीस को आज फिर समझाया मैंने.
ख्याब बन कर मेरी आँखों में समाने वाले,
तेरे यादों की टीस से महफिल को सजाया मैंने.
आसूँ ठहरे हैं मेरी पलकों पे शबनम की तरेह,
अश्कों मे बसी टीस को दिल भर के रूलाया मैंने
कौन कहते है तेरे बगैर सिर्फ़ तनहा है हम,
अपने लहू की टीस से तेरे अक्स को बनाया मैंने
कोई रात कटती नहीं युगों मे बदल जाती है जब,
टीस से सजी तन्हाई को तेरे कंधे का पता बताया मैंने।
अंधेरों मे जब-जब करते हैं ख़ुद से बातें हम,
मोहब्बत की टीस को गीतों मे गुनगुनाया मैंने।
क्या शोला क्या चिंगारी जलाएगी मेरे इस दिल को,
जिस्मोजान में दबी टीस को तेरे स्पर्श का एहसास कराया मैंने
सीमा गुप्ता
वाह , काश ,उफ , ओह
वे शब्द हैं
जो
अपने आकार से
ज्यादा , बहुत ज्यादा कह डालते हैं !
हूक , आह ,पीड़ा, टीस
वे भाव हैं
जो
अपने आकार से
ज्यादा , बहुत ज्यादा समेटे हुये हैं दर्द !
मैं तो यही चाहूँगा कि
काश ! किसी
को
भी , कभी टीस न हो
सर्वत्र सदा सुख ही सुख हो !
शायद ,ऐसा होने नहीं देगा
नियंता पर
क्योंकि
विरह का अहसास
चुभन, कसक , कोख है सृजन की , टीस !
विवेक रंजन श्रीवास्तव "विनम्र"
चाह जब होती न पूरी
यत्न हो जाते विफल
बीत जाता समय,अवसर
हाथ से जाते निकल !!
छोड़ जाते टीस मन में
लालसा की प्राप्ति की
क्योंकि यह रहती न आशा
पूर्ण हो पायेगी कल !!
आदमी होता परिस्थिति
से बहुत मजबूर है
क्योंकि उसका लक्ष्य होता
जाता उससे दूर है !!
सफलता पाने का सुनिश्चित
जरूरी सिद्धांत है
समय, श्रम ,सहयोग के संग
लगना कहीं जरूर है !!
प्रो.सी.बी.श्रीवास्तव "विदग्ध"
ये पल है अभी, इस पल को जियो
इस पल की भी, महत्ता समझो
ये चला गया तो, यूं ना हो
इस पल की कहीं कोई टीस रहे
इस व्यस्त बिखरे जीवन मैं
हम मेल बिठा नहीं पाते हैं
कहीं काम-काज के चक्कर में
दिन जीने के न बीस रहे
दिल की बातें, दिल में रखो, या
झूठ का दामन, तुम थामो
हाँ, वक़्त पे सच न कह पा के
ताउम्र सालती टीस रहे
लगती है बात ये छोटी से
र छोडो ना तुम कल पे कभी
गर रखा ध्यान इन बातों का
इच्छा से दिल अवनीश रहे
शैलेश चन्द्र जमलोकी
दिल मे दबी हुई एक टीस,
ना जाने क्यों मुझको रुला जाती है,
आँगन मे देखो तो हर तरफ खुशियाँ है,
पर ना जाने क्यों लगता है,
वो नीली आखो वाली आज भी मुझको बुलाती है.
बूढ़े बाप का कलेजा भी,
एक टीस को ले कर रोता है,
जिस बैटे की खातिर इतने जतन किये,
वो बेटा मुझको, वृद्धाश्रम मे छोड़,
कैसे चैन की नींद सो लेता है.
हर दिल मे एक अलग टीस,
हर टीस की अपनी कहानी है,
सब कुछ तो अच्छा हो गया,
फिर भी अन्त मे एक टीस रह जानी है.
आशुतोष मासूम
वो दो रिश्ते बड़े अनोखे थे
जब कभी मैं सुलगती थी
वाष्प बन उड़ जाते थे दोनों
फिर बरसते थे मुझे
शीतल करने.....
जब कभी मैं ठंड से कांपती थी
सूरज को बुला लाते थे
दुनिया के दूसरे कोने से
मुझे गर्मी प्रदान करने.
.
दो रिश्ते जो अपने थे,
अब सपने है
उफ़्फ कहाँ गए वो
मुझे तनहा कर......
वक़्त आगे बढ़ गया है
रिश्ते सिमट गए है,
ठहर गए है...
वहीं....मेरी पुरानी डायरी में,
उन मांगी हुई किताबों में,
कार्डों में,कानों की बालियों में,
उन अनगिनत तस्वीरों में,
मेरे कमरे के बिस्तर पर...
जहाँ घंटों हँसते थे
झगड़ते थे,कभी
रोते थे.....
दो रिश्ते अब भी उभरते है
हृदय में
टीस के रूप में.
जो उम्र भर रहेंगे
मेरे साथ
एक याद बन कर
एक आह बन कर......
दिव्या श्रीवास्तवा
मिले प्यार के बदले आंसू क्यों न मन में टीस उठे
झुका दिया चरणों में तो फिर कैसे अब यह शीश उठे
नहीं बढ़ा इक हाथ किसी भूखे ने जब मांगी रोटी
पत्थर मारो कहा किसी ने हाथ तुरत चालीस उठे
हुए घुटाले राज महल में, पंछी को न ख़बर हुई
एक चोर रोटी ले भागा, तुरत पालिकाधीश उठे
महामहिम मायावी मां का बेटा होगा महासचिव
सुन कर पितामहों के कर भी देने को आशीष उठे
भरी सभा में ख़लिश वीर जब आंख बंद कर के बैठे
ले कर कलम हाथ में अपने क्यों न फिर वागीश उठे
महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
टीस देखने मैं निकला तो
टीस मिली हर एक दिल में
टीस किसी की राह-राह तो
टीस किसी की मंजिल में
टीस क्षुदा से बिलख रहे
उस बचपन की लाचारी में
हष्ठ-पुष्ठ दो हाथ टीस
बन गये कहीं बेकारी में
माँ की ममता टीस लिये
हर रात ठिठुरती सर्दी में
निज क्षीण वसन से ढाँप रही
बच्चों को बस हमदर्दी में
मातृत्व पूर्व बिन टीस दिये
हो गयी रिक्त जो भरी कोख
एक एक बूँद बन गयी टीस
अश्रुधार जो गयी सोख
टीस प्रिये की यादों में
सावन की ऋतु बरसातों में
प्रियतम के बिन छाये तम में
अँधियारी लम्बी रातों में
अंशों की दुत्कार टीस
असहाय बुजुर्गी आँखों में
टीस बिलखती मिली मुझे
निर-अपराध सलाखों में
दीवारें बन रहीं टीस
कहीं ग्रंथि-बन्धन टीस बना
आस्तीन का सांप बना तो
हाय! अपनापन टीस बना
टीस मिली मन्दिर-मन्दिर
मस्जिद में नमाजें टीस बनीं
मानवता रो पडी चीख कर
रीति-रिवाजें टीस बनीं
टीस सुलगती सरहद पर
कहीं बाजारों की दहल टीस
दम्भ फरेबी मगरमच्छ बन
जगह जगह रही टहल टीस
कुछ टीस समझने वाले भी
मोल शौक में लेते है
कुछ खेल समझते टीस-टीस
तोल थोक में देते हैं
कभी कभी ये टीस काम में
भी अपने आ जाती है
शब्दों की सीढ़ी पर चढ़कर
कागज पर छा जाती है..
भूपेन्द्र राघव
टीस...हाय टीस...ये कैसी टीस..
अपनी उर्वरता खोने वाले, उन
बंजर जमीनों को देखने की टीस
या गांवों से पलायन करने वाले
गरीबी, भूखमरी को जीने वाले, उन
तड़पते हुए, हारे पथिकों की टीस
या फिर उनकी राह जोहती
दो पल यादों के सहारे
हंसती और रो लेती,
उनके आने को पलकें बिछाए,
उन नवेली दुल्हनों की टीस.
दो बूट अन्न और कुछ पैसों के लिए,
जेठ-बैशाख की उफनती दोपहरी में
खेतों में काम करते ,
धूप से जलते, उन
बूढे, बच्चों और औरतों की टीस
या दिन-रात काम के बोझ को सहती
जवानी में ही झुर्रियों से सजती
अपनी मादकता खोती
उन युवतियों की टीस
या उन बच्चों की कहें
जो छोटी उम्र में ही घर की बैशाखी बनते
वास्तविक सपनों के गुलशन से दूर होते
अशिक्षा को पाते, उन
अबोध बच्चों की टीस
या उन दादा दादियों की सुनें
जिनसे कोसों दूर, उनके लिए रोटी लाने
सड़कों दफ्तरों फैक्ट्रियों और भट्टियों में
अपने को झुलसाने
उनकी ममतामयी नेत्रों से बहुत दूर
उनसे अन्तिम मिलन को तड़पते
जीवन के अन्तिम पहर को ढलते
उनके यादों को रोते, उन
बोलती आहों की टीस
या फ़िर धीरे - धीरे अपनी संस्कृति से दूर होते
बारहमासा झूमर जैसे लोकगीतों को छोड़कर
काँटा लगा और छैंया-छैंया में ही मस्त होते
अपने अस्मिता को खोते, उन
गांवों की टीस
टीस...हाय टीस...ये कैसी टीस
अब और भी शिकंजों में फंसती
इसकी तपिश में जलती ये टीस
सफर,हर सफर में सुलगती ये टीस
हुआ घाव गहरा, अब और भी तड़पाती,
दर्द बढाती ये टीस
टीस...हाय टीस...ये कैसी टीस....
अभिनव कुमार झा
किलकारी घुटी वधशाला में
हम देख रहे बन दासी,
जात-पात के झगड़ों में जब
सिरमौर बने सियासी,
दिल में टीस सी उठती है,
पढ़े-लिखे इंजीनियर भी जब,
बनने लगें खलाशी,
कुत्ते खाएं बटर कहीं
कहीं मिले न रोटी बासी,
दिल में टीस सी उठती है,
नेतागण बेफिक्र रहे
९२ हो या ८४,
अफसर हो या व्यापारी
जब करे न्याय बदमाशी,
दिल में टीस सी उठती है
बैठे बड़े ओहदों पर जब
अफसर करें उबासी,
जनता के खून-पसीने पर जब
बड़े करें अय्याशी
दिल में टीस सी उठती है
बलात्कार करने पर भी जब
मिलने लगे शाबासी,
अफजल हो या मनु शर्मा जब
मिले न उनको फासी
दिल में टीस सी उठती है
बापू के इस देश में जब
मजलूम लगाएं फासी,
स्वर्ग सिंहासन छोड़ के जब
राम बने वनवासी,
दिल में टीस सी उठती है
करते अर्ज खुदा से हम,
दे दो दुष्टों को फाँसी क्योंकि......
दिल में टीस सी उठती है.
आलोक सिंह "साहिल"
सिंहर उठा अन्तर मन फिर से
सिंहर उठा अन्तर मन फिर से
एक बार-
टीस उठी अन्तस में ज्यों देखा अखबार
काँप उठीं उँगलियाँ ठिठक गए हाथ
छपा था एक चेहरा
चढ़ा दिया बलि अपने ही हाथों से
अपनी बेटी को ……. !! ऐसा समाचार
होता है क्यों ऐसा
पूछा मैने स्वयं से सवाल
खोखली दुनिया के खोखले लोग
खोखली बातें खोखले नियम
जला देते हैं सारे अस्तित्व को
ये ढेर सारे सवाल
क्यों कोसती है नारी
स्वयं निज अस्तित्व को
टीस से भर उठा है मन
हो गई आँखें गीली
सजल हुआ है मन
अपने ही आस-पास
देखती हूँ जब
कोसती है नारी को नारी
पुत्र की खातिर
जहाँ बेटी …
चढ़ती बलि हो
ढूँढ़ती हैं मेरी आँखे
इससे दूर ……
एकअभिनव संसार को
टीस मैं अपनी…
मिटाना चाहती हूँ
जन्म अपने अंश से
शक्ति को देना चाहती हूँ
यही तो है कल्पना
जो सीता भी है
और सृष्टि भी
अरे संभव हुआ क्या
संसार भी नारी बिना
पुरूष को पौरूष दिया
नारी वही तो शक्ति है
उठो जागो मातृशक्ति
भरम मिथ्या तोड़ दो
काट दो बन्धन ….
