अम्मा,
वो लाल धारियों वाला
चुभता हुआ नीला स्वेटर,
जो तूने बर्तनों के बदले
उस दिन बेच दिया था,
मुझे आज चाहिए,
वो खरगोश के चित्र वाली
रंगीन किताब,
जिसके साथ बिताता था मैं हर शाम
और तूने स्टोर की सफाई करके
मेरे स्कूल जाने के बाद
उसे रद्दी में बेच दिया था,
मुझे आज चाहिए,
वो भोलापन,
जो पूछता था तुझसे
कि मेरे बाल काढ़ते हुए
क्यों कसकर पकड़ लेती है
तू मेरी ठुड्डी,
मुझे आज चाहिए,
वो बेफ़िक्री,
जो शाम ढले ही
सुला देती थी मुझे गहरी नींद,
मैं कुनमुनाता था आँखें मींचे
जब तू मुझे नींद में ही खिलाती थी,
मुझे आज चाहिए,
वे कहानियाँ
जिनमें क्लाइमैक्स जरूरी नहीं होता था
और कोई ध्रुव
तारा बन जाया करता था,
चाँद को चिढ़ाते हुए,
मुझे आज चाहिए,
वे ख़्वाब,
जब मैं मान लेता था कि
छोटू के घर वाले नीम से
सीढ़ी लगाकर
एक दिन चढ़ जाऊँगा आसमान पर,
मुझे आज चाहिए,
अम्मा,
वो दो चोटियों वाली सहेली,
जिससे मैं कहता था मासूमियत से
कि जब मैं इतना बड़ा हो जाऊँगा
कि पप्पा की तरह दाढ़ी बनाने लगूंगा
तो उसी से ब्याह करूँगा
और तू
मुस्कुराकर डपट देती थी मुझे,
उसका ब्याह है आज,
मैं पड़ गया हूँ जमीन पर
पैर पटकता हुआ,
ज़िद है आज,
मैं खाना नहीं खाऊँगा,
बचपन का वचन
निभाना है अम्मा,
कुछ कर,
वो चाहिए मुझे...
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
39 कविताप्रेमियों का कहना है :
BAHUT KHUUB LIKHTEY HAI GAURAV JEE,
INKI LIKHNE KI SHELLY MUJHE ATYANYT PRABHAVIT KARTI HAI,
KAVYRUPAN AUR SATH ME KAHANI KA SAMNVAY, LALAYIT KARTA HAI HAR SHABD AARAM SE PADNE KE LIYE.
AAPSE KAAFI APEKSHAAYE HAI BANDHUVAR, SADHUVAAD.
wah bhai wah
ladki kaun hain?
Unnat bimb aur sahaj bhasha shaili mein bhaw sampreshan ki purna kshamta se yukta yah kavita mujhe bhi purane dinon mein loutne par majboor kar rahee hai. Kavita ko Padh kar abhi anayas hee mujhe meri maan aur bachpan ke dost wo unke sath gujare gaye allhar kshan bahut yad aane lage hain. pragatisheel bhavishya ki shubh kamnaon ke sath..
Rikki Samastipuri.
खाली कमान का वो नया तीर हो गया ! हसरते मुरीद का जंजीर हो गया !! लिखी जो तंग आके उसने मुफलिसी में शेर ! तो उर्दू अदब का मीर तकी मीर हो गया !!
वो भोलापन,
जो पूछता था तुझसे
कि मेरे बाल काढ़ते हुए
क्यों कसकर पकड़ लेती है
तू मेरी ठुड्डी,
मुझे आज चाहिए,
--- बिल्कुल सच है |
केवल आप को ही नही हम सब को ये सब चाहिए.
सुंदर रचना.
अवनीश तिवारी
गौरव जी!
आप कवि नहीं हैं
आप जादूगर हैं।।।।।।
बहुत ही भावुक और मासूम रचना, आज तो मेरा भी मन कोई ज़िद करने को कह रहा है।
खूब लिखा आपने...मुझे भी कुछ याद दिला दिया...
ज़िद जरूरी है. बढिया कविता!
वो दो चोटियों वाली सहेली,
जिससे मैं कहता था मासूमियत से
कि जब मैं इतना बड़ा हो जाऊँगा
कि पप्पा की तरह दाढ़ी बनाने लगूंगा
तो उसी से ब्याह करूँगा
और तू
मुस्कुराकर डपट देती थी मुझे,
उसका ब्याह है आज,
मैं पड़ गया हूँ जमीन पर
पैर पटकता हुआ,
ज़िद है आज,
मैं खाना नहीं खाऊँगा,
बचपन का वचन
निभाना है अम्मा,
कुछ कर,
वो चाहिए मुझे...
aakhri in pankityon ne zazbaaton ko hila kar rah diya.....aapki kavita ne bahete bahete achanak jo mod liya pasand aaya....
