जब अंग देखता हूँ तेरा ये नजर वहीं रुक सी जाती
हो परी कोई या नदी कोई चलती है पल-पल इतराती
सर से नख तक की सुन्दरता..
जी मेरा आज नहीं भरता..
एक तो योवन का अल्लड़पन ऊपर से चलती बलखाती
हो परी कोई या नदी कोई .............
श्वेत राशि जल नदी उदर
नाभी या कोई पड़ी भँवर
कटि के तट पर टकराये लहर
कहाँ ? सब्र-बाँध फिर रहे ठहर
क्या नहीं डूबने को काफी, जो केश घटायें लहराती
हो परी कोई या नदी कोई .............
गोरी बाँहों की नजुकता
छूने की मन में उत्सुकता
ले कदम मेरा उस ओर बढ़ा
क्यूँ रोके आज नहीं रुकता
चंचल सी चितवन वाली वो कुछ इठलाती सी शरमाती
हो परी कोई या नदी कोई .............
होठों की लाली क्या बोलूँ
काजल को किससे मैं तोलूँ
अंगार और बादल फीके
इतने प्यारे इतने नीके
दाँतों पे दामिनि बलि जाये, धीरे से जब वो मुस्काती
हो परी कोई या नदी कोई .............
घनकेश घटा पिंडली छूती
क्या शब्द लिखेंगे अनुभूति
घुंघरू की मनमोहक रुन-झुन
कोई नागिन नृत्य करे धुन सुन
उड़ते आँचल को थाम थाम, पैरों को लय पर थिरकाती
हो परी कोई या नदी कोई .............
चितवन कमान अर्ध-वलयाकार
नयनों समाये सागर हजार
प्यासे मन से आये पुकार
डूबूँ इसमें बस बार बार
तट के ताड़ों के दल झुकते, पलकों को जब-जब झपकाती
हो परी कोई या नदी कोई .............
होठों का परस्पर आलिंगन
या पंखुडियों का सहज मिलन
या इन्द्रधनुष कोई आकर
खुद लिपट गया हो शरमाकर
मैं मंत्रमुग्ध बँध सा जाता, धीमे से स्वर में जब गाती
हो परी कोई या नदी कोई .............
नथुनों पर अधरों की लाली
या सुबह अभी होने वाली
कोमल कपोलों के भँवर
फूलों पर बैठे या मधुकर
लगता जैसे ऋतुराज आ गया, सुध-बुध मेरी खो जाती
हो परी कोई या नदी कोई .............
जब अंग देखता हूँ तेरा ये नजर वहीं रुक सी जाती
हो परी कोई या नदी कोई चलती है पल-पल इतराती
सर से नख तक की सुन्दरता..
जी मेरा आज नहीं भरता..
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20 कविताप्रेमियों का कहना है :
होठों का परस्पर आलिंगन
या पंखुडियों का सहज मिलन
या इन्द्रधनुष कोई आकर
खुद लिपट गया हो शरमाकर
मैं मंत्रमुग्ध बँध सा जाता, धीमे से स्वर में जब गाती
हो परी कोई या नदी कोई .............
प्रेम रस से ओत प्रोत इस कविता का जवाब नही
अवनीश तिवारी
राघव जी श्रृंगार रस पर लिखी यह आपकी बहुत अच्छी लगी ..पहली बार शायद इस विषय पर यहाँ पढ़ा है
बहुत बधाई आपको इस सुंदर रचना के लिए और आपके जन्मदिन के लिए भी !!
नख-शिख वर्णन और नदी की तरह बहती हुई यह रचना, भूपेन्द्र जी बधाई। पुराने रचनाकार इस विषय पर खूब कलम चलाते थे, बहुत दिनों बाद इस श्रंगारिक विष्यवस्तु पर कुछ पढा...
जन्मदिन की बधाई साथ में स्वीकारें।
*** राजीव रंजन प्रसाद
खड़ी हिंदी और रीतिकाल की रचनाओं सा आभास ..
अच्छा लगा पढ़कर...बधाई भूपेन्द्र जी...
