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Wednesday, November 14, 2007

बाज़ार जा रही हो तो...


बाज़ार जा रही हो
तो कुछ सामान लेती आना,
फ़ेहरिस्त देता हूँ तुम्हें,
कुछ देर तो सब्र करो;
उम्मीदों की चादर को
खा गए हैं यथार्थ के चूहे,
नई आशाओं का नया थान लेती आना,
सिलने दे देना
फटे हुए ख़्वाब,
कहते हैं कि
बड़े चौक का दर्ज़ी
बहुत शानदार रफ़ू करता है,
एक चैन की शीशी लेती आना
और कुछ नींद की गोलियाँ,
मुस्कान का मुरब्बा
और खुशी की थैलियाँ,
बरसों से ख़त्म हो गया है न
सब सामान,
फूट गए हैं
उड़ने वाले सब पतीले
और मचक गई हैं
अरमानों की सब थालियाँ,
प्यार का राशन
तुम अकेली खा गई हो
और शिकायतों की फफूंद लग गई है
मीठे अचार में,
ज़िन्दा रहने की सब कोशिशें
अब बुकिंग से मिलती हैं,
ब्लैक में ज़रा सी
ज़िन्दगी लाना,
और मेरी सब घड़ियाँ
थम गई हैं,
मेरे वक़्त में सेल डलवा लेना,
आँख खोलता हूँ
तो देख नहीं पाता,
लब खोलता हूँ
तो बोल नहीं पाता,
कल राघव कह रहा था
कि बाज़ार में क्लोन मिलने लगे हैं,
कीमतें पता करना
और सस्ता लगे
तो मुझसा अभिशप्त एक लेती आना,
मेरा क्या पता,
कब साँस छोड़ूँ
और लेना भूल जाऊँ।

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22 कविताप्रेमियों का कहना है :

गिरिराज जोशी का कहना है कि -

प्रिय गौरव!

तुम कविता को सच में एक हथियार की तरह इस्तेमाल करते हो... व्यवस्था पर क्या चोट की है!

अंत तक पहूँचते-पहूँचते कविता बेहद घातक हो गई है.. बिलकुल "एटम बम" की तरह...

कल राघव कह रहा था
कि बाज़ार में क्लोन मिलने लगे हैं,
कीमतें पता करना
और सस्ता लगे
तो मुझसा अभिशप्त एक लेती आना,
मेरा क्या पता,
कब साँस छोड़ूँ
और लेना भूल जाऊँ।


मशीनीकरण युग में मनुष्य का महत्व घटता जा रहा है... अच्छा लिखा है!

बधाई!!!

- गिरिराज जोशी

Avanish Gautam का कहना है कि -

बाज़ारवाद पर बढिया चोट!

Unknown का कहना है कि -

गौरव !

उम्मीदों की चादर को
खा गए हैं यथार्थ के चूहे,
......
एक चैन की शीशी लेती आना
....
ज़िन्दा रहने की सब कोशिशें
अब बुकिंग से मिलती हैं,
......
कि बाज़ार में क्लोन मिलने लगे हैं,
कीमतें पता करना
और सस्ता लगे
तो मुझसा अभिशप्त एक लेती आना,
मेरा क्या पता,
कब साँस छोड़ूँ
और लेना भूल जाऊँ।
.....
सदैव की तरह भावपूर्ण मर्मस्पर्शी पंक्तियां

Avanish Gautam का कहना है कि -

मेरा लगता है अंत भी अगर बाज़ार पर चोट करते हुये यह कहता कि "क्या पता कब मेरी साँसें छीन कर बाज़ार पहुँचा दी जाऐँ" तो ज़्यादा मज़ा आ जाता.

अवनीश एस तिवारी का कहना है कि -

भौतिक दुनिया मी हो रहे मानवीय मूल्यों की कमी को बाज़ार के माध्यम से अच्छा समझाया है.
सुंदर है.
अवनीश तिवारी

शोभा का कहना है कि -

प्रिय गौरव
तुम्हारी कविता में तुम्हारे हृदय की घोर निराशा व्यक्त हो रही है । मुझे यह बिल्कुल भी पसन्द नहीं । तुमको इस निराशा से बाहर आना होगा वत्स । यह जीवन ईश का वरदान है उसको किसी एक कामना के लिए बर्बाद करना सर्वथा अनुचित है । अगली बार एक आशावादी कविता का इन्तज़ार रहेगा । बहुत से स्नेह एवं आशीर्वाद के साथ ।

भूपेन्द्र राघव । Bhupendra Raghav का कहना है कि -

प्रिय गौरव सोलंकी
कविता बहुत ही ढंग की
तारीफ और क्या बोलूँ
किस पडले में अब तोलूँ
सचमुच में शब्द कटारी
ओछे समाज पर मारी
बस नमन कलम को मेरा
जोहर ना कम हो तेरा
यह तय है रात गुजरते
होगा फिर नया सवेरा.

