(१)
रात, सोते समय
कोई खिड़की खुली रह गयी
भूल से
एक किताब निकली
अपना दायरा तोड़ के
जी बहलाने
सुबह से ही
शहर में बलवा है
कुछ लोग मरे हैं
कुछ बस्तियाँ जलीं हैं
वो किताब
वापस नहीं आई
अभी तक......
(२)
जैसे ही खोला मैंने
बचपन के ज़माने की,एक किताब
ज़िल्द हटाते ही
खिलखिलाती हुई उड़ गयी
इक मासूम मुस्कान
शायद मेरे बचपन से ही
दबी थी,
उस किताब में
सुबह देखता हूँ
छोटे-छोटे बच्चे स्कूल जा रहे हैं
भरी आँखें
ख़ाली चेहरे
सारी मुस्काने बंद
बस्ते में ठूँसी किताबों में
दुबकी हैं......
समझायी सी
फुसलाई सी
डराई सी
छुट्टी होने के इंतज़ार में
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
14 कविताप्रेमियों का कहना है :
मनीष जी
१. पता चला आपकी वह किताब कट्टर धार्मिक,
कट्टर साम्यवादी या "कट्टर..कट्टर" थी.
२. मुस्कान किताबों में बन्द
छुट्टी के इन्तजार में
सही व सुन्दर चित्रण
सुबह से ही
शहर में बलवा है
कुछ लोग मरे हैं
कुछ बस्तियाँ जलीं हैं
सारी मुस्काने बंद
बस्ते में ठूँसी किताबों में
दुबकी हैं......
छुट्टी होने के इंतज़ार में
मनीष जी,
बहुत सारी गूढ बातें लिख डाली हैं आपने इन दो कविताएँ में। आपसे ऎसी हीं रचनाओं की उम्मीद रहती है।
बधाई स्वीकारें।
-विश्व दीपक 'तन्हा'
सुबह देखता हूँ
छोटे-छोटे बच्चे स्कूल जा रहे हैं
भरी आँखें
ख़ाली चेहरे
सारी मुस्काने बंद
सुन्दर....
मनीष जी दोनों कविताएं बहुत ही गहरी और बहुत ही सुंदर हैं ...बधाई!!
"सुबह से ही
शहर में बलवा है
कुछ लोग मरे हैं
कुछ बस्तियाँ जलीं हैं
वो किताब
वापस नहीं आई
अभी तक......"
"भरी आँखें
ख़ाली चेहरे
सारी मुस्काने बंद
बस्ते में ठूँसी किताबों में
दुबकी हैं......"
मनीष जी, आपकी कलम गहरी और गहरी होती जा रही है। इन रचनाओं को को पढा तो देर तक मन की कचोटन कम नहीं हुई। आपकी कलम सशक्त है।
*** राजीव रंजन प्रसाद
वो किताब
वापस नहीं आई
अभी तक......
वाह मनीष जी, आपका कायल हुए बीन कैसे रहा जा सकता है,
जैसे ही खोला मैंने
बचपन के ज़माने की,एक किताब
ज़िल्द हटाते ही
खिलखिलाती हुई उड़ गयी
इक मासूम मुस्कान
शायद मेरे बचपन से ही
दबी थी,
उस किताब में
सरल शब्दों में कितना कुछ कह गए आप..... क्या बात है
बहुत गहरा भाव है.
अच्छा है.
अवनीश तिवारी
मनीष जी,
गहरे भाव लिये है दोनो कवितायें.
1. न जाने क्यूं मानव यह नहीं समझता कि जीवन उसकी लिखी हुई किताबों से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण है..
2. शायद दबी हुई मुस्कानें वो बीज हैं जो एक दिन खिलखिलाहट का पेड बनेंगी... (आशावाद)
बधाई
इसमे कोई शक नहीं कि यह कविताएँ अच्छी हैं. लेकिन मनीष जी जिस विषय का सूत्र आपने जहाँ से पकडा है वहाँ से बहुत बडी कविताओं की सम्भावनाएं खुलती हैं. कोशिश कीजिए कि यह विषय वहाँ तक पहुँचे. यहाँ एक बात और कविताओं पर गुलज़ार का प्रभाव दिखता है. वक्तिगत रूप में मुझे गुलज़ार की कविता में मुझे एक कमी दिखती है कि वह सहलाती तो हैं लेकिन अपनी धार खो देती हैं. मुझे लगता है जैसी कविता की आत्मा हो वैसा ही शरीर भी होना चाहिए. इन कविताओं में लिंग दोष भी है. उम्मीद है ध्यान देंगें.
जैसे ही खोला मैंने
बचपन के ज़माने की,एक किताब
*खोली होना चाहिये था.
मनीष बन्देमातरम
कायल हो गये हम
इन किताबो के
जो एक पृष्ठ में
समेटे हैं लाखों सवाल
आओ तैयारी करें
इम्तिहान पास करना है
-राघव
अवनिश जी,
गुलजार साहब की किस रचना में आपको लगा कि वह केवल छूकर निकल गई ,असर नहीं की। अगर उनकी रचना में ऎसा लग सकता है तो बाकी किसी और रचनाकार से ऎसी उम्मीद रखना बेमानी हीं होगा। साथ-ही-साथ किसी रचना पर गुलजार का प्रभाव होना कोई बुरी बात नहीं, मनुष्य शब्द बनाना अक्षरों से हीं सीखता है... तो किसी शब्द पर अक्षर का प्रभाव होना गलत होता है क्या?
-विश्व दीपक 'तन्हा'
मनीष जी,
अच्छी कविताएँ हैं।
सुबह से ही
शहर में बलवा है
कुछ लोग मरे हैं
कुछ बस्तियाँ जलीं हैं
********
जैसे ही खोला मैंने
बचपन के ज़माने की,एक किताब
ज़िल्द हटाते ही
खिलखिलाती हुई उड़ गयी
इक मासूम मुस्कान
शायद मेरे बचपन से ही
दबी थी,
उस किताब में
सही है, गुलज़ार साहब की याद आ गई।
बाकी बातें पता नहीं मगर हर बार ऐसा हो तो आप वाकई बहुत बड़े कवि हैं :)
आप बड़े कवि बनने की ओर अग्रसर हैं। और अभी तो यह आपका दूसरा प्रयोग है। प्रयोग करते रहिए। जब प्रयोग का सैकड़ा पूरा होगा तब कहीं जाकर आप पर किसी का भी प्रभाव नहीं दिखेगा।
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