मनोभावों को अब
अभिव्यक्ति दो
वृक्ष है जो टीस का
उसको उखाड़ो फेंक दो
अमिता मिश्र 'नीर'
तुम ही बताओ सिमरन कुदरत का ये कैसा मौन है !
पल भर जीने के लिये हम कितना मरते है ,
और जब मौत हो करीब हम कितना डरते है ,
अगर हम आगे नहीं तो पीछे हमारे कौन है?
तुम ही बताओ सिमरन कुदरत का ये कैसा मौन है!
रुक-रुक कर चलती है सांसें
और जिन्दगी पल भर के लिये रूकती नहीं ,
दौड़ के इस महाकुम्भ में कुदरत का ये कैसा मौन है!
तुम ही बताओ सिमरन कुदरत का ये कैसा मोंन है!
जिसे दुदने के लिये हम ने अपना दिल जला दिया,
और सारे शहर में आग लगा दिया ,
देखु उस धुएं के पीछे छुपा कौन है?
तुम ही बताओ सिमरन कुदरत का ये कैसा मौन है!
मै तो बद्जुबा हूँ सिमरन ,
मै तो बोलूँगा ,
देखता हूँ ये खुदा कब तक मौन है?
तुम ही बताओ सिमरन कुदरत का ये कैसा मौन है!
मधुकर (मधुर)
विश्व-निर्माण के पूर्व ,
था ब्रह्म एकल सम्पूर्ण
सदैव सत-चित-आनंद में स्थित
परंतु स्वयम् से अपरिचित
किसी भी अनुभूती से परे
अद्वैत सर्वत्र विचरे
अनुभव के माध्यम से
अपने आपको जानने की,
किसी और दृष्टी से
स्वयम् को पहचानने की
आंतरिक स्फूर्ती से
हुई रचना फिर द्वैत की !
स्वयम् से भिन्न होकर
परम-आनंद की दशा त्यागकर
ब्रम्ह ने सोच विचार कर
टीस का आविष्कार कर,
आत्म-अनुभूती के हेतु से,
किया आरंभ विश्व संभार फिर!
अद्वैत छोड़ गर प्रभू
न त्यागते आनंद को,
और अपनाते द्वैत की टीस को
शायद ही होता अनेकता,
भिन्नता का यह निर्माण...
ना ही मिलता किसी भी
अनुभव का यथार्थ परिमाण !
क्योंकी स्वर्ग तो सबका
एकही होता है,
किंतु नर्क अपना
अलग हरेक का....
सही माने में यह एक वरदान,
अपनी टीस ही देती है
प्रत्येक को अपनी-अपनी
अलग पहचान !
सतीश वाघमरे
कल झाँक रहा था
कुछ चेहरे साफ दिखे थे,
चांदनी रात में
सब साथ थे,
आज उठा फिर मुँह धोया
तालाब कुछ खाली सा था,
तुम कहाँ गये कुछ पता नहीं,
कब चले गये कुछ कहा नहीं,
इतनी सारी बातें थीं,
जो रहीं ,कभी फिर कहीं नहीं
कुछ कहके जाते तो
यकीं आ जाता
कि चले गये हो़!!!
दिव्य प्रकाश दुबे
हर बार जब भी कोई
कपड़े बदल कर
नारा बदल कर
मजहब बदल कर
खून करता है इंसानियत का
तो उठती है 'टीस'|
जब भी कुर्सी के लिए
भाई से भाई लड़वाया जाता है
चंद वोट की खातिर
ईमान गिराया जाता है
तब उठती है 'टीस'
आज इतने कमजोर हो गए हैं हम
और हमारी मानवता के मूल्य
कि बड़ा बनने की खातिर
बहू-बेटी को उठवाया जाता है
तब उठती है ' टीस'
जब प्रार्थना करते लोग
बम से उड़ाये जाते हैं
और फ़िर
उनको श्रद्धाँजलि के नाम पर
वोट बनाये जाते हैं
तब उठती है 'टीस'
झूठ कहो खुश रहो
तारीफ़ करो मजे करो
कि जब सच सूली लटकाए जाते हैं
तब उठती है 'टीस'|
सोमेश्वर पाण्डेया
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
89 कविताप्रेमियों का कहना है :
२८ कवितायें एक विषय पर पढ़ कर ऐसा लगा जैसे एक पूरी किताब पढ़ डाली हो.
हिन्दयुग्म को बधाई एक अच्छा संग्रह हो गया है. सारी कवितायें पसंद आयीं..
कुछ खास लगीं--
****जैसे डॉ. आशुतोष शुक्ला की कविता मन को झकझोर कर रख देती है.और सोचने को विवश करती है कि आज क्या वास्तव में यही स्थिति है??
*अमिता मिश्र 'नीर',*सतीश वघ्मेर ,* आलोक शंकर, कवितायें भी मन को छूती हैं.
*भूपेन्द्र राघव का कहना -''हष्ठ-पुष्ठ दो हाथ टीस
बन गये कहीं बेकारी में
माँ की ममता टीस लिये
हर रात ठिठुरती सर्दी में''
सच में पाठक के मन में टीस जगाता है.बहुत बढ़िया लिखा.
*डॉ. नंदन की ग़ज़ल अपना स्थान अग्रिम पंक्ति में पकड़ कर बैठी है. ,
*तो संजीव कुमार गोयल "सत्य" की रचना में सरलता आकर्षित करती है.
*शोभा महेन्द्रू का यह कह कर ''--आगे बढ़ जाता हूँ
कोई टीस नहीं'.----आज के मानव के स्वार्थी रूप सेपरिचय कराना कविता की खूबी रही.
*****सभी कविताये काव्य पल्लवन गुलशन के रंग बिरंगे फूल लगे.
सभी प्रतिभागियों को शुभकामनाएं.*****
Comment For: http://merekavimitra.blogspot.com/2007/12/blog-post_27.html#seema
Seema, the pain inside your peoms can be felt very straight now. It was a aching poem of yours, like all the others have been in past.
Marvelous!!!
Good to see that you are not being left a shy Shy. Keep keeping it up :)
-- Amit Verma
सबसे पहले तो मैं इसबार के काव्य-पल्लवन मी शामिल सभी २७ (२७-१) कवियों को बहुत बहुत साधुवाद देना चाहूँगा.अब आती है बारी-बारी से विभिन्न कवियों की टीस भरी कविताओं की -
१. आशुतोष जी आपने सभी पहलुओं से टीस को परखने ki जो कोशिस
की है वो काबिले तारीफ है, विशेषकर
है उदार अब अर्थ-नीति,
हम स्वागत में लगते बिछने,
पूंजी के बढ़ते प्रवाह में,
लगे आंकड़े स्वच्छ सलोने
घटती मुद्रा की स्फीति,
भूख कुलांचे भरती है
मुझसे मत पूछो तुम आकर,
टीस मुझे क्यों उठती है ?
ठेके वाले और अधिकारी-नेता,
का गठजोड़ बना हैकर चोरों की मौज हुई,
और आम आदमी अदना है,
तीन महीने मात्र पुरानी,
सड़क उधड़ने लगती है
मुझसे मत पूछो तुम आकर,
टीस मुझे क्यों उठती है ?
२.शोभा जी आपके बरे में क्या कहूँ बस हर बार की ही तरह इस बार भी आपने घायल कर दिया,
३.सच कहा ममता जी आपने की आपकी तीस ही आपकी पहचान है-
जन्म से मिले
रिश्ते सहज ही
मान्यता पा जाते हैं
पर ---
नेह का वह अनमोल रिश्ता
जो तुमने
मेरे जीवन के
प्रथम बसन्त में
मेरे भीतर रोंपा था-
आज भी-
हाँ- आज भी अमान्य है
उस समय भी समाज के
क्रूर हाथों ने
इसकी कलियों को
नोच डाला था
तुम्हारी असमर्थता
एक टीस जगा गई थी
दिल को छू लेने वाली पंक्तियाँ हैं.
४.क्या बात है श्रीकांत जी! लाजवाब
है टीस
यहीं कहीं आस-पास
पर्वत शिखरों पर
आच्छादित मेघ
कभी ऊपर कभी नीचे
पल-प्रतिपल खिलती धूप छाँव
५.संजीव गोयल जी बहुत ही गहरे भाव पिरो दिए हैं आपने इन सीमित अल्फजों में
अंतर्मन सान्तवना, दुलार देता है,
और हर "टीस" से उबार लेता है
६.आलोक शंकर जी कमाल का लिखते हैं आप भी
क्या खूब रचा है-कसमसाता है, फड़-फड़ होती थोड़ी
हाय! चुभते हैं काँटे,
छलनी-छलनी होती चमड़ी में
और बारीक छिद्र करते -
तीर सी चुभती है हवा, समाती है
भीतर- कँपा देती वहाँ के निर्वात को भी !
उग आते हैं वक्र के आठों चिन्ह
चेहरे पर भी !
७.संजय साह जी जहाँ तक मैं समझता हूँ यह आपकी मेरे संज्ञान में पहली प्रस्तुति है और मैं हर नई चीज का दीवाना बन जाता ह, आपकी ही बात करें तो-
हर चीज हए मेरे पास फ़िर भी
नये चीज को देखकर दिल मचल जाता है
८.रंजना भाटिया जी मैं आपके किसी एक अंतरे को नहीं उठा सका क्योंकि मुझे आपके चारों ही अंतरे पसंद आए.
बहुत बहुत साधुवाद
९.क्या बात है विपिन जी-मामला टीस का न हो
तो बेहतर
पर कम या ज्यादा मामला
टीस का ही है।
बहुत खूब
आलोक सिंह "साहिल"
अंधेरों मे जब-जब करते हैं ख़ुद से बातें हम,
मोहब्बत की टीस को गीतों मे गुनगुनाया मैंने
bahut hi achha manobhav jaagrat hua hai Seema ji..
Shobha jee shabdon se bahut achha vaar kiya aapne aaj ke swaarthi manav ko..
Sabhi kaviyon ko meri taraf se shubkaamnayen..
Ranjana ji ka bhi prayas atyant sarahneeya hai..
bhav-shilp kim kahaun bakhaani!
gira anayan nayan binu vaani !!
vastutah brhamanand saris !!!!!!!!!!!!!
डा. आशुतोष शुक्ला
-- आपके टीस के कारण से मैं सहमत हूँ |
शोभा महेन्द्रू -
टीस ke sadupyojeetaa ko bataane ke liye dhanyvaad|
sundar रचना
ममता -
विरह वेदना का परिचय देती आपकी रचना सुंदर बनी है |
श्रीकान्त मिश्र 'कांत' --
सब जगह टीस का होना आपकी रचना के प्रति तन्मयता को दर्शाता है |
बधाई |
संजीव कुमार गोयल "सत्य"
-- तब -
अंतर्मन सान्तवना, दुलार देता है,
और हर "टीस" से उबार लेता है
----
बिल्कुल सत्य रचना है | कल्पना से दूर |
बधाई
विपिन चौधरी --
बहुत खूब
सीमा गुप्ता --
ग़ज़ल बहुत सटीक बनाया है इस विषय पर |
बधाई
विवेक रंजन श्रीवास्तव "विनम्र" -
शायद ,ऐसा होने नहीं देगा
नियंता पर
क्योंकि
विरह का अहसास
चुभन, कसक , कोख है सृजन की , टीस !
---
बहुत सुंदर ख्याल है |
और सभी की रचनाएं बहुत सुंदर बनी है |
बढाए
अवनीश तिवारी
Dear Seema Mam,
Very Beautiful poetry. Keep it up.
Love Nimmi:-)
टीस कविता पर लिखी सब रचनाएँ बहुत ही प्रभावी लगीं ।
आशुतोष जी
अच्छा व्यंग्य है
युवा शक्ति जब देश भूलकर,
बस ज़ुल्फों में फंसती है
मुझसे मत पूछो तुम आकर
टीस मुझे क्यों उठती है ?
