अक्टूबर माह की प्रतियोगिता की कविताओं को प्रकाशित करते-करते हम छठवे स्थान की कविता तक पहुँच चुके हैं। इस कविता के रचयिता सुनील कुमार सिंह तीसरी बार इस प्रतियोगिता में भाग ले रहे हैं। पहली बार इनकी कविता 'प्रेरणा' अंतिम २० में थी, मगर दूसरी कविता यह कारनामा न कर सकी। मगर इस बार अपनी रचना 'ऐसा मेरा दीवानापन' के साथ छठें स्थान पर काबिज़ हैं।
परिचय-
इनका जन्म जिला इंदौर (मध्य प्रदेश) में ३० नवम्बर १९८४ को हुआ। पिता विद्युत विभाग में कार्यपालन यंत्री के पद पर कार्यरत हैं और माता सामान्य गृहणी हैं। हिन्दी कविता और साहित्य के प्रति पूरे परिवार में किसी के मन में कोइ खास रुचि नहीं थी, पर स्कूल के समय से ही इनकी कविता पढने एवं लिखने में काफी रुचि रही है। इन्होंने आई आई टी - रुड़की से धातुकर्म एवं पदार्थ अभियान्त्रिकी में इसी वर्ष बी-टेक की डिग्री प्राप्त की है और फिलहाल बैंगलूरु में कार्यरत हैं। इनकी प्रेरणा के मुख्य श्रोत रहे हैं निराला जी, मैथिलीशरण गुप्त जी एवं कुमार विश्वास जी। इनकी एक ख़ास बात यह है कि इनकी अधिकतर कविताओं का विषय प्रेम के इर्द-गिर्द ही केन्द्रित रहता है।
संपर्क-६९ / सी-६, जी-०४ पर्ल ग्रेस अपार्टमेंट
१-बी मेन रोड ,जी.एम पालया,
बी.ई.एम.एल गेट के पास
बैंगलोर-५६००७५
ऐसा मेरा दीवानापन
सीता अगर तुम राम मैं हूँ ,उर्मिला तुम मैं लक्ष्मण
मीरा तुम जो श्याम मैं हूँ ,मैं कबीर तो तुम भगवन
मेरे दिल से तेरे दिल तक डोर बंधी कुछ ऐसी है
पीर उठे जो तेरे सीने दुख जाता है मेरा मन
ऐसा मेरा पागलपन है ,ऐसा मेरा दीवानापन
मौसम-मौसम बरखा सी तुम बदरी-बदरी तुम सावन
प्यासा मन मेरा है तुम बरस जाओ कभी मेरे आँगन
ओ वीणा चली आओ इस तारे का तुमको निमंत्रण
मेरे गीतों में सुरों सी जीवन संगीत है तुम सरगम
इन हाथों की लकीरों में तुम , तुम रेखा मेरे जीवन
जीवन सूना तुम बिन ऐसे जैसे दिल हो बिन धडकन
दिल दर्पण में बसती तुम मन मयूर ढूँढे वन-वन
ऐसा मेरा पागलपन है ,ऐसा मेरा दीवानापन
रजनी-रजनी चँद्रमा-सी दिन हो तुम सूरज गगन
मेरे दिल की शाम तुम रवि-रजनी का आलिंगन
सुबह-शाम के चक्रव्यूह में फंस गया कुछ ऐसा मन
रातें मेरी हैं मधुशाला ,दिन मेरे हो गये मधुवन
ऐसा मेरा पागलपन है ,ऐसा मेरा दीवानापन
पावन-पावन गंगा सी तुम यमुना हो वृंदावन
दिल में तुम्हारे सरस्वती जल हो तुम संगम-संगम
मन निश्छल नर्मदा-सा है गोदावरी तुम्हारा यौवन
इस हिमालय से सागर तक तुम ही मेरे नवरतन
प्राण-पृष्ठ पर अल्पना सी तुम ही अंकित मेरे जीवन
फिर भी रचता हूँ तुम्हें, कि तुम ही कल्पित मेरे मन
ऐसा मेरा पागलपन है ,ऐसा मेरा दीवानापन
चमक-चमक बिंदिया सी तुम खनक-खनक हो तुम कंगन
मन पारस तुम्हारा है फिर क्यूँ ना हो तन कंचन-कंचन
रिश्ता बीच तेरे और मेरे कुछ ऐसा बैठा है बन
समझूँ अपने दिल को सीपी और मोती तुम्हारा मन
ऐसा मेरा पागलपन है ,ऐसा मेरा दीवानापन
बेला-बेला सोनजुही सी, कल्पतरू तुम मेरे आँगन
मेरे घर की ये तुलसी, करती है तेरा अभिनंदन
जिससे सारी फिज़ाएँ महकी वो खुशबू कुछ ऐसी है
माटी में भी कमल खिला है, सूना आँगन लगता गुलशन
ऐसा मेरा पागलपन है ,ऐसा मेरा दीवानापन।
जजों की दृष्टि-
प्रथम चरण के ज़ज़मेंट में मिले अंक- ६॰५, ८॰५, ५
औसत अंक- ६॰६७
स्थान- ग्यारहवाँ
द्वितीय चरण के ज़ज़मेंट में मिले अंक- ५, ५॰८
औसत अंक- ५॰४
स्थान- तेरहवाँ
तृतीय चरण के ज़ज़ की टिप्पणी- काफ़ी प्रारम्भिक रचना लगती है। बड़े रचनाकारों को खूब पढ़िए और आत्मसात कीजिए जीवन-प्रसंगों को।
अंक- ५॰५
स्थान- नौवँ
अंतिम ज़ज़ की टिप्पणी-
कवि यत्न कर इसे सुन्दर गीत बना सकता है। सभी उपमान अच्छे बन पड़े हैं और कवि के पागलपन और दीवानापन की उद्घोषणा को स्थापित करते हैं।
कला पक्ष: ६/१०
भाव पक्ष: ७/१०
कुल योग: १३/२०
पुरस्कार- डॉ॰ कविता वाचक्नवी की काव्य-पुस्तक 'मैं चल तो दूँ' की स्वहस्ताक्षरित प्रति
चित्र- युवा चित्रकार अजय कुमार ने इस गीत को पढ़ने का बाद इस दीवाने का यह चित्र उकेरा है।
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9 कविताप्रेमियों का कहना है :
सुन्दर रचना है.