वो दो चोटियों वाली सहेली,
जिससे मैं कहता था मासूमियत से
कि जब मैं इतना बड़ा हो जाऊँगा
कि पप्पा की तरह दाढ़ी बनाने लगूंगा
तो उसी से ब्याह करूँगा
और तू
मुस्कुराकर डपट देती थी मुझे,
उसका ब्याह है आज,
मैं पड़ गया हूँ जमीन पर
पैर पटकता हुआ,
ज़िद है आज,
मैं खाना नहीं खाऊँगा,
बचपन का वचन
निभाना है अम्मा,
कुछ कर,
वो चाहिए मुझे...
aakhri in pankityon ne zazbaaton ko hila kar rah diya.....aapki kavita ne bahete bahete achanak jo mod liya pasand aaya....
वो भोलापन,
जो पूछता था तुझसे
कि मेरे बाल काढ़ते हुए
क्यों कसकर पकड़ लेती है
तू मेरी ठुड्डी,
मुझे आज चाहिए,
आज भी मन करता है अम्मा
एसे ही ......अत्यंत कटु सत्य
अत्यंत सुंदर रचना.बहुत ही भावुक जमीन पर खड़ी है आपकी रचना .
...अम्मा,
वो दो चोटियों वाली सहेली,
जिससे मैं कहता था मासूमियत से
कि जब मैं इतना बड़ा हो जाऊँगा
कि पप्पा की तरह दाढ़ी बनाने लगूंगा
तो उसी से ब्याह करूँगा
और तू
मुस्कुराकर डपट देती थी मुझे,
उसका ब्याह है आज,
मैं पड़ गया हूँ जमीन पर
पैर पटकता हुआ,
ज़िद है आज,
मैं खाना नहीं खाऊँगा,
बचपन का वचन
निभाना है अम्मा,
कुछ कर,
वो चाहिए मुझे...
मेरे पास महसूस करने के लिये तो बहुत कुछ है, कहने को कुछ भी नहीं।...। एसी कविता अरसे बाद पढी..
*** राजीव रंजन प्रसाद
वाह वाह गौरव जी...दिल जीत लिया आपने...कविता का अंत जैसे मैं सोच रहा था वैसे ही हुआ ....जब वो किताब और स्वेटर नही मिल सकते तो वो कैसे मिल सकती है .... और इसमें उस बेचारी माँ की भी कोई गलती नही है वो तो बचपन में भी दपटती थी...आज डपट भी नही सकती ....
गौरव ,बहुत सी यादें सिर उठाने लगी हैं
बचपन की वो गलियाँ फिर से याद आने लगी हैं।
खास तौर पर अम्मा,
वो दो चोटियों वाली सहेली,
जिससे मैं कहता था मासूमियत से
कि जब मैं इतना बड़ा हो जाऊँगा
कि पप्पा की तरह दाढ़ी बनाने लगूंगा
तो उसी से ब्याह करूँगा
और तू
मुस्कुराकर डपट देती थी मुझे,
उसका ब्याह है आज,
मैं पड़ गया हूँ जमीन पर
पैर पटकता हुआ,
ज़िद है आज,
मैं खाना नहीं खाऊँगा,
बचपन का वचन
निभाना है अम्मा,
कुछ कर,
वो चाहिए मुझे...अन्त बहुत ह्रदयस्पर्शी लगा।
बहुत ही प्यारी सी ,मासूम सी जिद और भावभीनी रचना ..सुंदर और बार बार पढने को दिल करता है
बधाई गौरव जी ..:)वो लड़की फ़िर मिली या नही यह जरुर बताये :)
वे कहानियाँ
जिनमें क्लाइमैक्स जरूरी नहीं होता था
और कोई ध्रुव
तारा बन जाया करता था,
चाँद को चिढ़ाते हुए,
मुझे आज चाहिए,
वे ख़्वाब,
जब मैं मान लेता था कि
छोटू के घर वाले नीम से
सीढ़ी लगाकर
एक दिन चढ़ जाऊँगा आसमान पर,
गौरव तुम्हारा अंदाज़ हमेशा की तरह मन को छू लेने वाला है, सुंदर शब्द चुन लेते हो, पर कल्पना को अपनी उड़ान पूरी भरने दिया करो, कहीं बीच में टोक देते हो कभी कभार
वो भोलापन,
जो पूछता था तुझसे
कि मेरे बाल काढ़ते हुए
क्यों कसकर पकड़ लेती है
तू मेरी ठुड्डी,
मुझे आज चाहिए,
आज भी मन करता है अम्मा
एसे ही ......अत्यंत कटु सत्य
कविता मन भा गयी……खासकर ये पंक्तिया बहुत सुंदर… बधायी
gaurav ji,
maza kam aayaa. Aapakee kavitaa mein pahalee baar gadya-tatva dikhane lagaa. Laga, jaise kisi mitti ki moorti ko dho dene par uske joda idhar-udhar dikhaayee dene lage hain.
sambhaalo yaar, kaheen gaadee belagaam na ho jaaye!