ममता
भावनाओं का समुद्र ही उड़ेल दिया । अति सुन्दर
तुमसे अलग होने के बाद भी
यह टीस तुम्हारे रिश्ते को
मेरे भीतर पालती रही
और आज भी--
बरसों बाद--
जब बालों में सफेदी उतर आई है
समय चक्र घूम कर
फिर से तुम्हें--
मेरे पास ले आया है
यह टीस है कि
मिटती ही नहीं
श्रीकन्त जी
है टीस
यहीं कहीं आस-पास
मेरे पास
इसीलिये
मैं उदास
है टीस मेरे पास
मेरे पास
टीस को हर ओर देखा है। व्यापक दृष्टिकोण है ।
संजीव गोयल जी
उन विस्मृत पलों को कुरेदता है,
मुदित-अमुदित पलों को सहेजता है,
अधीर सा रहता है,
भावनाओं में बहता है
तब -
अंतर्मन सान्तवना, दुलार देता है,
और हर "टीस" से उबार लेता है
सुन्दर लिखा है
आलोक शंकर जी
आपकी कविता ने हमेशा ही प्रभावित किया है । इस पल्लवन में सबसे सुन्दर कविता आपने ही लिखी है
बहुत सुन्दर । साधुवाद
कोटिशः बार मृत बदन
के विषैले धुएँ से
मर न जाएँ हजारों जीवित लोग,
चीखते-चिल्लाते-भागते
एक-दूसरे और अपने आप से,
और मढ़ें इल्ज़ाम धुएँ पर-
उफ़! घुटन होती है,
फ़िर वही कसमसाहट!
चमड़ी में फ़िर छेद !
फ़िर चुभन!
धुआँ ! धुआँ !!
कमरे की टीस असह्य है ।
बहुत ही प्रभावी । बधाई एवं आशीर्वाद
------------------------------------
रंजना जी
हमेशा की तरह बढ़िया लिखा है -
हर बीता मौसम दे याद तुम्हारी
पर गुजरा वक्त कब हाथ है
आए टीस दे इस दिल को हर वो लम्हा
जो गुजरा तुम संग साथ बीताये
भेजे कई मिलन के संदेशे हमने
दिल की बात तुम समझ न पाये
अति सुन्दर
विपिन जी
अंदाज़ बढ़िया लगा
मामला टीस का न हो
तो बेहतर
पर कम या ज्यादा मामला
टीस का ही है।
जब टीस उखड़ती है
तो दरद देती है
दबी रहती है
नंदन जी
जब भी उठती है कोई टीस मेरे ज़ख्मी दिल में,
मैं ज़ेहन में तेरी यादों का मरहम बना लेता हूँ।
तुम तो खामोश हो इस कदर बेज़ुबान की तरह,
मैं तो तफसील से अपना सारा भेद बता देता हूँ।
अति सुन्दर
हरिहर झा जी
-----------------------
हमेशा की तरह दिल को छू लेने वाली रचना
पड़ोस की वह अन्धी लड़की
पूछ बैठती है
यह दिन है या रात ?
टीस उठती है मेरे दिल में
इतना भी नहीं जान पाती वह
और जान कर करेगी भी क्या ?
देखने से तो रही बिना आंख के
हार्दिक बधाई
प्रगति सक्सेना
------------------------
जब जब मेरे कलम की स्याही बनी टीस,
मेरे ज़ख्मों की दवाई बनी टीस
जब जब मेरे हूक -ऐ -हलक की आह बनी टीस,
मेरी खामोशी की वजह बनी टीस
रंजना सिंह
--------------------
मलाल तो है.......क्या बिगड़ जाता समुद्र का
यदि वह मुझे निज गर्भ मे ही समाये रखता,
या फ़िर, मुझे बिन तोड़े,
एक पूरी सीपी ही रहने देकर,
रेत पर फेंक जाता.
अच्छा लिखा है ।
सीमा गुप्ता जी
-----------------------
लम्हा-लम्हा तेरे साये को सीने से लगाया मैंने,
दिल मे उठी टीस को आज फिर समझाया मैंने.
ख्याब बन कर मेरी आँखों में समाने वाले,
तेरे यादों की टीस से महफिल को सजाया मैंने.
सीमा गुप्ता जी
अति सुन्दर
विदग्ध जी
--------------------------
चाह जब होती न पूरी
यत्न हो जाते विफल
बीत जाता समय,अवसर
हाथ से जाते निकल !!
छोड़ जाते टीस मन में
लालसा की प्राप्ति की
क्योंकि यह रहती न आशा
पूर्ण हो पायेगी कल !!
बहुत बढ़िया लिखा
शैलेष यमलोकी
-------------------------
इस व्यस्त बिखरे जीवन मैं
हम मेल बिठा नहीं पाते हैं
कहीं काम-काज के चक्कर में
दिन जीने के न बीस रहे
बाकी कल--
कहा जाता है कि कविता लिखी नहीं जाती, कही जाती है , अर्थात कविता अवतरित होती है उसे सप्रयास लिखा नहीं जा सकता.
वह शब्द से ज्यादा भाव की विषय वस्तु है .
टीस जैसे दुष्कर विषय पर पिछले अंक से कहीं अधिक प्रतिभागी . आयोजकों सहित सभी प्रतिभागियों , व अब सुधी पाठकों एवं समीक्षको , बहुत बहुत बधाई.
विवेक रंजन श्रीवास्तव
सतीश वाघमरे जी की कविता मे गहरी दार्शनिक समझ छुपी हुइ है . दर्शन जैसे गम्भीर विषय को कविता मे पढ कर बेहद आनन्द आया .
पूंजी के बढ़ते प्रवाह में,
लगे आंकड़े स्वच्छ सलोने
घटती मुद्रा की स्फीति,
भूख कुलांचे भरती है
मुझसे मत पूछो तुम आकर,
टीस मुझे क्यों उठती है
डॉ आशुतोष जी, वाह कविता पढ़ कर एक टीस सी उठी, बहुत सही आज का चित्र खीचा है आपने, बधाई
अगर कभी
बिजली चली जाए
या पानी ना आए
तब मैं बहुत चिल्लाता हूँ
व्यवस्था को
दोषी बताता हूँ
मेरे भीतर एक
टीस सी जगती है
और मैं तड़प जाता हूँ
शोभा जी वाह क्या कहूँ, आइना दिखा दिया आपने, उत्कृष्ट रचना बहुत बधाई
ममता जी कविता के भाव बहुत नए लगे
श्रीकांत जी ने निराश किया, अपनी छवि के अनुरूप नही कर पाए
संजीव जी की कविता में नए पं का अभाव लगा
संजय जी की कविता दिल से निकली लगती है, पर शिल्प नदारद है
बहुत खूब लिखा है विपिन जी ने रहती है टीस भीतर हमेशा
पर और बेहतर हो सकता था
ख्वाबों में आना ही तेरा बार-बार पिराता है मुझे,
अब परछाई पकडते हुए ही दिन गुजार देता हूँ।
बहुत अच्छे नंदन जी
अब वो ग़ालिब नही जिसके दिल में
नीम कश तीर से ख़लिश हुआ करती है
अब तो मतलब के बाज़ार में बस
मौका परस्त प्यार की तपिश हुआ करती है
वाह पंकज जी
प्रगति जी की अच्छी कोशिश है,
मलाल तो है.......क्या बिगड़ जाता समुद्र का
यदि वह मुझे निज गर्भ मे ही समाये रखता,
या फ़िर, मुझे बिन तोड़े,
एक पूरी सीपी ही रहने देकर,
रेत पर फेंक जाता.
वाह सुंदर बहुत सुंदर भाव बधाई हो रंजना जी
सीमा जी ग़ज़ल पर और मेहनत कीजिये थोडी सी , और बेहतर हो सकती है,
विवेक जी कविता सदारण लगी
शैलेन्द्र जी, अची भाव से सजी है कविता, पर कहिब कुछ कमी खली अवश्य
श्रीवास्तव जी कुछ ख़ास मज़ा नही आया यहाँ भी.
वहीं....मेरी पुरानी डायरी में,
उन मांगी हुई किताबों में,
कार्डों में,कानों की बालियों में,
उन अनगिनत तस्वीरों में,
मेरे कमरे के बिस्तर पर...
जहाँ घंटों हँसते थे
झगड़ते थे,कभी
रोते थे.....
दिव्या जी यादो की टीस बहुत खूब है
खलिश जी
नहीं बढ़ा इक हाथ किसी भूखे ने जब मांगी रोटी
पत्थर मारो कहा किसी ने हाथ तुरत चालीस उठे
बहुत बढ़िया, बाकि शेर इस स्तर के नही लगे
राघव जी लगता है की आप के मतलब का विषय नही था ये
अभिनव जी अच्छी कविता है
अलोक जी आपकी टीस से मेरी भी सहमति है
अमिता जी आप और बेहतर कर सकती थी इस विषय पर.
पल भर जीने के लिये हम कितना मरते है ,
और जब मौत हो करीब हम कितना डरते है ,
अगर हम आगे नहीं तो पीछे हमारे कौन है?
वाह बहुत खूब मधुकर जी
क्योंकी स्वर्ग तो सबका
एकही होता है,
किंतु नर्क अपना
अलग हरेक का....
अच्छा है
तुम कहाँ गये कुछ पता नहीं,
कब चले गये कुछ कहा नहीं,
दिव्या जी सुंदर
सफ़ेद पानी में लाल रंग
घुलता है धीरे धीरे,
हो जाता है हल्का लाल
पनियाले रक्त से धुलता है
और रक्त , अजस्र स्रोत से निकलता हुआ,
और झील में भर जाता है -
लाल पानी;
लाल से धुलता लाल !!
झील की टीस असह्य है ।
वाह क्या बात है अलोक जी, बहुत ही सुंदर रचना, सचमुच एक टीस सी उठी दिल में
तुम हर दर्द में दिखे
चेहरा तेरा रहने दो अब
टीस यह दिल में यूं तो
रहेगा साथ तेरा मेरा !!
रंजना जी जहाँ बात प्रेम की हो या विरह की आपका कोई सानी नही
पड़ोस की वह अन्धी लड़की
पूछ बैठती है
यह दिन है या रात ?
टीस उठती है मेरे दिल में
हरिहर भाई, नयापन तो लगा आपकी इस कविता में, पर शिल्प कुछ कमजोर दिखा
१०. करके दीदार तसवीरों में ही तेरी खुबसूरती का,
मैं तो आवारगी में अपनी औकात भुला देता हूँ।
मेरी नींद पर पहरा है बेरहम वादों का तेरा,
अब आँखों ही आँखों में सारी रात बिता देता हूँ।
नंदन जी खूब लिखा आपने भी
११. उफ़ चीर दिया आपने तो हरिहर जी-
फटती हैं मेरे दिल की नसें
चीर जाती हैं सीने की पसलियां
निकलती पीड़ा की बूंदें
समा जाती रक्त में
मैं पागल हो उठता हूँ ।
१२. रामेंदु जी आपने तो गजब ढा दिया
इस बाज़ार मे जब मानव खुद को
एक भिखारी की तरह पाता है
तो दिल में कुछ चुभता है
एक टीस पैदा कर जाता
१३. प्रगति जी शायद यह आपकी पहली प्रस्तुति है, पर जवाब नहीं आपका भी
१४.रंजना सिंह जी बहुत प्यारा लगा ये अन्तर-
क्षितिज के छोर तक विस्तृत
विशाल जलराशि और
अगाध बालुकराशि के मध्य
मेरी उपस्थिति..........
अमावस के रात की चाँद सी
या मरुभूमि के एक झाड़ सी.
१५. आए हाय क्या बात है सीमा जी-
आसूँ ठहरे हैं मेरी पलकों पे शबनम की तरेह,
अश्कों मे बसी टीस को दिल भर के रूलाया मैंने
मस्त कमाल है
१६.विवेक रंजन जी मई खुदा से दुआ करूँगा की आपकी दुआ कबूल हो जे.
किसी को कभी टीस न उठे
१७. प्रो. साहब आपको तो मैं सिर्फ़ प्रणाम ही कर सकता हूँ, क्योंकि आपने कुछ भी नया नहीं किया पहले भी आपको पढ़कर टीस उठती थी आज भी उठी,
१८. जम्लोकी साहब वक्त पर हाले दिल बयां नहीं करेंगे तो टीस तो उठेगी ही, आगे से वक्त का ख्याल रखिएगा,
१९. मासूम जी आपको पहली बार पढ़ा, बड़े मासूमियत से आप कहर बर्पाते हैं.
