आज हम लेकर आये हैं, हमारे स्थाई पाठक व प्रतिभागी पंकज रामेन्दू मानव की कविता 'यह ज़िंदगी'। हमेशा से ये टॉप २० में रहे हैं, इन्हें स्तर बरकरार रखकर लिखनेवाला माना जा सकता है।
कविता- यह ज़िंदगी
कवि- पंकज रामेन्दू मानव, नई दिल्ली
यह जिन्दगी क्या है ? एक अनखुली-सी किताब है
कभी हुस्न-ए-इत्तेफाक है, कभी बेसबब हिसाब है .
जो सुनाया करता था हमे बातें सब की
झाँक कर ख़ुद के गिरेबान में, वो लाजवाब है
इश्क को हाथों से नापने वालों
यह असमान ओ समंदर सा बेहिसाब है
इन इशारों की गुफ्तगूँ को क्या कहिये
कभी मुस्कुराहटों के सलाम है, कहीं शर्म सा आदाब है
इस जहाँ में कौन है जिसे अपना कहें मानव
हर एक चेहरे पे मतलबों का नकाब है ।
जजों की दृष्टि-
प्रथम चरण के ज़ज़मेंट में मिले अंक- ५॰५, ७॰७५, ६॰९
औसत अंक- ६॰७२
स्थान- आठवाँ
द्वितीय चरण के ज़ज़मेंट में मिले अंक- ४॰८, ७॰८
औसत अंक- ६॰३०
स्थान- आठवाँ
तृतीय चरण के ज़ज़ की टिप्पणी- वर्तनी की त्रुटियाँ सुधार लेनी चाहिए थीं भेजने से पूर्व। ग़ज़ल विधा को खूब सीखना शेष है। कविता शाब्दिक खेल नहीं होती।
अंक- ५
स्थान- ग्यारहवाँ
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5 कविताप्रेमियों का कहना है :
सुंदर शब्द है.
लेकिन शेर एक दूसरे से मेल कम खाते है याने लय मी कम बना
ऐसा मुझे लगा.
सुंदर
अवनीश तिवारी
आपने तो इस कविता के शिल्प पर तो थोड़ी भी मेहनत नहीं की है। जबकि आप बहुत गहरे भावों वाली कविता लिखने के लिए जाने जाते हैं। वैसे उम्मीद है कि आप पुनः फ़ार्म में आ जायेंगे।
शिल्पगत त्रुटियाँ तो हैं किंतु रचना अच्छी है। बधाई।
*** राजीव रंजन प्रसाद
yeh baat me sweekar karta hun ki maine is kavita ko dobara janchne ki cheshta nahi kari, darasal samay ke abhav ke karan aisa hua, kintu aap logo ne jo bhi kaha me us par awashya dhayan dunga
shukriya
ग़ज़ल में शिल्प तो प्रथम होता है। उसपर तो कम से कम ज़रा ध्यान दिया होता।
यह वाली तो एक दम बेकार ग़ज़ल है; अगली इन्तेज़ार रहेगा।
थोड़ा mid night oil burn कीजिएगा।
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