गौरव सोलंकी का कहना है कि -

आप सबका बहुत धन्यवाद, लेकिन मुझे लगता है कि जो मैं कहना चाह रहा था, आप सबने कविता को उससे अलग संदर्भ में देखा। मेरा उद्देश्य बाज़ारवाद पर चोट करना नहीं, भावनाओं की कमी पर चोट करना ही था। हालांकि कविता लिखे जाने के बाद पाठक की ही है और यह व्याख्या भी मुझे अच्छी लगी।
अवनीश जी, इसीलिए आपकी सुझाई गई पंक्तियों जैसा कुछ लिखने की बजाय मैंने अपनी पंक्तियाँ लिखी, क्योंकि लिखे जाते समय विषय बाज़ार नहीं, व्यक्ति था।
शोभा जी, आपके स्नेह के लिए कैसे धन्यवाद दूँ? हाँ, बस मेरी इस एक बात पर जरा सी असहमति है कि एक कामना के लिए इस सुविधा और साधनयुक्त जीवन को बर्बाद नहीं करना चाहिए।
मेरा मानना है कि कुछ चीजें, कुछ लोग, कुछ सपने ऐसे होते हैं कि बाकी सब उसकी तुलना में कहीं नहीं ठहरता।
और ये निराशा नहीं है...
आप सबका फिर से शुक्रिया।

नंदन का कहना है कि -

अच्छी रचना

रंजू भाटिया का कहना है कि -

गौरव आपकी यह रचना बहुत पसंद आई ..आज कल के समय को दर्शाती यह यह एक अनुपम रचना है !!

Mohinder56 का कहना है कि -

प्रिय गौरव

बहुत ही सुन्दर लिखा है. सच में अनुभव व भावना के लिये उम्र बडी होना जरूरी नहीं तुमने सिद्ध कर दिया है. मशीनीकरण के इस दौर में रिश्तों की क्या अहमियत है अन्द जिन्दगी क्या हो गई है.. सजीव चित्रण किया है. बधाई

Anupama का कहना है कि -

aachi kavita hai...aapne to poora ki poora baazar hi mangwa liya.....bahut aacha laga padhkar....

punch line is very lively
मेरा क्या पता,
कब साँस छोड़ूँ
और लेना भूल जाऊँ।

Sajeev का कहना है कि -

उस बड़े चौक के दरजी का पता मुझे भी देना गौरव भाई...... लगता है जैसे, मेरे ही मन के भाव उभर आए हो इस कविता में, इस प्रस्तुति के लिए आभार

"राज" का कहना है कि -

गौरव जी!!
बहुत ही भावपूर्ण रचना है...वर्तमान बाज़ार व्यवस्था पर आपने बढिया चोट किया है...मशीनीकरण के युग में मनुष्य के घटते मुल्य को भी आपने क्लोन्निग का उदाहरण देते हुए अच्छे से प्रस्तूत किया है.....
***********************

उम्मीदों की चादर को
खा गए हैं यथार्थ के चूहे,

ब्लैक में ज़रा सी
ज़िन्दगी लाना,
और मेरी सब घड़ियाँ
थम गई हैं,
मेरे वक़्त में सेल डलवा लेना,

कल राघव कह रहा था
कि बाज़ार में क्लोन मिलने लगे हैं,
कीमतें पता करना
और सस्ता लगे
तो मुझसा अभिशप्त एक लेती आना,
मेरा क्या पता,
कब साँस छोड़ूँ
और लेना भूल जाऊँ।

pankaj ramendu का कहना है कि -

gaurav zyada baat na karte hue sirf itna hi kahunga
adbhut, bahut khoob, maza aa gaya
waise ek baat kahna chah raha thha, mujhe tumhari kavita me aaj ki khatm hoti bhavnayen nazar aaye hain isme bazarvad jaisa kuch nahi thha to kripa kar jo koi bhi is kavita ko pade wo ise nazariye se pade ki yeh koi bazarvad par likhi gai kavita nahi hai

lage raho
pankaj ramendu manav

विश्व दीपक का कहना है कि -

उम्मीदों की चादर को
खा गए हैं यथार्थ के चूहे,

सिलने दे देना
फटे हुए ख़्वाब,

प्यार का राशन
तुम अकेली खा गई हो
और शिकायतों की फफूंद लग गई है
मीठे अचार में,

मेरे वक़्त में सेल डलवा लेना,

मेरा क्या पता,
कब साँस छोड़ूँ
और लेना भूल जाऊँ।

बहुत हीं खूबसूरत रचना है गौरव। हर एक भाव मेरे दिल से निकलते प्रतीत हो रहे हैं। मैं भी कई दफा इन्हें शब्द देने को उतारू हो चुका हूँ। लेकिन मैं तुम जैसा लिख पाता तो.... काश मैं ऎसा लिख पाता......