२०. क्या खूब कहा आपने दिव्या जी-
जब कभी मैं सुलगती थी
वाष्प बन उड़ जाते थे दोनों
फिर बरसते थे मुझे
शीतल करने.....
मजा आ गया.
२१. महेश चन्द्र जी गजल तो बहुत प्यारी लिखी परन्तु मेरी अज्ञानता के कारन मैं कुछ एक शब्दों को समझ नहीं पाया, इसके लिए माफ़ करियेगा.
२२. भूपेंद्र सिर आपने तो हिला ही दिया,
मस्त, मदहोश
२३. अभिनव जी सबसे पहले तो आपका हिन्दयुग्म परिवार में स्वागत है, रही बात आपकी कविता की तो कुछ बेहद ही आंचलिक शब्दों का जो प्रयोग आपने किया वो सुखद रहा.बहुत अच्छे लगे रहिये
२४. अमिता जी आपने जो वेदना उभरी है वो बहुत ही मार्मिक है,विशेषकर इन शब्दों में-
क्यों कोसती है नारी
स्वयं निज अस्तित्व को
टीस से भर उठा है मन
हो गई आँखें गीली
सजल हुआ है मन
२५. वह जी वह मधुकर जी,क्या कहने आपके!
मै तो बद्जुबा हूँ सिमरन ,
मै तो बोलूँगा ,
देखता हूँ ये खुदा कब तक मौन है?
तुम ही बताओ सिमरन कुदरत का ये कैसा मौन है!
माफ़ कीजिएगा ये सिमरन कौन हैं?
२६.सतीश जी बहुत ही प्यारी प्रस्तुति, अच्छा लगा
२७.दिव्य प्रकाश जी यूं ही प्रकाशित करते रहिये हमें अपनी रचनाओं के मध्यम से/
शुभकामनाओं सहित
आलोक सिंह "साहिल"
-डा. आशुतोष शुक्ला जी ,
आपकी कविता के बारे मै ये कहना चाहूँगा.
१) "मुझसे मत पूछो तुम आकर,
टीस मुझे क्यों उठती है ?" सारे पद इस पर काफी सही बैठते है
२) "भगत, सुभाष, राजगुरु, बिस्मिल और नरेन्द्र की थाती हैं
गांधी, नेहरू और बल्लभ की फिर से आई पाती है" पंक्तिया कुछ बड़ी हो गयी है
३) "मत" मै अछ्चा यमक अलंकार का प्रयोग किया है... पंक्ति की शोभा बढ़ गयी
४) संवेदन शील विषय चुना है...और काफी हद तक कहने मै कामयाब भी हुई है
५) थोडा लम्बी लगी... मै इस लिए कह रहा हूँ... कई लोग कविता की लम्बी देख कर पड़ने से डरेंगे..
६) आप को पद को पैराग्राफ की तरह पेश होती तो कविता कोई शोभा और बढ़ जाती
आप कुल मिलकर बहुत सुन्दर तथ्यपरक कविता देने मै सफल रहे है... बधाई..
सादर
शैलेश
शोभा महेन्द्रू जी,
आपकी कविता के बारे मै ये कहूँगा
१) आपने भी कई मायनों मै एक सच्चाई को सामने रखा है.. और पाठक इस कविता से अपने आप को आसानी से जोड़ पाता है (सच कहा आपने इंसान कितना स्वार्थी हो गया है )
कभी हम बचपन मैं मैथली शरण गुप्त जी की कविता पढ़ते थे-
" वही मनुष्य है की जो.. मनुष्य के लिए जिए.."
अब ये कविता पाठ्यक्रम मै शामिल भी शायद ही हो
२) विराम का प्रयोग ना के बराबर है
३) कविता मै कुछ अंग्रजी के शब्द भी प्रयुक्त हुए है जैसे "हीटर "
४) बहुत सरल शब्दों मै अपनी बात कहने मै सफल हुई है आप!!!
बधाई
सादर
शैलेश
ममता जी, आपकी कविता -
१) मै बहुत ही सुन्दर कहा है की "दिल से जो रिश्ते जुड़ते है वो हमेशा दिल के कितने पास रहते है.. चाहे ये समाज के कई रीति रिवाज़ रुकवाटी क्यों न डाले ?" और इस रिश्ते के पूरे न होने की टीस सच पूछो तो एक मीठे दर्द के तरह है.. आपकी कविता पद कर उस प्रसंग की याद आ गयी की गोपिया उद्धव को कह रही है.. ये बिछड़ने की टीस मै भी कितनी मिठास है..
और आपने तो इसे अपनी पहचान ही बना ली!!!!! (बहुत सुन्दर) (? क्यों?, आपको शक है?
२) रूपक अलंकार का सुन्दर प्रयोग जैसे "समय चक्र"
बधाई सुन्दर कविता के लिए..
कविता की लम्बी और विराम का ध्यान रखिये,...
सादर
शैलेश
श्रीकान्त मिश्र 'कांत' जी,
१) आपने टीस के बारे मै बहुत दिलचस्प बात बताई की ये पल मै रहती है पल मै गायब,.. पर थोडी देर मै फिर अचानक आ जाती है.. जैसे पर्वतों पर बादल.. जैसे पल पल बदलो के बीच लुका छुपी करता सूरज और हमे मिलती धूप और छाव
२)सुन्दर उपमा अलंकार का प्रयोग किया है जैसे " कोई पगडण्डी सी'"
३ ) शब्द चयन अति सुन्दर है
४ ) बस थोडा मतलब मुझे २-३ बार पढ़ आंशिक कर समझ आया..
५) कविता का उद्देश्य भी नहीं समझ पाया.. :( ये कहना चाह रहे है ... आस पास टीस है इसलिए उदास है दिल .. पर क्यों और किस चीज़ की ?
सादर
शैलेश
संजीव कुमार गोयल "सत्य" जी,
१ ) बहुत अच्छी संकल्पना के तहत.. ह्रदय से मन मै उठते हुए टीस के ज्वर भातो का बहुत सुन्दरता से व्यक्त किया है
२) शब्द चयन सराहनीय है.. और उस पर विराम चिह्न प्रयोग मानो सोने पर सुहागा !!!
३) कविता की लम्बी न हो इसका भी अच्छा ध्यान रखा है
४ ) अंत तक कविता अपना सोम्यता बनाये रखती है
बहुत सुन्दर रचना ... बधाई !!!!
सादर
शैलेश
सर्वप्रथम सभी कवियो को अच्छी कविता पाठको को देने के लिए हार्दिक शुभकामना
'टीस' पर आई कई कवितायें काफी अच्छी लगी .... मेरे ख्याल से पढ़ना तो बहुत आसन है पर लिखना उतना ही मुश्किल ...कहा जाता है न की हज़ार शब्द पढने के बाद व्यक्ति एक शब्द लिख पाटा है पर यहा पर तो लोगो ने तो पुरी कविता ही लिख डाली है .
अब कुछ प्रतिकिरिया भी इन कवियो पर ..........
टीस पर कई कविताये काफी अच्छी है खासकर हरिहर झा जी, ममता जी,संजीव गोयल जी महेश जी आदि ने शीर्सक को सही रेखांकित किया है ...भाव की द्रीसती से ममता जी ने टीस की सम्बेदना को अपने सरल शब्दों से चरमोत्कर्ष पर पंहुचा दिया है वह भी पूरे रिदम के साथ .........वही महेश जी ने गुप्त एवं दिनकर युग को याद करा दिया है कुछ तीखापन बाबा नागार्जुन जैसा ...........हरिहर झा भी टीस उपजाने मे पुरी तरह सफल रहे मेरी और से उन्हें पूरे दस अंक मिलेंगे............ सीमा जी, भूपेंद्र राघव जी ,रंजना जी ,शोभा जी आदि सभी ने अपनी अंतर्मन की बेदना को शब्दों मे तरीके से पिरो दिया है ........... .पर कुछ शिकवा शिकायत श्रीकांत जी से क्योकि इन से और अच्छी की उमीद थी .................
आलोक शंकर जी.. आपकी कविता मुझे अच्छी नहीं लगी.. इसके ये कारण है
१) लम्बी देख कर मन पहले ही डर सा गया .. ये सोच कर. अरे इतनी लम्बी कविता पड़नी है
२) फिर हिम्मत करके पढ़नी शुरू की ... पर भाषा ऐसे की, कोई भी उतुस्कुता/ जिज्ञासा नहीं जागती .. की मन करे चलो पढ़ लेते है..
३) आखिर कार ४ चोथे प्रयास मै मैं कविता पूरी पढ़ पाया.. तो समझ ही पाया .. टीस का भयावह रस मै वर्णन !!! (जो मुझे व्यक्तिगत रूप मै अच्छा नहीं लगता )
आप मेरे टिप्पणियों को किस तरह लेते है .. ये तो मै नहीं जानता पर.. ये भाव मेरे आपकी कविता को पढ़ कर आये..सो लिख दिया..
भूल चूक के लिए माफ़ी चाहता हूँ..
सादर
शैलेश
संजय साह जी,
१) आपकी ये बात बहुत सुन्दर लगी "टीस चीज ही ऐसी है जुंबा खामोश कर जाते हैं
दिल अन्दर से रोता है दर्द आंसू बनकर छ्लक जाते हैं"
२) अच्छे भाव लिए है आपकी कविता
२) विराम चिह्न नदारद है ..
३) कविता का प्रसंग समझने मै भी थोडा मुश्किल हुई
- थोडा टाइपिंग की गलतियाँ शायद एडिटर की वजह से है.. चलेगा(मैंने भी की है :( )
सादर
शैलेश
रंजना जी , आपकी ने ऐसा लगा मेरे मन की बात सी पढ़ ली हो
मै ये सोच रहा था की कविता लिखु टीस पर ऐसे जो सकारात्मक भाव ले कर आये| टीस वैसे तो दर्द का सूचक है तो इस से ख़ुशी की कविता लिखनी तो मुश्किल थी पर जब मैंने आपकी ये पंक्तिया पढी तो लगा हां ऐसे टीस मै भी अपर ख़ुशी है जो अपने चाहने वाले के साथ के जैसा है " तुम हर दर्द में दिखे
चेहरा तेरा रहने दो अब
टीस यह दिल में यूं तो
रहेगा साथ तेरा मेरा !!"
वाह कमाल कर दिया आपने
-इसके अलावा आपका प्रस्तुतीकरण बहुत अच्छा था
- सरल शब्दों का प्रयोग
- आसानी से समझ मै आने वाली भाषा
- अच्छी संकल्पना
- और कुछ चुलबुलापन जैसे गुस्सा हो कर कोई कह रही हो और उसी याद से दिल बहलाने की सोच रही हो जैसे "अंगूर खट्टे है " वाली लोमडी के तरह
---" न न.. मत अब सहलाना
कोई दिल का दाग तुम
अब मेरा जब तक दिल में .......
यह विरह की टीस घनेरी तब तक हैं
यादों में तेरा बसेरा
चुभती बात में याद आए"
बधाई
सादर
शैलेश
विपिन चौधरी जी,
-आपकी टीस मुझे ऐसी लगी जैसे बैचैन कर रही हो आपको
- इन पंक्त्यो से मन मै ऐसे भाव आते है जैसे कोई चोट लगी हो और कोई उसे छूता है तो दर्द तो देता ही है.. कोई पट्टी बांध के रखो तो भी दर्द देती है
"जब टीस उखड़ती है
तो दरद देती है
दबी रहती है
तो ज्यादा दुख देती है।"
आपने टीस का नया चेहरा सामने रखा है
बधाई
शैलेश
डॉ. नंदन जी
आपकी कविता सबसे अच्छी मै से एक है,, मेरे दृष्टिकोण से क्यों की
१) हर पद आपका शीर्षक को साकार कर रहा है एक नए रूप मैं
२) विराम चिह्नों का पूरा ध्यान रखा है
३)सारे पद एक तारतम्यता बनाये रखते है.. जो अगले पद को पड़ने की जिज्ञासा बदते है.. ये चीज़ पाठक के मन मै उत्पन्न करना बहुत मुश्किल है
४) पदों की लम्बाई काफी सही बैठती है
बधाई इस सुन्दर रचना के लिए
" इक तेरी हँसी के बिना बेकार है ये दुनिया सारी,
इस खामोशी पर मैं सारी खुशियाँ लुटा देता हूँ।"
सादर
शैलेश
हरिहर झा जी,
आपकी अपनी बात कहने का तरीका मुझे बहुत भाया ...आपने अपनी बात एक उदाहरण के तौर पर समझाई,... और ये आपको भी मालूम है. की कई चीजे उदाराह्नो से ज्यादा स्पष्ट होती है ..