बधायी.
अवनीश तिवरी
भाव बहुत सुन्दर है इस रचना के ..पढ़ना अच्छा लगा इसको !!
कच्ची मिट्टी की सोंध है।
सुनील जी ..,
सबसे पहले टू आपकी कविता के छटे स्थान पर आने के लिए आपको बधाई ..बहुत ही सुंदर कविता है.. प्रेमी की दशा को बखूबी दर्शाया है आपने ..अच्छे उधाहरनों के साथ ...
मौसम-मौसम बरखा सी तुम बदरी-बदरी तुम सावन
प्यासा मन मेरा है तुम बरस जाओ कभी मेरे आँगन
ओ वीणा चली आओ इस तारे का तुमको निमंत्रण
मेरे गीतों में सुरों सी जीवन संगीत है तुम सरगम
इन हाथों की लकीरों में तुम , तुम रेखा मेरे जीवन
जीवन सूना तुम बिन ऐसे जैसे दिल हो बिन धडकन
दिल दर्पण में बसती तुम मन मयूर ढूँढे वन-वन
ऐसा मेरा पागलपन है ,ऐसा मेरा दीवानापन
ऐसा मेरा दीवानापन ....बहुत खूब ...
सुनील जी,
प्रेममयी वातावरण बनाने के लिए धन्यवाद। बड़ी हीं खूबसूरत रचना है।
बधाई स्वीकारें।
-विश्व दीपक 'तन्हा'
सुनिलजी,
आपकी कविता या यों कहे कि दीवानापन बेहद पसंद आया, बधाई स्वीकार करें।
कविता में कवि का दीवानापन देखकर जो चित्र सामने उभरा ठीक वैसा ही केनवास पर उतराने के लिये अजय कुमार जी बधाई के पात्र है, उन्हें भी बहुत-बहुत बधाई!!!
सस्नेह,
- गिरिराज जोशी
सुनील जी,
छ्ठे स्थान पर आने के लिये बधाई!!!
बहुत बढिया रचना है...भाव तो बहुत ही सुन्दर है...अजय जी को भी सुन्दर पेंटिग के लिये बढाई...
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मौसम-मौसम बरखा सी तुम बदरी-बदरी तुम सावन
प्यासा मन मेरा है तुम बरस जाओ कभी मेरे आँगन
रजनी-रजनी चँद्रमा-सी दिन हो तुम सूरज गगन
मेरे दिल की शाम तुम रवि-रजनी का आलिंगन
रातें मेरी हैं मधुशाला ,दिन मेरे हो गये मधुवन
पावन-पावन गंगा सी तुम यमुना हो वृंदावन
दिल में तुम्हारे सरस्वती जल हो तुम संगम-संगम
मन निश्छल नर्मदा-सा है गोदावरी तुम्हारा यौवन
इस हिमालय से सागर तक तुम ही मेरे नवरतन
प्राण-पृष्ठ पर अल्पना सी तुम ही अंकित मेरे जीवन
फिर भी रचता हूँ तुम्हें, कि तुम ही कल्पित मेरे मन
ऐसा मेरा पागलपन है ,ऐसा मेरा दीवानापन
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शुभकामनायें!!!!
achhi rachna hai, bhav bahut achhe hain, haan kahin kahin par pravah me kami nzar aati hai, lekin phir bhi har cheez alochna ki drishti se na dekhte hue use bhavna ki nazar se bhi niharna chahiye
pankaj ramendu
आप जितने भी प्रतीक व उपमाएँ प्रयोग कर रहे हैं वो पुरानी हैं, कुछ चमत्कार परोसने की कोशिश कीजिए गुलज़ार की तरह। वैसे यह कविता भी कम नहीं। कोशिश करते रहें।
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