वो भोलापन,
जो पूछता था तुझसे
कि मेरे बाल काढ़ते हुए
क्यों कसकर पकड़ लेती है
तू मेरी ठुड्डी,
मुझे आज चाहिए
yeh rachna wo rachna hai jo achanak hi manalisa ke saman ban jati hai aur jab baad me ham usse niharte hain to soch me pad jate hain ki itna khoobsurat rachna kaise ban gai, darasal yahi asli rachna ki sundarta hoti hai ki wo achanak hamare samne aa jati hai.
pankaj ramendu manav
बाल सुलभ भावनाओं की इतनी स्नेहिल अभिव्यक्ति.....!
गौरव जी आपने तो बिल्कुल हिला दिया और जिस बचपने को तज कर आज हम जवानी की दहलीज पेर खड़े हैं,वहाँ फ़िर से जाने की हमारी उत्कंठा को जागृत कर दिया.
अजिमो शान रचना.
बारम्बार मुबारकबाद
अलोक सिंह "साहिल"
प्रारम्भ के कुछ शब्द पढते ही पता चल गया था
कि हिन्द युग्म के गौरव श्रीमान गौरव जी की लेखनी है..
गजब का लिखा है.. हठी होते जा रहे हो आजकल...
चलो खाना खा लो... अच्छे बच्चे जिद नहीं करते..
खाने से क्या दुश्मनी
as usual it was extemely touchy...as if i've experinenced myself and these were my own demands with my mothers...yeah every one once in his or her life must went through such experiences..am i wrong? any way aaj raat shayad main phir na so paanu gaurav aur ek baar phir aap hi reason ho........
गौरव
भावपूर्ण रचना ।
मुस्कुराकर डपट देती थी मुझे,
उसका ब्याह है आज,
मैं पड़ गया हूँ जमीन पर
पैर पटकता हुआ,
ज़िद है आज,
मैं खाना नहीं खाऊँगा,
बचपन का वचन
निभाना है अम्मा,
कुछ कर,
वो चाहिए मुझे...
काश सारी बातें लौट सकती ।
-गौरव सोलंकी जी
-बहुत अच्छी संकल्पना है..
-जैसे जैसे कविता आगे बढ़ी उसकी सुन्दरता मै निखर आता गया...
-बचपन की यादो का बहुत आकर्षकता से शब्दों मै पिरोया है...
कविता पढ़ कर बचपन की याद आ गयी
- शुरू की कुछ पंक्तियों मै आपने आसपास की वस्तुओ को चीजों को माँगा है जैसे स्वेटर और किताब.. और बाद मै आप कुछ भावनात्मक चीजों की मांग करने लगे जैसे भोलापन, बेफिक्री, कहानिया और खवाब जैसे चीज़ें
कोई ख़ास वजह?
सादर
शैलेश चन्द्र जम्लोकी(मुनि )
प्यारी सी कविता
प्यारे से गौरव भाई
शब्दों ने तुम्हारे
बचपन याद दिलाई
मेरी ओर से ढेर सारी बधाई।
कुमुद।
आप सबके इतने सारे स्नेह के लिए शुक्रिया। जब माँ पढ़ेगी तो शायद एकाध ज़िद पूरी भी हो जाए और हो सकता है कि एक भी न हो...
मनीष जी,
जादूगर कहने के लिए हृदय से धन्यवाद।
रंजू जी,
आप थोड़ा मुश्किल प्रश्न पूछ रही हैं। इसका उत्तर कभी फिर...
