1: आतंक के हाथ
क़ानून से ज्यादा लंबे हैं
जो ख़ास सुरक्षा मिलने पर भी
मौका मिलते ही धमाका कर जाते हैं
और लिखने वाले के हाथ
अभी भी बंधे हैं
जो आजाद होते हुए भी
इंसानो से ड़र जाते हैं !!
2:सुनो ,
आज कुछ लफ्ज़ दे दो मुझे
ना जाने मेरी कविता के सब मायने
कहाँ खो गये हैं?
मेरे अपने लिखे लफ्ज़ अब
ना जाने क्यों बेमानी से हो गये हैं
दिखते हैं अब सिर्फ़ इसमें
विस्फोटक ,बलात्कार, भ्रष्टाचार
और कुछ डरे सहमे से शब्द
जो मुझे किसी ,
कत्लगाह से काम नही दिखते
हो सके तो दे देना अब मुझे
विश्वास और प्यार के वो लफ्ज़
जो मेरे देश की पावन मिटटी की
खुशबु थे कभी!!
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
21 कविताप्रेमियों का कहना है :
दोनों छंद बहुत सुंदर बने हैं.
खास कर पहला मुझे बहुत पसंद आया .
बधाई.
अवनीश तिवारी
रंजू जी़!
सुंदर कविता है।
एक सजग और संवेदनशील नागरिक की स्वाभाविक बेचैनी।
dono hi chand bahut aache likhe hain.....
और लिखने वाले के हाथ
अभी भी बंधे हैं
yeh punch line aachi tarah se use ki hai...jo chand me jaan bhar rahi hai.
आज कुछ लफ्ज़ दे दो मुझे
ना जाने मेरी कविता के सब मायने
कहाँ खो गये हैं?
मेरे अपने लिखे लफ्ज़ अब
ना जाने क्यों बेमानी से हो गये हैं
zehan me kaafi naya vichaar aaya ho lagta hai aapke...yeh likhte waqt....kyunki padhne me kaafi fresh lag raha hai....aacha likha hai
क्या बात है!!!लेखन में बदलाव जारी ही है!!
पढ़ने से ही मालूम चल रहा है कि आपके दिलो-दिमाग में इन दिनो उथल-पुथल सी चल रही है!!!
गुड है जी!!
शुभकामनाएं
"मेरे अपने लिखे लफ्ज़ अब
ना जाने क्यों बेमानी से हो गये "
samaz ke sankraman kal par satik rachna hai aapki.
और लिखने वाले के हाथ
अभी भी बंधे हैं
जो आजाद होते हुए भी
इंसानो से ड़र जाते हैं !!
हो सके तो दे देना अब मुझे
विश्वास और प्यार के वो लफ्ज़
जो मेरे देश की पावन मिटटी की
खुशबु थे कभी!!
आपकी कविता के ये तेवर देख कर अच्छा लगा। बधाई स्वीकारें।
*** राजीव रंजन प्रसाद
नई शैली नया अनदाज पसन्द आया...
सचमुच अगर हाथ बंधे न होते तो ये आन्तकवाद न होता.
आन्तकवादी के मरने और सेना के जवान के मरने में कोई फ़र्क नहीं.. शहीद की विध्वा और परिवार को कुछ दिनों में सब भूल जाते हैं... यहां तक कि लिखने वाले भी.
आपने अपनी शैली से हटकर लिखा । बहुत अच्छा लिखा । कुछ बैचेन सा ,कुछ नाराज सा।
रंजना जी इस बार अपनी शैली से बिल्कुल अलग हट कर लिखा है आपने, कलम की धार कुंद करने की कोशिश हमेशा से होती रही है, पर कलाम्कारों ने कभी भी सच का परचम झुकने नही दिया, आपका क्रोध उभर कर आया है बहुत सुंदर कविता
रंजना जी
लाज़वाब लिखा है इस बार ।
आतंक के हाथ
क़ानून से ज्यादा लंबे हैं
जो ख़ास सुरक्षा मिलने पर भी
मौका मिलते ही धमाका कर जाते हैं
और लिखने वाले के हाथ
अभी भी बंधे हैं
जो आजाद होते हुए भी
इंसानो से ड़र जाते हैं !!