राघव जी
सबसे पहले तो जन्मदिन की बहुत-बहुत बधाई। अब आपकी कविता - भाव भरी श्रृंगारिक रचना । चित्रात्मक शैली का कमाल दिख रहा है । हिन्द युग्म के लिए शैली कुछ नई है । रीतिकाल का स्मरण करा रही है ।
गोरी बाँहों की नजुकता
छूने की मन में उत्सुकता
ले कदम मेरा उस ओर बढ़ा
क्यूँ रोके आज नहीं रुकता
चंचल सी चितवन वाली वो कुछ इठलाती सी शरमाती
जन्मदिन की ढेरों शुभकानाएं
अवनीश
हर भाव सुंदर, हर चंद आकर्षक,
हो कवि या शायर कोई, भूपेन जी, जन्मदिन की भी बधाइयाँ स्वेकारें
:)
जीते रहो !
श्रृंगार लिखा है अब .. घोर श्रृंगार की भी अपेक्षा है तुमसे.....
भूपेंद्र बाबू,
जन्मदिन पर आपका यह रूमानी अंदाज़....क्या कहने....
"नथुनों पर अधरों की लाली
या सुबह अभी होने वाली
कोमल कपोलों के भँवर
फूलों पर बैठे या मधुकर
लगता जैसे ऋतुराज आ गया, सुध-बुध मेरी खो जाती
हो परी कोई या नदी कोई .............
जब अंग देखता हूँ तेरा ये नजर वहीं रुक सी जाती
हो परी कोई या नदी कोई चलती है पल-पल इतराती
सर से नख तक की सुन्दरता..
जी मेरा आज नहीं भरता.."
बहुत बढ़िया....युवा मन सिहर गया थोडी देर के लिए....
प्रेम में विपरीत लिंग के दैहिक आकर्षण को नकारा नहीं जा सकता.....आपने अपनी शालीनता बरकरार रखते हुए देह-वर्णन को निर्वाह किया है.....
आगे के लिए यही कहना चाहूँगा....यूं ही याद आ गया,...
"प्यार का पहला ख़त लिखने में वक्त तो लगता है,
नए परिंदों को उड़ने में वक्त तो लगता है....
जिस्म की बात नही थी, उसके दिल तक जाना था...
लंबा रस्ता तय करने में वक्त तो लगता है...."
निखिल........
कोमल कपोलों के भँवर
फूलों पर बैठे या मधुकर
लगता जैसे ऋतुराज आ गया, सुध-बुध मेरी खो जाती
हो परी कोई या नदी कोई .............
sringar ras se bharpoor kavita!bahut arse baad padne ko mili--
bhaavon ko khuub sundar chitrit kiya hai aapne --badhayee-
-alpana verma
घनकेश घटा पिंडली छूती
क्या शब्द लिखेंगे अनुभूति
घुंघरू की मनमोहक रुन-झुन
कोई नागिन नृत्य करे धुन सुन
भूपेन्द्र जी , शृंगार रस में हिचखोले खाती आपकी यह रचना दिल को बाग-बाग कर गई।
बधाई स्वीकारें।
-विश्व दीपक 'तन्हा'
shringar ras se bhari hui aapki kabvita badi hi manmohak lagi.....zayka badalne ke liye shukriyaa
नारी वही है, लेकिन ध्यान आकृष्ट करने के लिए शृंगार वर्णन में उपमाएँ सामयिक चुननी चाहिए। उस मामले में आप फ़ेल हो गये हैं।
raghav ji aapne shingar ki gahrai ko itna saral kar k likha hai ki ise dil me utar lene ko ji chahta hai
श्रृंगार पर अति उत्तम प्रस्तुति है...
रख कर सर गोद में
सुकून से वो सो गईं,
सहलाया जो उनके गालों को,
मुस्कुरा वो गईं ,
पूछा जो गर्म साँसों ने ,
हाल ये दिल जनाब का,
शर्मा के सीने में ,
फिर वो सिमट गईं.
जय हो
बहुत सुंदर भूपेंदर जी
सरल शब्दो मे अच्छी व्याख्या है।।
आती सुँदर
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