-बहुत ही सुन्दर और मार्मिक उदाहरण चुना है
और असली टीस ये ही है.. जिसका जबाब हमे खुद को देना होता है.. लोग चाहे कितना भी समझा ली की ये बस एक दुर्घटना थी.. पर मन तो ये ही टीस रहती है की अपनी छोटी सी गलती से.. हुआ....
सादर
शैलेश
पंकज रामेन्दू मानव जी,
आपकी कविता मै समाज की.छोटी छोटी चीजों को उजागर किया गया है .
बहुत सुन्दर प्रयास है... जारी रखे
और कविता की लम्बाई पर ध्यान दे काफी लम्बी हो गयी है और बीच बीच मै लय
खो देती है
सादर
शैलेश
प्रगति सक्सैना जी,
- आपने कविता की लम्बाई छोटी कर के थोडा ख़ुशी जरूर दी है
- ये "बनी टीस " हर वाक्य पर सही नहीं बैठा .. ऐसा लगता है जबरदस्ती घुसाया गया हो
- और कही पर बहुत सही बैठता है
- बहुत सरल शब्दों मै कही गयी है बात
सराहनीय प्रयास
सादर
शैलेश
(बाकी कल .........)
गिव मी ऎ बरेक ।।
मुझे खेद होता है जब लोग झूठी प्रसन्सा करते हैं। अलोचना, यदि सही हो तो सुधार ऍवं उन्ती का कारण बनती है। और झूठी, पतन का। विषय टीस पर लिखी हुई कोई भी कविता पुरष्कार-सत्रीय नही है। वैसे अच्छी हैं। लगभग सभी कविताऔं मे मूल त्रूटी ये है कि कवी वाक्य को पूरा करने की ताक में लगे रहते हैं। कविता में वाक्य पूरे नहीं होते। 'वरब' का प्रयोग नहीं होता। खुली कविता में भी नहीं। लगभग सभी कविताऔं में सतियों के अन्त में "है" का प्रयोग किया गया है। यह उचित नहीं है। सराहनिय बात ये है कि कवि कविताऔं मे पहले से अधिक लय पर जोर देने लगे हैं। हिन्द-युग्म तरकी की राह पर बढ रहा है खरामा खरामा।। बधाई हो।।
जै बांवरा
काव्य-प्रेमियो,
सोमेश्वर पाण्डेया की 'टीस' विषय पर कविता हमें देर से प्राप्त हुई। फिर हमने यह विचार किया कि चूवकि यह कविता इसी विषय के लिए लिखी गई हैं इसलिए उनको न प्रकाशित करना एक तरह का अन्याय होगा, अतः हम सोमेश्वर पाण्डेया की कविता भी प्रकाशित कर रहे हैं। सभी पाठकों से अनुरोध है कि वो इस कविता पर भी अपने विचार दें।
धन्यवाद।
रंजना सिंह जी,
१) आपकी कविता कुछ लीक से हट कर के है... बताती टीस के बारे मै ही है पर कविता मै टीस की जगह मलाल शब्द का प्रयोग किया है
२) शब्द चयन और विराम चिह्नों का अच्छा प्रयोग किया है
३) कविता का प्रस्तुतीकरण भी, उसकी संकल्पना की तरह बहुत सुन्दर है
४) उपमा अलंकार सुन्दर प्रयुक्त हुआ है " अमावस के रात की चाँद सी
या मरुभूमि के एक झाड़ सी."
५) कविता की लम्बाई का भी ध्यान रखा गया है की कहीं अनाव्शय्क बाद तो नहीं रही
बधाई सुन्दर रचना के लिए...
सादर
शैलेश
सीमा गुप्ता जी,
१- बहुत सुन्दर ग़ज़ल बन पड़ी है..
२- पड़ने मै अजीब सा अनद अत है
३- ऐसा लगता हर पद टीस की नयी परिभाषा उभर कर आ रही हो.... कमाल कर दिया
४-कहीं कहीं पर पंक्तिया दिल को छू जाती है जैसे
" क्या शोला क्या चिंगारी जलाएगी मेरे इस दिल को,
जिस्मोजान में दबी टीस को तेरे स्पर्श का एहसास कराया"
बहुत सरल शब्दों मै अपनी बात बड़ी सरलता से कही है .....
बस अन्तिम पंक्ति थोडा लम्बी हो गयी है...
सुन्दर रचना के लिए बधाई
सादर
शैलेश
विवेक रंजन श्रीवास्तव "विनम्र" जी
-आपका शाब्दिक और भावात्मक टीस की व्याख्या की है... जो भी लीक से हट कर है
-विराम चिहन, शब्द चयन और लम्बाई बिलकुल सही बैठती है
- "अपने आकार से
ज्यादा , बहुत ज्यादा समेटे हुये हैं दर्द !"
पंक्तिया केवल पढ़ने से ज्यादा भाव पैदा करते हैं
बधाई सराहनीय प्रयास के लिए
सादर
शैलेश
प्रो.सी.बी.श्रीवास्तव "विदग्ध" जी,
१-आपके भी टीस देखने का नज़रीया पसंद आया
२- प्रस्तुतीकरण बेहद सुन्दर है
३- कुछ ऐसा लगा की, एक पंक्ति के बीच मै दूसरा वाक्य शुरू हो गया है जैसे..
"लालसा की प्राप्ति की
क्योंकि यह रहती न आशा"
४- "सफलता पाने का सुनिश्चित
जरूरी सिद्धांत है
समय, श्रम ,सहयोग के संग
लगना कहीं जरूर है !!"
अच्छी पंक्तिया है
बधाई..
सादर
शैलेश
@शैलेश चन्द्र जमलोकी,
अपनी पंक्तियों के बारे मै ये कहुगा,,,
की पोस्टिंग मै गलतियाँ रह गयी है..
जैसे "लगती है बात ये छोटी से"
ये ऐसा है "लगती है बात ये छोटी सी "
और
" र छोडो ना तुम कल पे कभी"
"पर छोडो ना तुम कल पे कभी"
सादर
शैलेश
आशुतोष मासूम जी ,
आपकी कविता मुझे अच्छी लगी क्यों की,
१) आपने एक सबसे अलग तथ्य उजागर किया है.. की ऐसा नहीं है की मन केवल एक ही टीस से उदास है,.,.. उसके पास हजारों टीस है.. और चाहे कोई काम आप कितने भी पेर्फच्शन से करो.. कहीं न कही बेहतर की गुंजाईश तो रह ही जाती है.. क्यों की कोई भी चीज़ समपूर्ण नहीं है.. अतः हमे हर बार चाहे जी भी करें उस से अच्छा करने की कोशिश करें..
" हर दिल मे एक अलग टीस,
हर टीस की अपनी कहानी है,
सब कुछ तो अच्छा हो गया,
फिर भी अन्त मे एक टीस रह जानी है."
- आपका ये नजरिया बहुत पसंद आया...
-आपने जिन दो उदाहरणों को पेश किया है.. वो शायद इन पन्तियो पर बिलकुल सही न बैठते हों (ऐसा भी हो सकता है मै कवी से बिलकुल अलग मतलब निकाल रहा हूँ )
- शैली बहुत सरल और आसानी से समझ मै आने वाली है..
- उदारहण वाकई बहुत सुन्दर है,. शीर्षक पर सही बैठते है..
बधाई सुन्दर रचना के लिए
सादर
शैलेश
दिव्या श्रीवास्तवा जी,
-आपने भी कई और कवी मित्रो की तरह रिश्तो की टीस को उजागर किया है...पर अपने अलग अंदाज़ से
- आपने उन रिश्तो को कई जगहों पर ढूँढा है मसलन,
"मेरी पुरानी डायरी में,
उन मांगी हुई किताबों में,
कार्डों में,कानों की बालियों में,
उन अनगिनत तस्वीरों में,
मेरे कमरे के बिस्तर पर.."
इसे पद कर देवदास की याद आ गयी,., जिस मै माधुरी, ऐश से कहती है ढूंढ सको तो ढूंढ लो देव बाबु को इन सिल्वातों मै, आधे जाम मै... एटक..
- आपने भी टीस को एक सकारात्मक रूप मै दर्शाया है (वो यादों की टीस जिस के सहारे कोई सारी जिंदगी गुजार दे )
-सरल शब्दों मै बहुत कुछ कह दिया..
बधाई...
सादर
शैलेश
-
महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश जी,
- आपकी कविता भी सारी कवितों मै सबसे अच्छी के श्रेणी मै से एक मै आती है
-आपकी सोच लगता है रजा महाराजा के ज़माने मै ले जाती है.. पर सच आज भी वही है
"नहीं बढ़ा इक हाथ किसी भूखे ने जब मांगी रोटी
पत्थर मारो कहा किसी ने हाथ तुरत चालीस उठे"
- पूरी कविता मै एक सी सौम्यता और लय बरक़रार रहती है
-बहुत अछे शब्दों का प्रयोग किया है...जैसे वागीश ,पालिकधीश
बधाई सुन्दर रचना के लिए
सादर
शैलेश
भूपेन्द्र राघव जी,
१) आपकी कविता लम्बी होते हुए भी पड़ने पर मजबूर करती है... ये सब आपके सरल शब्द प्रयोग और भाषा का कमल है, जो कविता का सौन्दर्य बनाये रखता है
२) कविता का प्रस्तुतीकरण बेहतर हो सकता था
३) आपने टीस के इस पहलू को भी अच्छा उभर है
"कभी कभी ये टीस काम में
भी अपने आ जाती है
शब्दों की सीढ़ी पर चढ़कर
कागज पर छा जाती है.."
- मेरे ख्याल से पीडा और टीस मै काफी फरक है.. आप कहीं न कहीं पीडा को दर्शा रहे है,. न की टीस को...(विचार अलग हो सकते है )
अच्छी रचना के लिए बधाई
सादर
शैलेश
अभिनव कुमार झा जी,
आपकी टीस भी अच्छी इस लिए थी.. क्यों की कुछ नए उदाहरण थे जैसे
"गरीबी, भूखमरी को जीने वाले, उन
तड़पते हुए, हारे पथिकों की टीस"
"अपनी उर्वरता खोने वाले, उन
बंजर जमीनों को देखने की टीस"
"जवानी में ही झुर्रियों से सजती
अपनी मादकता खोती
उन युवतियों की टीस"
-आपकी सोच की प्रश्न्श्नीय है
-प्रस्तुतीकरण थोडा अच्छा हो सकता था
-कविता थोडी लम्बी है पर... लय बनाये रखती है..अतः पाठक के मन मै उत्सुकता बनी रहती है पड़ने की
बधाई सुन्दर रचना के लिए
सादर
शैलेश
आलोक सिंह "साहिल" जी,
1) अच्छी तुकांत वाली कविता है...साथ मै अछे भाव लिए हुए
२) शायद यही सही टीस का उदाहरण है
"कुत्ते खाएं बटर कहीं
कहीं मिले न रोटी बासी,
दिल में टीस सी उठती है,"
-थोडा संकल्पना मै नयापन नहीं लगा मुझे, बस कहने का तरीका अच्छा है
- प्रस्तुतीकरण अच्छा है
-शीर्षक पर सही लिखी है कविता
- विराम चिह्न और षड्ब चयन बहुत सुन्दर है
बधाई
सादर
शैलेश
अमिता मिश्र 'नीर' जी
-आपकी कविता भी कुछ नयापन लिए हुए है कल्पना के दृष्टिकोण से
- एक और टीस जिसे बहुत कम लोग महसूस कर पाते है..
- अछे भावो को सरल शब्दों मै कहने मै कामयाब हुए है आप
सादर
शैलेश
मधुकर (मधुर) जी,
-पहले ये बताओ ये सिमरन कौन है..?
- बिलकुल नयापन लिए हुए है... बहुत सुन्दर..(पर टीस कहाँ है?)
- प्रस्तुतीकरण.. भाषा अच्छी है..
