हरे दूब पर गिरी,
शबनम की बूंदों से,
टकराती है रेशमी किरणें,
और दूर आकाश पर,
ओझिल हो जाते हैं,
सितारों के काफिले,
चांद अपनी सेना समेत,
लेता है इजाज़त,
और सूरज के घोडों की टापें सुनकर,
फिजा की नींद टूटती है,
अपने अपने सपनो से जागते हैं,
आदमी, चिडिया,
खरगोश, भेडिया,
और .... अपने पेट की अन्ताडियों में,
बजते हुए नगाडे सुनते हैं,
और फिर शुरू होती है,
अपनी अपनी भूख से लड़ते जीवों की -
दिनचर्या
कोई किसी का ग्रास तो कोई किसी का ग्रास,
सांसों से रिश्ता टूट सा जाता है,
पेट से ऊपर कोई क्या सोचे,
सिमट कर रह जाता है, सारा दायरा,
आदमी और चिडिया का,
खरगोश और भेडिया का,
पेट और पेट के नीचे की भूख तक
क्या जिंदा रहना ही काफी है ???
डूबते उजालों में,
मैं अक्सर सुना करता था ये सवाल,
मगर कर देता था अनसुना,
और मूँद लेता था पलकें,
रात फिर घिरती है, गिरती है,
हरे दूब पर फिर कोई शबनम,
इन गहरे सन्नाटों में कभी,
किसी दर्द की सुगबुगाहट,
सुना करता था मैं,
वो दर्द जो मुझमे जिंदा था कभी,
मर गया शायद ...
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14 कविताप्रेमियों का कहना है :
अच्छी कविता है . एक उम्दा अभिव्यक्ति के साथ
डूबते उजालों में,
मैं अक्सर सुना करता था ये सवाल,
मगर कर देता था अनसुना,
और मूँद लेता था पलकें,
रात फिर घिरती है, गिरती है,
हरे दूब पर फिर कोई शबनम,
इन गहरे सन्नाटों में कभी,
किसी दर्द की सुगबुगाहट,
सुना करता था मैं,
वो दर्द जो मुझमे जिंदा था कभी,
मर गया शायद ...
सुंदर है भाई
अवनीश
क्या जिंदा रहना ही काफी है ???
डूबते उजालों में,
मैं अक्सर सुना करता था ये सवाल,
मगर कर देता था अनसुना,
और मूँद लेता था पलकें,
रात फिर घिरती है, गिरती है,
हरे दूब पर फिर कोई शबनम,
इन गहरे सन्नाटों में कभी,
किसी दर्द की सुगबुगाहट,
सुना करता था मैं,
वो दर्द जो मुझमे जिंदा था कभी,
मर गया शायद ...
इन पंक्तियों को पढने के बाद सजीव जी प्रशंसा के शब्द पीछे छूट गये...यही तो है कविता।
*** राजीव रंजन प्रसाद
बहुत ही सुंदर कविता है सजीव जी ..यह पंक्तियाँ बेहद पसंद आई ..
डूबते उजालों में,
मैं अक्सर सुना करता था ये सवाल,
मगर कर देता था अनसुना,
और मूँद लेता था पलकें,
रात फिर घिरती है, गिरती है,
हरे दूब पर फिर कोई शबनम,
इन गहरे सन्नाटों में कभी,
किसी दर्द की सुगबुगाहट,
सुना करता था मैं,
बधाई सुंदर रचना के लिए !!
सजीव जी
बहुत ही स्तरीय रचना ..... एक सजीव कविता !
शुभकामना
वो दर्द जो मुझमे जिंदा था कभी,
मर गया शायद ...
दर्द का बढिया वर्णन है सजीव जी। आपसे ऎसी रचनाओं की हीं उम्मीद रहती है।
बधाई स्वीकारें।
-विश्व दीपक 'तन्हा'
कविता का शुरूआती क्राफ़्ट अच्छा है लेकिन यह नहीं समझ में आता कि आपकी कविताएँ इतनी अच्छी शुरूआत के बाद भी अंत में खुद से ही क्यों नहीं जुड़ पाती हैं।
सजीव जी अच्छी कविता है,
सजीव जी अच्छी कविता है,
बहुत सजीव विषय उठाया है
क्या जिंदा रहना ही काफी है ???
बहुत खूब
डूबते उजालों में,
मैं अक्सर सुना करता था ये सवाल,
मगर कर देता था अनसुना,
और मूँद लेता था पलकें,
रात फिर घिरती है, गिरती है,
हरे दूब पर फिर कोई शबनम,
इन गहरे सन्नाटों में कभी,
किसी दर्द की सुगबुगाहट,
सुना करता था मैं,
वो दर्द जो मुझमे जिंदा था कभी,
मर गया शायद
अच्छी रचना है ...
सुनीता यादव
कविता विलम्ब से पढी...अच्छी कविता है..मगर शैलेश जी ने ठीक कहा कि कविता अंत में आकर बिखर जाती है...या तो आपने कविता जल्दबाजी में पूरी की है या फिर और ज्यादा अनुभव कविता में पिरो न पाए....हालांकि अंत की पंक्तियाँ उम्दा हैं....
खैर, आप जिस संजीदे से वातावरण में पाठक को पहुचाने की हर दफा कोशिश करते हैं, उसमें इस बार भी सफल हैं....
निखिल आनंद गिरि
बहुत अच्छे...
मुझे तो तुम्हारी कविता का अंत बहुत सुंदर लगा।
हम सबने अपने आप को इस तरह ढ़ाल लिया है कि कई विसंगतियाँ हम अनदेखी कर देते हैं..कितनी पुकारें हमारें कानों तक पहुँच कर यूँ ही गुम हो जाती हैं।
dear sajeev i like this kavita its really nice leave in a pause and compel to think,
praveen shukla
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