एक ही विषय पर २५ कविताएँ पढ़कर आप कहीं बोर न हो जायँ, इसलिए हम एक अलग मूड की कविता प्रतियोगिता से उठाकर लाये हैं। यूनिकवि एवम् यूनिपाठक प्रतियोगिता के दसवें अंक की यह १९वीं प्रस्तुति है। हमारे प्रवासी पाठक हरिहर झा जो हमारी हर गतिविधि में भाग लेते हैं। रोज़ाना हमें पढ़ते हैं। हमारा मार्गदर्शन करते हैं। आइए इनकी कविता 'मधुशाला के नाम' पढ़ते हैं।
कविता - मधुशाला के नाम
कवि- हरिहर झा, मेलबोर्न (ऑस्ट्रेलिया)
चंचल आंखों की पीड़ा से छलक रहा क्यों जाम
आंखों से आंसू बहते हैं मधुशाला के नाम
कैसे बच पायेगा पंखी ठगी हुई सी आंखें
छाया विष हलाहल नभ में उड़ती दोनो पांखें
गले तीर के लग जाने के कैसे ये अरमान
चीर कलेजा क्षुधा मिटाने की मन में ली ठान
नरक बनी दुनिया सपने में आती स्वर्ग समान
आंखों से आंसू बहते हैं मधुशाला के नाम
मानमनावन कैसे हो दिल में हसरत की आग
अधर मौन होकर सोचे अब जागे मेरे भाग
दिल डूबा गहराई में भावों के स्वप्निल पंख
ओले बन अंगारे बरसे कलियां मारे डंख
शीतल छांव के दो पल, बदले में वियोग हाय राम !
आंखों से आंसू बहते हैं मधुशाला के नाम
खड़ा हुआ खलनायक देखो, बन कर भाग्य विधाता
हाय ! विदूषक मसखरी करता, सब्ज बाग दिखलाता
ठौर ना मिला प्रेम को, छलनी हुआ गया अब चैन
कैद हो गया अपराधी सा, अश्रुपूरित नैन
अमृत की दो बूंद जहर से मिल कर काम तमाम
आंखों से आंसू बहते हैं मधुशाला के नाम ।
जजों की दृष्टि-
प्रथम चरण के ज़ज़मेंट में मिले अंक- ६, ७॰२५, ५॰६
औसत अंक- ६॰२८
स्थान- पंद्रहवाँ
द्वितीय चरण के ज़ज़मेंट में मिले अंक- ३॰६, ५॰५
औसत अंक- ४॰५५
स्थान- उन्नीसवाँ
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5 कविताप्रेमियों का कहना है :
जहाँ तक मैं इस कविता को समझ पा रहा हूँ नायिका 'नायक' के हालाप्रेमी होने पर अपनी वेदना कह रही है।
(कोई इसकी सूक्ष्मता समझाये)
हरिहर झा जी,
मधुशाला का जिक्र आता है तो हरिवंशराय बच्चन जी याद आ जाते हैं और कविता से मेरी आशायें बढ़ जाती हैं।
मुझे लगता है प्रेम वियोग पर ठीक कविता है। ज्यादा अच्छी नहीं कह पाऊँगा क्योंकि शुरू में मुझे समझ नहीं आया :-(|शायद कविता की अभी ज्यादा समझ नहीं है।
बीच-बीच में कुछ पंक्तियाँ जो अच्छी लगीं:
खड़ा हुआ खलनायक देखो, बन कर भाग्य विधाता
.......
ठौर ना मिला प्रेम को, छलनी हुआ गया अब चैन
--तपन शर्मा
यह जान कर आनन्द आया कि पाठक मेरी कविता से अपने अर्थ निकालते हैं
>>>जहाँ तक मैं इस कविता को समझ पा रहा हूँ नायिका 'नायक' के हालाप्रेमी होने पर अपनी वेदना कह रही है। (कोई इसकी सूक्ष्मता समझाये)
>>>मुझे लगता है प्रेम वियोग पर ठीक कविता है।
नारी की पीड़ा को किस तरह एक उपभोग की वस्तु समझा जाता है
कि “चंचल आंखों की पीड़ा” को “जाम” समझा जाता है
और उसके बहते आंसू को मधुशाला के द्रव की तरह इस्तेमाल किया जाता है
अच्छी कोशिश है मगर एक खास ले में कविता नही बाँध पायी..... और कसाव होता तो मज़ा आता...वैसे मधुशाला जब भी केन्द्र में हो, नशा तो चढ़ता ही है.....
निखिल आनंद गिरि
निखिलजी व तपनजी
>>>मधुशाला का जिक्र आता है तो हरिवंशराय बच्चन जी याद आ जाते हैं और कविता से मेरी आशायें बढ़ जाती हैं।….
>>>>मधुशाला जब भी केन्द्र में हो, नशा तो चढ़ता ही है.....
बच्चनजी की भी आपने खूब कही…अब देखिये न! कितनी समानता है हम दोनो में…
( हिम्मत भी कैसे की आपने ऐसा सोंचने की !)
नाम भी एक जैसे “हरिवंश राय” और “हरिहर राय” (झा) वे भी कविता लिखते थे
मैं भी कविता लिखता हूं
पर सच तो यह है कि मैं उनके चरण रज की भी बराबरी नहीं कर सकता
मगर हाय रे दिले-नादान ! दिल में ये अरमान जरूर है कि मेरे बेटे अमिताभ बच्चन से कम
नहीं होने चाहिये।
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