१८वें स्थान पर भी बिलकुल नया चेहरा है। रजनीश सचान पहली बार भाग भी लिये हैं और अच्छी कविता भी लेकर आये हैं, टॉप २० में बने रहना इसका प्रमाण भी है। फ़िर भी आखिरी जजों का यानी आपलोगों का निर्णय अभी शेष है। लीजिए फ़िर आपकी नज़र करते हैं-
कविता- आतंकवाद... आतंकवाद..
कवि- रजनीश सचान
ज़र्रे-ज़र्रे मे है विषाद...
आतंकवाद... आतंकवाद..
गावों शहरों मे तैर रहा,
मुर्दा चेहरों मे तैर रहा,
आठो पहरों मे तैर रहा,
साँसों लहरों मे तैर रहा,
शामो-सहरों मे तैर रहा...
आतंकवाद... आतंकवाद...
है तीनो लोकॉं मे निनाद...
आतंकवाद... आतंकवाद...
जाने कैसा ये अग्निकुंड,
जाने कैसा ये व्योम-होम,
जलता जीवन जलता तन-मन,
जलता आत्मा का रोम-रोम,
क्या ईशा,गाँधी का विलोम...
आतंकवाद... आतंकवाद...
अंधे मानव का एक वाद,
आतंकवाद... आतंकवाद...
कर याद ज़रा तू आतंकी,
वो पहरा ठंडी छाओ का,
बस एक बार तू देख इधर,
ये चेहरा बेवा माओं का,
फिर देख बिलखते घावों का...
आतंकवाद... आतंकवाद...
मासूमों की क़ब्रें अगाध,
आतंकवाद... आतंकवाद...
फूलों की मधुगंध छिनी ,
कलियों ने खिलना छोड़ दिया,
ये धुंधले-सहमे सूर्य,चंद्र,
किरणों ने हिलना छोड़ दिया,
मानव ने ऐसा कोढ़ दिया...
आतंकवाद... आतंकवाद...
मिट जाते कितने निरपराध...
आतंकवाद... आतंकवाद...
कुछ और नहीं कायरता है,
यूँ बात बात पर जां लेना,
कुछ आज किसी की याँ लेना,
कल और किसी की वाँ लेना,
यूँ लूट सभी अरमां लेना...
आतंकवाद... आतंकवाद..
कुछ मिथ्या मसलों का विवाद...
आतंकवाद... आतंकवाद..
बस बहुत हुआ तू सीमाएँ,
मानवता की अब लाँघ रहा,
ये रक्त उबलने वाला है,
ये शांति-शांति अब माँग रहा,
अब हमसे तेरा स्वांग रहा...
आतंकवाद... आतंकवाद..
देखूं कितनी तेरी मियाद ???
आतंकवाद... आतंकवाद...
जजों की दृष्टि-
प्रथम चरण के ज़ज़मेंट में मिले अंक- ६, ९, ८
औसत अंक- ७॰६७
स्थान- प्रथम
द्वितीय चरण के ज़ज़मेंट में मिले अंक- ३॰३, ६
औसत अंक- ४॰६५
स्थान- अठारहवाँ
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7 कविताप्रेमियों का कहना है :
आज के युग की इस समस्या का अच्छा विवरण है.
सुंदर है.
और लोगों से बाटें
अवनीश तिवारी
फूलों की मधुगंध छिनी ,
कलियों ने खिलना छोड़ दिया,
ये धुंधले-सहमे सूर्य,चंद्र,
किरणों ने हिलना छोड़ दिया,
मानव ने ऐसा कोढ़ दिया...
ये रक्त उबलने वाला है,
ये शांति-शांति अब माँग रहा,
अब हमसे तेरा स्वांग रहा...
आतंकवाद... आतंकवाद..
उत्कृष्ट, रवानगी से भरपूर रचना। बधाई रजनीश जी।
*** राजीव रंजन प्रसाद
आपकी तरफ़ है दुआ ये सभी की कि खत्म हो जाए ये सारे फसाद.... आतंकवाद....आतंकवाद..... सुंदर रचना
मैं तो कहता हूँ कि .. गोली मार दो इन करम जलों में।
रजनीश,
कविता में प्रवाह अच्छा बन पड़ा है......
आपकी आखिरी पंक्तियाँ बेहद आशावादी हैं....
"देखूं कितनी तेरी मियाद ???
आतंकवाद... आतंकवाद..."
हमें ऐसे सोच वाले कवियों की जरुरत है.....
शुरू में आपकी कविता कमजोर हो जाती है, मगर अंत तक आप ठीक लगने लगते हैं....
प्रयास जारी रहे....
निखिल आनंद गिरि
कवि का आतंकवाद से शब्द-शस्त्र द्वारा जुझारूपन लिये कविता अच्छी बन पडी है..
शुभकामनायें व वधाई.. लिखते रहें
बहुत बढ़िया प्रवाह है। जोश देना वाले संगीत के साथ इसे स्वरबद्ध कर दें तो सो चुकी मानवता को जगाने के काम आयेगी।
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