बधाई स्वीकारें ।
आपकी कविता मे कुछ तो बात है!! पढ़ कर बहुत अच्छा लगा!! इन्सान ख़ुद का दुश्मन बन बैठा है !! खैर आप उही अच्छी कविताये लिखती रहे !! हमारी सुभकामनाये हमेसा आपके साथ है!!! प्रभात कुमार पटना से
रंजू जी सादर प्रणाम,
मैंने आपकी कुछ समीक्षाएं पढी तो मन में विचार आया कि आखिर ये कैसी कविता करती होंगी.सच कहूँ तो मैं आपकी कविता पढने को काफ़ी बेताब था.
पर आज आपने मेरी व्यग्रता और बेताबी पर अपनी इस ज्वलंत काव्य से पूर्ण विराम लगा दिया.
आपकी समीक्षा करूँ तो बेनियाजी होगी.बस मुबारकबाद ही दे सकता हूँ.
बहुत बहुत साधुवाद.
आपकी कवितायेँ निरंतर पढने को मिलती रहेंगी.इसी यकीं के साथ-
अलोक सिंह "साहिल"
आज कुछ लफ्ज़ दे दो मुझे
ताकि मैं लिखे पर भी कुछ लिख सकूँ
कुछ टिप्पणी कर सकूँ
मैं ! क्या निःशब्द ऐसे ही बैठा रहुँगा
और अगर कहुँगा भी तो क्या कहुँगा ?
वाह ! लाजवाब..
और बस फिर स्तब्ध...
बडी अलग सी अभिव्यक्ती वाकई लिखने वाले के हाथ बंधे हुए हैं । बधाई हाथ की रस्सियों को ढीला कर पाने के लिये ।
-रंजना जी
आपकी दोनों पद बहुत अच्छे बने है अगर हम भावात्मक दृष्टि से देखे तो...
मगर मुझे दूसरा पद ज्यादा अच्छा लगी .. .बस कारन तो मै भी ढूढ़ रहा हू..
-जो पहला कारन समझ मै आता है वो ये की उसमे अंत मै सन्देश भी दिया गया है
- दूसरा ये की उसमे कारन भी बताया गया है की क्यों मेरे लफ्ज़ खो गए है? वो मै यू समझा हू की .. आसपास के माहोल से आदमी की सोच भी बदल जाती है इसलिए
वैसे पहली वाला भी अच्छा व्यंग लगा .... बधाई स्वीकार कीजिए
सादर
शैलेश चन्द्र जम्लोकी (मुनि )
वाह रंजना जी !
बहुत ही अच्छा लगा आपको रचना के इस नए रूप में पढ़ना हार्दिक शुभकामना
और लिखने वाले के हाथ
अभी भी बंधे हैं
जो आजाद होते हुए भी
इंसानो से ड़र जाते हैं !!
बहुत सही सही आपने आज की स्थिति को अपनी कविता के द्वारा बताने का सफल प्रयास किया है---यह विडंबना ही है कि सब जानते हुए भी हम कुछ कर नहीं पाते --आप की कविता थोड़े शब्दों में बहुत कह सकी है-बधाई !
हो सके तो दे देना अब मुझे
विश्वास और प्यार के वो लफ्ज़
जो मेरे देश की पावन मिटटी की
खुशबु थे कभी!!
बहुत बढिया मनुहार है रंजू जी। दूसरी क्षणिका/कविता ज्यादा पसदं आई। वैसे पहली भी काबिल-ए-तारीफ है।
बधाई स्वीकारें।
-विश्व दीपक 'तन्हा'
पहली क्षणिका (कविता) में तेवर हैं, दूसरे में इसका काफ़ी अभाव है। दूसरी सपाट है।
"आतंक के हाथ
क़ानून से ज्यादा लंबे हैं
जो ख़ास सुरक्षा मिलने पर भी
मौका मिलते ही धमाका कर जाते हैं
और लिखने वाले के हाथ
अभी भी बंधे हैं
जो आजाद होते हुए भी
इंसानो से ड़र जाते हैं !!"
रंजू जी,
विलम्ब से टिपण्णी के लिए क्षमा.....इस बार टिपण्णी नही करता तो आप तो मेरे यहाँ आकर पिटती मुझे....
क्षणिकाओं में आपका प्रयास सफल है....दो ही क्यों लिखीं...
निखिल आनंद गिरि
dono hi kavitaye bahut acchi lagi.badhaiya
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