सादर
शैलेश
सतीश वाघमरे जी,
- वाह क्या सोच है आपकी.... टीस एक बरदान है
" सही माने में यह एक वरदान,
अपनी टीस ही देती है
प्रत्येक को अपनी-अपनी
अलग पहचान !"
- बिलकुल लीक से हट कर बहुत नयी संकल्पना
-आपने सचमुच नयी टीस का आविष्कार किया है
- भाषा अच्छी है.. शब्द चयन बहुत शुद्ध है..(यहाँ दक्षिण भारत मै कई लोग हिंदी समझते है,, पर इतनी अच्छी नहीं समझते ....अतः सबके लिए नहीं है... :( )
-सराहनीय प्रयास
सादर
शैलेश
-
दिव्य प्रकाश दुबे जी,
-आप भी समय पर दिल की बात न कह कर टीस झेल रहे है ( मै भी :()
- आपकी कविता टीस के बारे मै अप्रत्यक्ष रूप से कह रही है.. पढ़ कर बहुत देर मै समझ मै आया की कविता टीस पर लिखी गयी है
- अच्छा संदर्भ लिया गया है बात कहने का...
-लम्बाई बहुत नपी तुली है.. और बहुत ही सरल शब्दों मै कहा है
सादर
शैलेश
सोमेश्वर पाण्डेया जी,
-आह.. बहुत अच्छी टीसें चुनी है.. की जब कोई नेता दल बदल कर अपने उसूल बदल देता है तो वाकई टीस होती है ... आदि
- नयापन नहीं है संद्रव मै ...
- प्रस्तुतीकरण अच्छा है
बधाई
सादर
शैलेश
अंत मै २९ टीसें पढ़ कर ऐसा लग रहा है (सबको हार्दिक बधाई ).. इंसान की सोच कितनी अलग हो सकता है... और दुनिया मै वही आगे बढ़ सकता है जो लीक से हट कर सोचता है.. कई लोगों ने बहुत नयापन दिया है..
- हिंदी युग्म के प्रयास को नमन
- एक गुज़रिश्ज अगली बार से कवितायेँ अलग अलग प्रस्तुत करें
- और फिर मैंने एक टिपण्णी पढी जिसमे लिखा था.. की कोई भी कविता अच्छी नहीं है और झूठी प्रशंशा कर रहे है.. तो उनके लिए मै ये कहना चाहूँगा की सबकी अपने सोचने का तरीका है,,, मुझे कोई चीज़ पसंद आई तो कोई जरूरी नहीं है की सबको पसंद आये..
मेरा हर कविता पर अपने perception है..
और कोई कैसे हर किसी को मैथली शरण गुप्त होने की आशा कर सकता है.. यहाँ पर सबको एक platform है की सब अपने मन की हिचक मिटा कर जैसे भी लिखे सामने लाये हमको उन्हेई उत्साहित करना है..
आओ सभी अपने आयोह्जको का शुक्रिया दे..
सादर
शैलेश
सोमेश्वर जी आपकी कविता विलम्ब से आई पर आपका आना भी सुखद रहा.
आपने पुराने संदर्भों का प्रयोग करते हुए नए अंदाज में प्रस्तुति की, ये बात अच्छी है पर ये दिल मांगे मोर. अच्छा है लगे रही
शुभकामनाओं सहित
आलोक सिंह "साहिल"
जम्लोकी जी bahut hi kam शब्दों में जीवन को जीने का जो फलसफा आपने समझाया है वो काबिले तारीफ है
शुभकामनाओं सहित
अभिनव कुमार झा
मैं अपनी प्रतिक्रिया पहली २८ कविताओं पर दे चुकी हूँ.
२९ वीं सोमेश्वर पाण्डेया की कविता भी कवि हृदय की टीस मालूम देती है.
झूठ कहो खुश रहो
तारीफ़ करो मजे करो
कि जब सच सूली लटकाए जाते हैं
तब उठती है 'टीस'|
बिल्कुल सही लिखा है आपने इन पंक्तियों में.
@ जै बांवराजी, बात इतनी है --
''पसंद अपनी अपनी ख्याल अपना अपना''लेकिन बात कविता को हिन्दी साहित्य की नजर से देखना है -----आप के विचारों का आगे भी इंतजार रहेगा.आप की आलोचनाओं ही से हम सीखेंगे,यह तो तय है.मगर क्या--२९ कविताओं में आप को एक भी कविता पुरुस्कार के लायक नहीं लगी/??आश्चर्य है!]
आलोचकों का आस पास होना हिन्दयुग्म के कवियों के लिए भी अच्छा है.क्यूंकि रहीम[??]कहते हैं न--[----निंदक राखीये सदा आपने पास]--
हिन्दयुग्म के सराहनीय प्रयासों और कवियों को प्रोत्साहन और एक मंच देने के लिए बधाई और धन्यवाद.
जो भी थोड़े बहुत हिन्दी प्रेमी बाल जगत और युवा वर्ग में हैं उन्हें संभाले रखने का प्रयास करते रहें.शुभकामनाएं.
जब आप सीख रहे हो, और एक ही विषय पर एक साथ इतने ढेर सारे विचार मिल जायें, तो फिर क्या बात है. हर कविता कुछ ना कुछ कहती हुई दिख रही है.सभी प्रतिभागीयों को धन्यवाद और बधाई देना चाहुगॉ, जिन्होने टीस जैसे विषय पर भी, अपनी कविताओं मे इतनी विविधता दिखाई है. और कुछ नया सिखने के लिये प्रेरित किया है.
आशुतोष जी का कहना की "मुझसे मत पूछो तुम आकर,टीस मुझे क्यों उठती है?" उस टीस को बताती है जो सब जानते हुये भी खामोश रहने पर उठती है.
शोभा जी ने अपने मन के टीस को, आज के मानव के रुप मे बहुत सुन्दर ढंग से प्रस्तुत किया है की, आज का मनुष्य सिर्फ स्वंयकेन्द्रित हो चुका है, और अगर खुद को चोट लगे तो ही दर्द का एहसास होता है.
ममता जी ने प्रेम मे उठे उस टीस को जो भुत से वर्तमान तक साथ साथ रहता है और अन्त: वही टीस पहचान बन जाता है के रुप मे सच्चे प्रेम का बहुत अच्छे से श्रृगॉर किया है.
संजीव जी ने तो बहुत अच्छे ढंग से....टीस को याद के साथ जोडा, फिर उसे मन के साथ जीया और अंतर्मन से इस टीस से निजात पाने का तरीका भी बता दिया है.
उम्मीद जिस चीज के पाने की करते हैं, जब वो चीज न मिले, तभी तो टीस लगती है..संजय जी शायद यही असली टीस है.
डॉ. नंदन जी आपने तो कमाल कर दिया है. याद जो टीस पैदा करती है, आपने तो उसी को मरहम बना लिया है. अलग सोच.
सीमा जी आपने सीधे दिल पर चोट किया है.
भूपेन्द्र राघवजी आपने बहुत बडा सच लिखा है...टीस देखने मैं निकला तो, टीस मिली हर एक दिल में, टीस किसी की राह-राह तो, टीस किसी की मंजिल में.
जै बावरा जी,
" लगभग सभी कविताऔं मे मूल त्रूटी ये है कि कवी वाक्य को पूरा करने की ताक में लगे रहते हैं। कविता में वाक्य पूरे नहीं होते। 'वरब' का प्रयोग नहीं होता।"
[आलोक:] वाक्य पूरा नहीं होता ???? हिन्दी कविता की कुछ प्रसिद्ध पंक्तियाँ , आपके रेफ़रेन्स के लिये :
"सौभाग्य न सब दिन सोता है
देखें आगे क्या होता है "
- दिनकर
" राम ! तुम्हारा वृत्त स्वयं ही काव्य है ,
कोई कवि बन जाय, सहज संभाव्य है "
- श्री मैथिली शरण गुप्त "
" धन्ये ! मैं पिता निरर्थक था ,
कुछ भी तेरे हित कर न सका "
- सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला
"हिमगिरि के उत्तुंग शिखर पर ,
बैठ शिला की शीतल छाँह ;
एक पुरूष भींगे नयनों से
देख रहा था प्रबल प्रवाह "
- जयशंकर प्रसाद
" धरती में जिसने प्यास भरी,
अम्बर में उसने नीर भरा
तट- अधरों के नीचे रखा
है प्याला अंबुधि का गहरा ।"
- बच्चन
अब जरा आप ही बतायें कि ऐसा कहां लिखा है कि कविता वो नियम फ़ौलो करे जो आपने बताये । या फ़िर ऊपर हिन्दी के दिग्गज़ों की कविताओ में वर्ब का प्रयोग कहाँ नहीं किया गया और वाक्य पूरे क्यों न किये गये ।
अगर ऐसा कोई नियम बना तो कहाँ बना ये बतायें , जब आप किसी चीज को सिरे से नकार देते हैं तो उसका कोई प्रूफ़ भी हो । ऐसा नहीं कि कुछ भी टिप्पणी की और चल दिये ।
हिन्द युग्म हमेशा अपना स्तर सुधारने के लिये प्रयत्न करता है । अगर आपके पास ऐसा कोई सुझाव है तो मोस्ट वेलकम , आप कृपया यह बतायें कि किस कविता में किस स्थान पर सुधार किया जा सक्ता है । हमें खुशी होगी अपने में सुधार ला कर , हम तो नौसिखिये हैं हमें हर दिशा में सुधार चहिये , पर बतायें तो सही कि और अच्छा कैसे और कहाँ लिखा जा सकता था ।
शैलेश जमलोकी जी ,
आपको मेरी कविता पसंद नहीं आयी , इसका मुझे दुख है । मेरी कवितायें साधरणतः लोगों को पसन्द नहीं आतीं । कविता लम्बी है जानता हूँ । यह कविता मैंने एक महीने में लिखी है और यह अभि भी पूरी नहीं है , यह काव्य पल्लवन के लिये लिखी ही नहीं थी । यह मेरी उन कविताओं में से है जो मेरे लिये बहुत स्पेशल हैं और जिन कविताओं को मैं स्पेशल मानता हूँ , वह शायद ही किसी को पसन्द आतीं हैं । ऐसी कवितायें मैं कभी कभी लिख लेता हूँ , अपने लिये और उन गिने चुने पाठकों के लिये जो मुझे व्यक्तिगत तौर पर टिप्पणियाँ देते हैं ताकि मैं और सुधार कर सकूँ । फ़िर भी मैं पूरी कोशिश करता हूँ कि पाठकों तक पहुँचूँ और इसके लिये मैंनें अपनी शैली छोड़कर भी कवितायें लिखीं हैं , और आगे कोशिश करता रहूँगा । आपको धन्यवाद कि आपने अपनी मन की बात कही , और सिर्फ़ तारीफ़ करने के लिये तारीफ़ नहीं की ।
आपका
आलोक
congratulations to all who have written on the topic ''tees''
happy new year to all of you..
happy new year shailaish jii...
शैलेश जमलोकी जी,
मेरा लिखनेका यह दूसरा प्रयास है और हिन्दी मेरी मातृभाषा नहीं है, अतएव आपके स्तुतिसुमनोंके लिए मैं विशेष रूपसे आभारी हूँ. आपने इतना समय प्रदान कर मुझे प्रोत्साहित किया,धन्यवाद !
अन्य सभी पाठकोंको और कविमित्रोंकोभी मेरा अभिवादन / बधाईयाँ !
भवदीय,
सतीश वाघमारे
काव्य-पल्लवन का यह अंक देखकर मन बहुत प्रसन्न हुआ कि २९ कवियों ने अलग-अलग तरीके से अपनी-अपनी टीस को अभिव्यक्ति दी है।
१॰ डॉ॰ आशुतोष शुक्ला ने बहुत सी विषमताओं को उठाया तो है लेकिन बहुत सी ज़रूरी बातें चूट गई हैं। युवाओं का जुल्फ़ों में फँसना कोई नई बात नहीं है, सहज, स्वाभाविक और आदि से है, और भी बहुत से कारण हैं, शायद उनको भी उघाड़ना आवश्यक था। आनन-फानन की कविता है।
२॰ शोभा जी ने एलिट लोगों की संवेदनशून्यता पर गहरा कटाक्ष किया है। थोड़ा और पकातीं।
३॰ ममता जी , आपकी पंक्तियाँ अंतस से निकली मालूम पड़ती हैं। आपकी कविता में एक ज़िंदगी जी जा सकती है। मैं तो हृदय से महसूस कर रहा हूँ। आप जो कहना चाह रही हैं वो पाठक तक पहुँच रहा है।
४॰ इस पाँत की कमज़ोर रचना। लगता है कि कवि ने सोचा होगा बहुत कुछ लिखने को लेकिन फिर कलम ठिठक गई।
५॰ बहुत ही साधारण प्रस्तुति। कुछ भी याद रखने योग्य नहीं है।
६॰ आलोक जी बहुत संदर प्रयोग-
असंभव है , उल्लंघन -
फड़फड़ाने की सीमा-ऊर्जा का
क्या बात है!