बधाई स्वीकारो।

-विश्व दीपक 'तन्हा'

मनीष वंदेमातरम् का कहना है कि -

गौरव जी

मुझे नहीं पता कि आपकी कविता में क्या अच्छा है,
पर कुछ ऐसा है जिसे बार बार महसूस करने का मन करता है।कम से कम ७ बार इस कविता को पढ़ने के बाद भी
मैं उस चीज का नाम खोज नहीं पा रहा हूँ।

आशा है
अगली बार भी मैं आपकी एक इतनी ही सुन्दर रचना पढ़ूँगा

शैलेश भारतवासी का कहना है कि -

मेरे अनुसार गौरव जी आप खुद भी अपनी इस कविता को अपनी पसंदीदा कविताओं में रखे होंगे। मुझे तो यहाँ पूरा का पूरा कवि गौरव दिखा जो भावनाओं को शोरूम की तरह सजा रखा है। हमारे जैसे खरीददार तो कारीगरी देख-देखकर अचम्भित हैं। खरीदने की हिम्मत इसलिए नहीं हो रही है कि इससे पहले इतना चमत्कारी, नायाब सामान नहीं देखा है, पता नहीं क्या दाम हो, जेब की औकात के बाहर न हो।

कुछ अचम्भित करने वाले प्रयोग-

सिलने दे देना
फटे हुए ख़्वाब,
कहते हैं कि
बड़े चौक का दर्ज़ी
बहुत शानदार रफ़ू करता है,

प्यार का राशन
तुम अकेली खा गई हो

ज़िन्दा रहने की सब कोशिशें
अब बुकिंग से मिलती हैं,

कि बाज़ार में क्लोन मिलने लगे हैं,
कीमतें पता करना
और सस्ता लगे
तो मुझसा अभिशप्त एक लेती आना,
मेरा क्या पता,
कब साँस छोड़ूँ
और लेना भूल जाऊँ।

Shailesh Jamloki का कहना है कि -

गौरव जी..बेहद मनमोहक रचना है...
कविता के सारे तत्व मोजूद है,,, यानी... आप जो कहना छह रहा थी.. किवता उस पर पूरी तरह से खरी उतरती है.. और्हर पंक्ति पढ़ कर आगे पंक्ति पढ़ने की उत्सुकुता दर्शाती है.. की कविता अपनी ले कही नहीं खोति है..
और मै भी इसे निराशा नहीं कहूँगा.. बल्कि कुछ पंक्तियों से ये समझाने की खोशिश की है.. की हम इस ब्यस्त जीवन मै छोटी छोटी बातें कैसे भूल जाते है,...

Sarvesh Shukla का कहना है कि -

wah gaurav ji. ek baar aap phir chaa gaye. Bhaavon ki aisi abhivyakti karte hain aap ki woh bejod kriti main badal jati hai.dil ki nirasha aur.. ko itna mamarmik roop dena aapki maulik srijan shakti ko darshata hai.Mujhe aapki kavita bajarwad pe chot nahi lagi, aur aisa lagta bhi nahi ki aapne kuch aisa karne ke liye ye kavita likhi.ye to ek sidhi saadi dil ki vyath ko ek marmaik dhang se prastut karti huyi bahut hi hriday sparshi rachna hai.. kya kahoon . aap bahut accha likhte hain.too good

सतीश छेत्री का कहना है कि -

बहुत बढिया !
यह रचना शीतल पेय पदार्थ कि तरह है, आँखोँ से
बहती है ,हृदय मेँ बसती है ,आत्मा को महकाती है ।
कभी कभी कवि के कलम पर ईश्वर मुखरित होतेँ हैँ ।काव्य इहलौकिक भाव का उपज होते हुए भी, कभी कभी अवर्णनीय अनिर्वचनीय आनन्द की झल्कियाँ दे जाती है ।
बधाई हो आप ने उस के ओर ईशारा कर पायेँ..।

raybanoutlet001 का कहना है कि -

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