सजीव जी, आपसे सहमत हूँ कि कुछ जगह टोक दिया है मैंने कल्पना की उड़ान को। भविष्य में कोशिश करूंगा कि ऐसा न हो।
शिशिर जी,
आपको मुझसे बहुत अपेक्षाएँ हैं, मैं जानता हूँ और जो आपको लगा, वही मुझे भी कविता पढ़ने के बाद लगा था, लेकिन दिल से जो एक दफ़ा निकला, वह गद्य और पद्य के बारे में नहीं सोच पाया। उसकी विवशता को आप एक बार क्षमा कर दीजिए। :)
पंकज जी,
आपने मोनालिसा से इसकी तुलना कर दी, ये आपका बड़प्पन है।
अभिषेक जी,
चलिए, एक रतजगा मेरे कारण और सही।
शैलेश चन्द्र जी,
इस क्रम में ज़िद करने की कोई खास वज़ह तो नहीं, लेकिन एक बात अभी देखी मैंने रचना में...कविता बढ़ने के साथ साथ जो चीजें आती हैं, वे मेरी प्राथमिकता के बढ़ते क्रम में है।
आप सब यही स्नेह बनाए रखेंगे, इसी आशा के साथ
- गौरव सोलंकी
एक मासूम सी ,भावों से भरी सुंदर कविता है..कितना विचलित मन हो रहा होगा आप का कविता पढ़ कर सही सही पता चल रहा है....अन्तर मन के ऐसे नाजुक भावों को भी बड़ी सफलता से आप ने व्यक्त कर दिया----बधाई
गौरव जी,
आपकी "पिता" कविता पढ़ी थी और तब से मैं आपका प्रशंसक हूँ। और आपकी हर कविता पढ़ता हूँ। ये कविता भी बाकियों की तरह ही बेजोड़ है।
धन्यवाद,
तपन शर्मा
यार गौरव,
प्यार-मोहब्बत की बातें हर रचना में तुम ले हीं आते हो। बाकी सारी जिद्द दिल को बहलाती हैं, लेकिन अंतिम जिद्द फिर से तुम्हारे दिल का दर्द सुना जाती है। यार, अब तो आगे बढो.... या तो उसे भुलो या फिर उसे पा लो :) । बीच में ना रहो।
कविता पसंद आई। बधाई स्वीकारो।
-विश्व दीपक 'तन्हा'
आपके तेवरों से कोई भी आपका कायल हो जाता है। यह कविता धीरे-धीरे पाठक से जुड़ने लगती है और जहाँ खत्म होती वहाँ ठगा सा छोड़कर चली जाती है। माँ को सभी की प्रतिक्रियाएँ ज़रूर दिखाइएगा। दिखा नहीं सकते तो फ़ोन पर सुनाएगा, ज़रूर करेंगी वो कुछ न कुछ।
gorav bhai bhav samprashen kai karan aapki kavita ka silp bhut samvedensheelta ko sahlata hai...
वो भोलापन,
जो पूछता था तुझसे
कि मेरे बाल काढ़ते हुए
क्यों कसकर पकड़ लेती है
तू मेरी ठुड्डी,
मुझे आज चाहिए,
तुम्हारा पूरा बचपन आँखो के सामने आ गया... those were the best moments...तुम्हे ही नही मुझे भी तुम्हारा बचपन वापिस चाहिये..अंत कुछ दर्दनाक है..
मैं खाना नहीं खाऊँगा,
बचपन का वचन
निभाना है अम्मा,
कुछ कर,
वो चाहिए मुझे...
कभी न कभी वक़्त साथ देगा
शुभकामनाओ के साथ.....तुम्हारी दीदी
गौरव जी,
आप तो जब भी धीमे तेवरों वाली कविता लिखते हैं, मेरे आदर्श हो जाते हैं...बेहतरीन... बेहतरीन...
आपकी कहानी भी पढी "प्रेम कहानी".....मज़ा आ गया.हाँ, अंत में थोड़ा खींच-सी गई थी...
निखिल आनंद गिरि
गौरव भाई बहुत ही बढ़िया लिखा है.....पड़ते हुए पूरा बचपन जिया जा सकता है.......
बहुत कुछ याद दिला दिया आपने ,
वो दो चोटियों वाली सहेली,
जिससे मैं कहता था मासूमियत से
कि जब मैं इतना बड़ा हो जाऊँगा
कि पप्पा की तरह दाढ़ी बनाने लगूंगा
तो उसी से ब्याह करूँगा
और तू
मुस्कुराकर डपट देती थी मुझे,
उसका ब्याह है आज,
मैं पड़ गया हूँ जमीन पर
पैर पटकता हुआ,
ज़िद है आज,
मैं खाना नहीं खाऊँगा,
बचपन का वचन
निभाना है अम्मा,
कुछ कर,
वो चाहिए मुझे...
इन पंक्तियो ने तो मन ही खुश कर दिया....बहुत ही दिल से लिखी रचना है...बधाई स्वीकार...
Bachpan Yaad aa Gaya..........Bhaut Sunde Dil Ko Cho lane wali Rachna
bahut hi sunder
sara bachpan yaad aa gaya, kash ki mil jaaye dobara vo sari jid.
end kuchh dardnak hai, bahut hi sundarta se piroye hai sabd
उसका ब्याह है आज,
मैं पड़ गया हूँ जमीन पर
पैर पटकता हुआ,
ज़िद है आज,
मैं खाना नहीं खाऊँगा,
बचपन का वचन
निभाना है अम्मा,
कुछ कर,
वो चाहिए मुझे...
easi hi achha achha likhte raho bhai
Best wishes-tumhari bahan
bahut khub
sara bachpan yaad aa gaya, kash ki wo sab dobara mil paye.
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)