कमरे की टीस असह्य है ।
जंगल की टीस असह्य है !
झील की टीस असह्य है ।
बिलकुल अनूठी रचना। बधाई।
७॰ संजय जी, आपकी कविता बिलुल सपाट शैली में लिखी है। थोड़ी सी कलात्मकता भी लाइए।
१ डा. आशुतोष शुक्ला,.अपनी के मध्यम से आपने सवाल कई मौलिक सवाल पूछे ! जो वाकई काबिले तारीफ है .
२.शोभा महेन्द्रू,ये कविता जबरदस्ती लिखी गयी है ऐसा लगा पढ़ के,लेकिन लिखना अपने आप मैं बड़ा काम है ,उसके लिए साधुवाद
३. - " ममता "इसलिए कि
तुम्हारे रिश्ते में मिली
यह टीस मेरी पहचान है?" मैं इस से कुछ सहमत नही हूँ,मेरे व्यक्तिगत विचार हैं,किसी के रिश्ते मैं मिली टीस और पहचान !!
४.श्रीकान्त मिश्र 'कांत' जी ,मुझे खेद है कोई सम्बन्ध बनता दिख नही रहा है ,जैसे आप दिखाना चाह रहे हैं.
५. संजीव कुमार गोयल "सत्य" "अंतर्मन सान्तवना, दुलार देता है,
और हर "टीस" से उबार लेता है" बहुत खूब ,हम कविता के मध्यम से कुछ जवाब खोजते हैं और ये जवाब बहुत ही अच्छा बन पड़ा है.
६,आलोक शंकर जी आप मुक्तिबोध के रस्ते पे बढ़ रहे हैं,लेकिन लम्बी कविता मैं फ्लो बने रहना बड़ा जरुरी है जो यहाँ पे कुछ खटक रहा है
७.संजय जी अपने पूरी घटना जो की टीस है को अपने शब्दों मैं अच्छा पिरोया है लेकिन यहाँ "
चन्द पैसे और चन्द चीजों के लिये
दिल को तार-तार कर गाते हैं संजय"
बात कुछ गड़बड़ हो गयी
८. रंजना भाटिया " चुभी दिल में कोई फाँस सी
जब कोयल कुहू कुहू गाए"
बढ़िया सोच ,बहुत अच्छा ओब्सेर्वेशन !
९.विपिन चौधरी ,आखिरी २-३ पंक्तियों मैं कुछ और बेहतर उम्मीद कर रहा था मैं,और शुरुवात की १ पंक्ति कुछ अलग अंदाज़ मैं होती तो मज़ा जाता ,बीच की कवता अच्छी बन पढी है.
१०. डॉ. नंदन
जब भी उठती है कोई टीस मेरे ज़ख्मी दिल में,
मैं ज़ेहन में तेरी यादों का मरहम बना लेता हूँ।
सही बोलूं तो अभी तक जितना पढ़ा मैंने इस पेज ,इस पंक्ति ने उसे व्यक्त कर दिया
बहुत अच्छा
.११. हरिहर झा जी , जो शिल्प अपने बुना उस से ,दया का एहसास ज्यदा होता है,न की टीस का,
१२. पंकज रामेन्दू मानव जी "हरदम प्रथम की हसरत पाले
मासूम बचपन क़त्ल हो जाता है" अपने कई कारणों को छुआ है अच्छा लगा पढ़ के,
१३.प्रगति सक्सैना जी,बहुत अच्छा ,टीस इतने सारे स्थानों पे है ,आपने बड़े कम शब्दों मैं उन कुछ जगहों को उकेरा अपनी लेखनी से अच्छा लगा!
१४.रंजना सिंह जी बहुत अच्छी कल्पना,शब्द भी नही बोला अपने और बात भी पूरी कर दी बहुत खूब
१५.सीमा जी "जिस्मोजान में दबी टीस को तेरे स्पर्श का एहसास कराया मैंने
" अच्छा ओब्सेर्वेशन है ,पढ़ के ही लगता है,उन लम्हों को कितना ढूब के जिया गया है
१६.विवेक रंजन श्रीवास्तव "विनम्र" ,मैंने अजेय की एक पंक्ति से सदा प्रभावित रहाजो की इस प्रकार है "वेदना मैं वो शक्ति होती है जो दृष्टि देती है "आपकी की कविता ने सृजन से उसे जोड़ के बहुत कुछ कह दिया ,बहुत अच्छा
१७.प्रो.सी.बी.श्रीवास्तव "विदग्ध" जी ,मुहझे ये कविता उपदेशात्मक लगी,टीस को केवल मध्यम बना के अपने एक संदेश दिया,जो की एक उम्र के बाद आदमी अपने आप से बातें करते हुए अपने बच्चों को देता है,इस से पता चलता है की आप अपनी अगली पीढ़ी से उम्मीद रखते हैं और ये हर्ष की बात है लेकिन मुझे कभी नही लगा की सफलता सिधान्तो मैं बंधती है कभी !!
१८ . शैलेश चन्द्र जमलोकी जी " ये चला गया तो, यूं ना हो
इस पल की कहीं कोई टीस रहे" अच्छा जीवन दर्शन है ,जो बीत गयी सो बात गयी ,बढ़िया है !!
१९.आशुतोष मासूम जी बहुत अच्छे भाव थे लेकिन आखिरी पंक्तियों (सब कुछ तो अच्छा हो गया,
फिर भी अन्त मे एक टीस रह जानी है) ने निराश किया,
२०.दिव्या श्रीवास्तवा "रिश्ते सिमट गए है,
ठहर गए है...
वहीं....मेरी पुरानी डायरी में,..." बहुत अच्छा
२१.महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश अच्छी यात्रा करा दी अपने कुछ ही शब्दों मैं जिन्दगी के अलग अलग आयामों की ,बहुत अच्छा
२२.भूपेन्द्र राघव जी बहुत अच्छा फ्लो है और इतनी जगहों पे अपने छुआ अपनी लेखनी से अच्छा लगा ,
२३ अभिनव कुमार झा
".बारहमासा झूमर जैसे लोकगीतों को छोड़कर
काँटा लगा और छैंया-छैंया में ही मस्त होते" अच्छा लिखा है अपने ,फ्लो भी अच्छा है ,
भाई कांता लगा तक ठीक था अपने तो गुलज़ार साहब से ही पंगा ले लिया??
२४.आलोक सिंह "साहिल" जी ,सत्य वचन भाई साहब,अच्छे भाव "टीस सी क्या टीस ही उठती है "
२५.अमिता मिश्र 'नीर' जी " मनोभावों को अब
अभिव्यक्ति दो
वृक्ष है जो टीस का"
उसको उखाड़ो फेंक दो" बहुत अच्छा संदेश,गहन पीडा समेटे हुए,(टीस मैं अपनी…
मिटाना चाहती हूँ
जन्म अपने अंश से
शक्ति को देना चाहती हूँ)
बहुत बढ़िया विचार,ज्वलंत मुद्दे उठती और समाज से जवाब मांगती आपकी ये रचना
२६.मधुकर (मधुर) जी ,ये हुई न बात ,अच्छा लगा अलग अंदाज़ मैं अपने टीस को व्यक्त किया साधुवाद
२७.सतीश वाघमरे जी ,मुझे नही मालूम आपकी उम्र कितनी है लेकिन अपने अपने पूरे अनुभव को भर दिया है एक एक शब्द मैं ,बहुत अच्छा
२९,सोमेश्वर पाण्डेया"
जब सच सूली लटकाए जाते हैं
तब उठती है 'टीस' "
देर आयद दुरुस्त आयद ,देर से पढी आपकी रचना लेकिन टीस को विविध विषयों से परिचय करती आपकी रचना अच्छी लगी !!
मैं अपनी कविता के बारें मैं ये कहना चाहता हूँ की ,ये कविता उस दर्द को बयां करती है जो की मेरे एक करीबी की मृतु के बाद मुझे हुआ ,क्यूंकि हम सभी की लाख कोशिशो के बावजूद भी वो बचे नही और जाने से पहले कुछ बोले नही महीने भर आई .सी .यू . मैं रहने के बाद भी,हम सभी चाहए थे की वो कुछ बोल दें लेकिन एक शब्द नही बोले वो,Shailesh Jamloki जी माफ़ी चाहूँगा लेकिन मेरे सन्दर्भ कुछ और है इस कविता के लिए,समय था लेकिन कभी कभी शब्द जैसे नराज हो जाते हैं,ये इसी पीडा है जिस से मैं और मेरा परिवार शायद ही कभी निजात पायेगा,बहुत बहुत धन्यवाद की आप सभी का की आप सभी हमारी भाषा को नही एक विचारधारा को हिन्दयुग्म के मध्यम से आगे बढ़ा रहे हैं !!
जो भी टिपण्णी मैंने दी है ,बिना किसी भी प्रतिक्रिया को पढे दी है,कृपया कोई भी बात अन्यथा न लें जैसा मुझे लगा हर कविता पढने के बाद मैंने वैसे बोल दिया,
और हाँ जै बांवरा जी "टीस विषय टीस पर लिखी हुई कोई भी कविता पुरष्कार-सत्रीय नही है।"
टीस उठती है जब कोई ऐसा बोलता है,पुरस्कार की चिंता करेंगे तो लिखना कभी इमानदार नही हो पायेगा ऐसा मुझे लगता है जितनी भी समझ है मुझे,
धन्यवाद आप सभी का
८॰ बहुत भटका हुआ शिल्प है रंजना जी की कविता का। शुरू के दो पंक्तिसमूहों तक तो ठीक है लेकिन उसके बाद गड़बड़ी हो गई। वैसे आप जो कहना चाह रही हैं, वह पूरी तरह से पठकों तक पहुँचा है।
९॰ विपिन जी, बिलकुल भी मज़ा नहीं आया।
१०॰ जब शे'र बराबर वज़नी न हों तो सभी को ग़ज़ल में स्थान ही मिले यह आवश्यक नहीं। आपको इसपर मेहनत करने की ज़रूरत है कि किस शे'र को रखें, किसे छोड़ें। मुझे यह शे'र बहुत पसंद आया-
मेरी नींद पर पहरा है बेरहम वादों का तेरा,
अब आँखों ही आँखों में सारी रात बिता देता हूँ।
११॰ हरिहर जी, आपकी कविता अच्छी तो है लेकिन इसकी बनावट में बहुत कच्चापन है। शायद लिखते वक़्त आपके भीतर का बालक जग गया हो।
१२॰ मानव जी, बहुत बढ़िया कविता है आपकी। जो कमी डॉ॰ आशुतोष शुक्ला की कविता में थी, वो यहाँ पूरू हो गई।
१३॰ प्रगति जी, अच्छा प्रयास है, लेकिन आपको तुक का मोह तो है लेकिन आप उसका निर्वाह नहीं कर पातीं।
१४॰ समुद्र का कुछ नहीं बिगड़ता, हाँ 'मैं' का बिगड़ जाता, वो पॉब्लम खड़ी कर देता।
जब फ़िर से मैं टीस की गहराई मापने बैठा तो पाया कि ऐसा बहुत कुछ पढ़ना, समझना और सीखना तो अभी शेष ही रह गया,
शायद आज मैं टीस को बेहतर समझ पा रहा हूँ,यद्यपि कि विषय मेरे द्वारा ही सुझाया गया था पर मैंने कल्पना भी नहीं करी थी कि ऐसे ऐसे प्रतिमान दृष्टिगत होंगे,सुखद, बहुत ही सुखद अनुभूति,
असल बात कुछ और ही, वह है कि जब किसी विश्लेषक की निगाह से होकर कोई चीज गुजरती है तो उसका महत्व कुछ ज्यादा ही हो जाता है,जैसे की स्वर्ण अग्नि से गुजरने के पश्चात् ही कुन्दन का दर्जा पता है.
