(प्रत्येक वर्ष 4 दिसंबर आती है और मेरे हाथ वर्षों पूर्व लिखी यह कविता डायरी के पन्नों से निकल कर आ जाती है इस कविता का महत्व बस इतना ही है राष्ट्रीय संदर्भ की जिन तत्कालीन परिस्थतियों में यह लिखी गयी थी उसके मात्र 2 दिन बाद 6 दिसंबर वही सब कछ राष्ट्र में हो गया जिसकी आहट उस दिन कविता में प्रतीत हो रही थी)
…… और 'लाक्षागृह कौंसिल' का
'पाण्डवों' ने कर दिया बहिष्कार
बचाया इस तरह यह नवीन बार
कूट युध्द वोट बैंक
अपमान की सतत पीड़ा
छलना स्ववंशजों की
मात्र दुराभिमान हेतु
''एक 'अयोध्याग्राम' तक नहीं''
हो चुका है पारावार
संजय .. संजय ..
किन्तु होंठ बन्द
वाणी अवरूद्ध
देख रहा है 'संजय'
निर्निमेष नेत्रों से
'तुष्टीकरण अस्त्र' की
लपलपाती रूधिर सनी
विनाशकारी ज्वाला
क्या बोलूँ महाराज ..
सोमालिया के बुभुक्ष पिंजर
वोस्नियाँ की रक्तभरी गलियाँ
खण्डहर पड़ी मस्जिदें
वीरान मन्दिर
निरूत्तर अजान
मौन घण्टे और शंख
देख रहा हूँ 'प्रत्यक्ष'
विभाजन के उपरान्त
यह 'द्वितीय सर्ग'
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12 कविताप्रेमियों का कहना है :
kmal ka likha hai aapne,sara mahabharat kuch lines mey byan ker diya joke aasan nahee hai. my heartes congrates.
Regards
seema gupta
सचमुच बड़ा विनाशकारी मंजर उभरा था उस समय|
संजय .. संजय ..
किन्तु होंठ बन्द
वाणी अवरूद्ध
देख रहा है 'संजय'
निर्निमेष नेत्रों से
'तुष्टीकरण अस्त्र' की
लपलपाती रूधिर सनी
विनाशकारी ज्वाला
-- सुंदर है उस घटना के सन्दर्भ मे.
अवनीश तिवारी
क्या बोलूँ महाराज ..
सोमालिया के बुभुक्ष पिंजर
वोस्नियाँ की रक्तभरी गलियाँ
खण्डहर पड़ी मस्जिदें
वीरान मन्दिर
निरूत्तर अजान
मौन घण्टे और शंख
देख रहा हूँ 'प्रत्यक्ष'
विभाजन के उपरान्त
यह 'द्वितीय सर्ग'
केवल मौन रह कर महसूस की जानी वाली वेदना है। सालता है यह 'द्वतीय सर्ग...। आपके शब्द संयोजन और भाषा पर पकड की भी मिसाल है यह रचना।
*** राजीव रंजन प्रसाद
६ दिसम्बर को होने वाली घटना खूब उभर के आई है आपकी इस रचना में .जो शब्द आप लेते हैं वह अदभुत होते हैं, महाभारत के साथ मिला प्रसंग इसको जो दर्द दे रहा है वह सिर्फ़ महसूस किया जा सकता है सब शुभ हो अब .फ़िर कुछ ऐसा न हो ..!!
महाभारत से अभी तक का सफर मात्र कुछ ही पंक्तियों में कह देना आप की कविता की ख़ास बात रही---सोमालिया -बोस्निया---महाभारत-और आज की राजनितिक परिस्थितियाँ सब को एक साथ इतने कम शब्दों में कह देना कलाकारी है!बधाई--
-alpana verma
सोमालिया के बुभुक्ष पिंजर
वोस्नियाँ की रक्तभरी गलियाँ
खण्डहर पड़ी मस्जिदें
वीरान मन्दिर
निरूत्तर अजान
मौन घण्टे और शंख
देख रहा हूँ 'प्रत्यक्ष'
विभाजन के उपरान्त
यह 'द्वितीय सर्ग'
श्रीकांत जी ह्रदय विदारक है, कहीं शून्य में बहुत कुछ अनकहा छोड़ जाती है आपकी ये रचना
तब निरुत्तर संजय
होंठ बन्द
वाणी अवरूद्ध
निरुत्तर अजान
मूक घंटा शांत शंख
और अब मैं
-नमन श्रीमन..
क्या बोलूँ महाराज ..
सोमालिया के बुभुक्ष पिंजर
वोस्नियाँ की रक्तभरी गलियाँ
खण्डहर पड़ी मस्जिदें
वीरान मन्दिर
निरूत्तर अजान
मौन घण्टे और शंख
देख रहा हूँ 'प्रत्यक्ष'
विभाजन के उपरान्त
यह 'द्वितीय सर्ग'
मैं भी यही सोच रही हूँ कि क्या बोलूँ । बहुत ही प्रभावशाली लिखा है । ये वो घटना है जिसे याद कर के भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं । इतनी सुन्दर अभिव्यक्ति के लिए बधाई ।
श्रीकान्त जी स्तब्ध कर देने वाली रचना। भाषा और शब्दो का चयन गहनता प्रदान करते हैं।
अदभुत कविता. मानना पड़ेगा शब्दों और भावों का अध्भुद समन्वय हुआ है आप की कविता में. बधाई.
नीरज
युध्द= युद्ध
निरूत्तर= निरुत्तर
(और शायद 'वोस्नियाँ' की जग़ह 'बोस्निया' होना चाहिए)
कविता को बढ़िया तरह से बाँधा है आपने।
सोमालिया के बुभुक्ष पिंजर
वोस्नियाँ की रक्तभरी गलियाँ
खण्डहर पड़ी मस्जिदें
वीरान मन्दिर
निरूत्तर अजान
मौन घण्टे और शंख
देख रहा हूँ 'प्रत्यक्ष'
विभाजन के उपरान्त
यह 'द्वितीय सर्ग'
कांत जी,
शब्दों पर आपकी सर्वदा से अच्छी पकड़ रही है। यह आपकी रचना की एक बड़ी खासियत होती है। इस रचना में आपने महाभारत काल को सोमालिया और बोस्निया से जिस तरह जोड़ा है, पढते हीं तत्क्षण मुँह सें वाह निकल जाता है।
बधाई स्वीकारें।
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