मैं अपने तमाम कवि मित्रों और कुछ एक विशुद्ध विश्लेषक साथियों का दिल से आभारी हूँ जिन्होंने अपने विश्लेषण की आग में तपाकर कविताओं को कुन्दन के स्तर तक ले जाने की कोशिस की,आप सभी को बहुत बहुत साधुवाद,
अगली बात, यद्यपि की इसबार हमें २९ कवितायेँ पढने को मिली, परन्तु फ़िर भी मुझे शिकायत है अपने कुछ कवि साथियों से जिन्होंने इस बार प्रतिभाग नहीं किया,उनकी उपस्थिति शायद इस बार के काव्य पल्लवन को और अधिक गरिमामय बनती.
खैर, अंत में सभी साथियों को कोटिशः धन्यवाद और साधुवाद.
आपका
आलोक सिंह "साहिल"
माफ़ करियेगा साथियों एक विशेष नाम का उल्लेख विशेष रूप से करना था,
जमलोकी साहब, आपकी जितनी तारीफ करूँ उतनी कम है, कारण, जितने अच्छे कवि,उतने ही अच्छे विश्लेषक हैं आप.
बहुत खूब साहब
सादर
आलोक सिंह "साहिल "
एक विशेष शिकायत,
भारतवासी जी, मैं जितनी बेसब्री से कविताओं कि प्रतीक्षा करता हूँ उससे कई गुनी उत्सुकता से आपकी प्रतिक्रिया कि प्रतीक्षा करता हूँ,इसबार आपने काफ़ी निराश किया, इतना विलम्ब अच्छी बात नहीं सर जी.अपने चाहने वालों का कुछ तो ख्याल रखिये साहब
आपका बेसब्र प्रशंसक
आलोक सिंह "साहिल"
एक बहुत ही उल्लेखनीय बात,
बावरा जी आपको शायद पहली बार जाना,पर आपका होना बहुत अच्छा लगा,
मैं मानता हूँ, आपको विचारों से मतभेद हो सकता है किसी को यद्यपि मुझे भी है,परन्तु आपका प्रयास निश्चित तौर पर अंगीकार करने योग्य है.
बहुत बहुत साधुवाद
आलोक सिंह "साहिल"
आगे चलें तो ३ रचनायें मुजे बहुत अच्छी लगीं,
नंदन साहब,
सीमा जी
हरिहर जी
मैं इन तीनों में विभेद नहीं कर पाया कि कौन बेहतर,शायद कर भी नहीं सकता,क्योंकि हरबार टीस कि मात्र कमोबेश समान ही थी.
आप सबों को विशेष तौर से साधुवाद
आलोक सिंह "साहिल"
बात करें सबसे कमजोर प्रस्तुति कि तो माफ़ कीजिएगा ये स्थान मैं किसी से बाँट नहीं सकता,
अरे भाई, कहीं तो नम्बर १ पर रहने दीजिए
हा हा हा हा ही ही हा .............
सही पहचाना आपने, एक और मात्र एक
आलोक सिंह "साहिल"
फक्र के साथ
it was really great to read 29 poems on the same subject and every body has described it in a very different and artistic manner. it is a wonderful experience to know so much abt on a single subject and i came to know that "Tees" can be any where in any way but ya it exists in ones heart, ones eyes, tears, emotions, surrondings, relations, n many more.
In short i appreciate every one for giving there valuable comments on the poems written and encouraging every one in their own words and style.
"My special thanks and regards to MR Sahil"
'टीस'विषय पर पढ़ चुके कविता लो उन्तीस
कहीं टीस उन्नीस तो कहीं टीस इक्कीस
कहीं टीस इक्कीस सभी को बधाई दिल से
विषय दिया जबरदस्त कहूँगा मैं 'साहिल' से
जमलोकी, बाबरा, अल्पना से विष्लेषक
और कई कवि मित्र मिलेंगे हमको जब तक
सीमा, दिव्यप्रकाश, अमित व आलोकशंकर
होता रहेगा काव्यपल्लवन यूँ ही जमकर
ऐसे ही कविताये मिलें हर बार हमेशा
जैसे उन्तीस कविता आयीं 'टीस' विषय पर
-राघव
१५॰ सीमा जी आपको 'टीस' शब्द से इतना मोह हो गया कि हर शे'र में इसर शामिल किया और यही आपकी कविता के सौंदर्य कम कर रहा है।
१६॰ ठीक ठाक रचना। क्राफ़्ट पर थोड़ी और मेहनत आवश्यक है।
१७॰ विदग्ध जी की किसी भी कविता ने अभी तक प्रभावित नहीं किया है। इस बार फिर निराशा हुई।
१८॰ जमलोकी जी, उपदेशात्मक शैली से बाहर निकलिए।
१९॰ आशुतोष जी आप बहुत जल्दी उपसंहार पर पहुँच गये। उपसंहार वाला पार्ट ही एक अच्छी क्षणिका बन सकती थी।
२०॰ दिव्या जी, बहुत बढ़िया कविता है। आपमें भविष्य की कवयित्री दिखती है।
२१॰ वाह क्या बात है ख़लिश साहब!
२२॰ अच्छी कविता।
२३॰ अभिनव जी, बहुत बढ़िया कविता। शिल्प आकर्षक है और आपकी कविता में विस्तार भी बहुत है।
२४॰ साहिल की कविता को डा॰ आशुतोष शुक्ला की कविता से जोड़कर देका जा सकता है। याद रखिए जब आप सामाजिक बिन्दुओं को शामिल कर रहे हों तो हर तरक के आँकड़ों का इस्तेमाल करें और उसे आवश्यक विस्तार भी दें।
२५॰ अमिता जी आपकी कविता में बहुत अच्छे कविता की सम्भावना थी, लेकिन आपको शायद उपसंहार की जल्दी थी।
२६॰ मधुर जी, आप सभी अंतरों में समानता का निर्वाह नहीं कर पाये हैं। फिर भी प्रभावशाली रचना।
२७॰ सतीश जी, यह पता चला की हिन्दी कविताओं में शुरूआती चरण का लेखन कर रहे हैं, उस हिसाब से बहुत उम्दा कोशिश।
२८॰ दिव्य जी, छोटी मगर सबकुछ बता देने वाली कविता।
२९॰ सोमेश्वर जी, अच्छी कविता है। आशुतोष जी, साहिल जी ने भी ऐसा ही मुद्दा उठाया है। इसके लिए साधुवाद।
सीमा जी आपके यद्यपि की आपके धन्यवाद की जरुरत नहीं थी, पर जब आपने दे ही दिया तो लौटाने का सवाल ही पैदा नहीं होता,खैर आपकी कविता मैंने प्रिंट आउट निकालकर अपने कुछ मित्रों को भी पढ़ाई, सच कहूँ सभी आपकी लेखनी के दीवाने हो गए, अपने तमाम मित्रों की तरफ़ से एक बार फ़िर ढेरों साधुवाद.
आलोक सिंह"साहिल"
सीमा जी मैंने आपकी कविता पढी तो एक अलग ही लोक में पहुँच गया, सत्य है कि मुझे कविता की उतनी समझ नहीं है जितनी कि एक सक्षम विश्लेषक से उम्मीद की जानी चाहिए, परन्तु मेरे समझ से जो दिल को भा जाए वही अच्छा है, वरन सर्वश्रेष्ठ है,इसके लिए मैं विशेष तौर से अपने मित्र आलोक सिंह "साहिल" जी का भी आभारी हूँ जिन्होंने मुझे आपकी कविता से रूबरू कराया.
नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
अभिनव कुमार झा
वाह भूपेंद्र राघव साहब , बहुत अच्छे ,देखा टीस का सामुहिक सामने करने पे अंत मैं कोई टीस नही बचती ,अपनके धन्यवाद देने का तरीका भी अनोखा है
वाह ... क्या खुब रही ...
एक ही विषय पर २९ कविताएं और सभी बढिया रचनाएं ... काबिले दाद प्रयास ... अभिनन्दन आयोजकों को और सभी प्रतिभागियों को ....
विजयकुमार दवे
tees asal mein ek aisa vishya hai jispar likhna swayam me ek tees ko jee jane ke samaan hai
sabhi kaviyon ne tees ki adrishya sthiti ka sakshaatkaar kara diya, alok sahil ji ko bhi aise chayan ke liye hardik badhai aur dhanyavad
'vaise to mein bada khush rehta hun par jab kabhi hawa apni beawaz ungliyon se darwaze par akelepan ki tees chod jati hai to man rota hai,yuhi kabhi kabhi'
hindyugm se pehli baar juda hun apke prayas prashansniya hain
सभी कवि मित्रो तथा हिन्दयुग्म के सभी बंधुओं को नव वर्ष की हार्दिक शुभ कामनाओं के साथ मेरा नमस्कार,'टीस ' पर कवितायें पढी ....हर कविता में कुछ न कुछ प्रसंशनीय है ,
कंही भाव ,कंही अभिव्यक्ति ,कंही शिल्प ....सभी कवि मित्र साधू वाद के पात्र हैं .... ममता
Dear Sh. Sanjeev Goyal "Satya" Ji..Very nice and heart touching.
Seema Ji,
App bhi bahut accha likhi hai.
टिप्पणियों में हरिहर झा जी की कविता पर बहुत कम देखने को मिला परन्तु मुझे वही सबसे अधिक प्रभावित कर गई । उसमें वह टीस है जिसको जन्म देने वाला अपना ही अपराध होता है सतत् अन्दर से कुरेदता रहता है । दूसरों के दोषों, गलतियों, अपराधों और अपनी असमर्थता से उठने वाली टीस से तो रोकर, शिकायत करके (भगवान या किसी और से) कुछ हल्का किया जा सकता है, पर उसका क्या जिसकी न तो शिकायत की जा सकती है और न ही अपराध स्वीकार करके प्रायश्चित किया जा सकता है । टीस देने वाला कारण दुश्मन की तरह अपने अन्दर ही बैठा रहता है, गले की हड्डी की तरह । उस अपराध की कुछ सजा मिल जाती, या लोगों को पता चलकर भर्त्स्ना हो जाती तो अपराधी कुछ हल्का महसूस करता, पर उसमें हिम्मत नहीं है अपना अपराध स्वीकार कर सकने की । उसे बस अपने अन्दर पालते जाना है, और उसके द्वारा स्रवित विष घूँटते रहना है । क्या नियति बन गई है उसकी.........
क्षमा करें हरिहर जी की कविता ने इतना प्रभावित किया कि उस पर टिप्पणी लिखते समय और किसी कविता का ध्यान नहीं रख सका । अन्य कई कविताएँ बड़ी अच्छी लगीं । शोभा महेन्द्रू जी की कविता में अच्छा प्रवाह है । वैसे तो मुझे अच्छी लय ताल वाली कविताएँ पसन्द हैं परन्तु यह विषय ही ऐसा है कि पढ़ते समय भाव की आड़ में शिल्प न जाने कहाँ खो जाता है । साहिल, नीर, पंकज, आशुतोष शुक्ल जी की भी टीस प्रभावकारी है । आलोक शंकर जी क्षमा करें उनकी टीस समझने में मुझे कठिनाई हो रही है (मुझे कविता का कथ्य स्पष्ट नहीं हो पा रहा) इसमें कवि(ता) को मैं कुछ नहीं कह सकता क्योंकि मैं अच्छा पाठक या विश्लेषक होने का दावा नहीं कर सकता । दिव्य प्रकाश दुबे जी की कविता की गहराई को तो मैं तभी समझ सका जब कुछ ऊपर उन्होंने सन्दर्भ स्पष्ट किया । अन्यथा मैं इसे कविता मात्र समझ रहा था । दुबे जी इसके लिए क्षमा कीजिए ।
टीस आज पढ़ी ...बहुत ही अच्छा विशय था और सबने बहुत ही सुंदर ढंग से लिखा सबने इतने विस्तृत समीक्षा की है की अब कुछ कहने लायक नही रहा :)
मुझे सबका लिखा बहुत पसंद आया ..और जिन्होने मेरा लिखा पसंद किया उस के लिए शुक्रिया दिल से :)
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)