डूबते सूरज को अक्सर बड़ी देर तक तकता है वो
शायद कहीं कुछ डूबता सा, खुद में भी रखता है वो
इस दौर के इन्सान की बरदाश्त की भी हद नहीं
हर बार जी उठता है फिर, कितनी दफ़ा मरता है वो
इक नया फ़तवा कोई हर रोज़ फन उठाता है यहाँ
सारे मंदिर मस्ज़िदों से बहुत ही आजकल बचता है वो
सेंसेक्स छूता जा रहा है हर दिन नई ऊँचाइयाँ
मरते हैं अब भी भूख से, ऐसे ही बस बकता है वो
ये ‘अजय’ भी शख्स अज़ीब है, इसे चैन एक पल नहीं
कभी वक्त से, हालात से, कभी खुद से ही लड़ता है वो
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13 कविताप्रेमियों का कहना है :
सामयिक चिन्तन!
ये ‘अजय’ भी शख्स अज़ीब है, इसे चैन एक पल नहीं
कभी वक्त से, हालात से, कभी खुद से ही लड़ता है वो
- -
बहुत बढीया !
अवनीश तिवारी
अजय जी,
आपकी इस गज़ल को मैं बहुत श्रेष्ठ की श्रेणी मे रखते हुए पहले दूसरे और चौथे शेर की गहरायी और रवानगी दोनों की के समायोजन की प्रसंशा करना चाहता हूँ, हाँ तीसरे और पाँचवे शेर के भावपक्ष से कोई शिकायत नहीं किंतु रवानगी इनमें अवरुद्ध हुई है।
*** राजीव रंजन प्रसाद
इस दौर के इन्सान की बरदाश्त की भी हद नहीं
हर बार जी उठता है फिर, कितनी दफ़ा मरता है वो
बहुत खूब अजय जी !!
अजय जी
इक नया फ़तवा कोई हर रोज़ फन उठाता है यहाँ
सारे मंदिर मस्ज़िदों से बहुत ही आजकल बचता है वो
....
ये ‘अजय’ भी शख्स अज़ीब है, इसे चैन एक पल नहीं
कभी वक्त से, हालात से, कभी खुद से ही लड़ता है वो
बहुत ही प्रभावकारी पंक्तियाँ
इस दौर के इन्सान की बरदाश्त की भी हद नहीं
हर बार जी उठता है फिर, कितनी दफ़ा मरता है वो
ये ‘अजय’ भी शख्स अज़ीब है, इसे चैन एक पल नहीं
कभी वक्त से, हालात से, कभी खुद से ही लड़ता है वो
अच्छी गज़ल है अजय जी। भाव बढिया हैं। बस कहीं-कहीं शिल्प अवरूद्ध हुआ है। ध्यान देंगे।
-विश्व दीपक 'तन्हा'
बहुत खूब...........
सेंसेक्स छूता जा रहा है हर दिन नई ऊँचाइयाँ
मरते हैं अब भी भूख से, ऐसे ही बस बकता है वो
ये ‘अजय’ भी शख्स अज़ीब है, इसे चैन एक पल नहीं
कभी वक्त से, हालात से, कभी खुद से ही लड़ता है वो
हर एक शेर गज़ब का है अजय जी।
दिल को छू लिया आपने।
बहुत ही उंदा ग़ज़ल है इस बार अजय जी, पहले तीन शेर तो कमाल हैं , बहु बधाई आपको
भाव गहरे हैं, मगर ग़ज़ल के व्याकरण पर खरे उतरती है क्या? इतने अभ्यास की उम्मीद आपसे तो रखी जा सकती है?
सेंसेक्स छूता जा रहा है हर दिन नई ऊँचाइयाँ
मरते हैं अब भी भूख से, ऐसे ही बस बकता है वो
क्या बात है!!!!
"डूबते सूरज को अक्सर बड़ी देर तक तकता है वो
शायद कहीं कुछ डूबता सा, खुद में भी रखता है वो"
ये अच्छी शुरुआत है...
"इस दौर के इन्सान की बरदाश्त की भी हद नहीं
हर बार जी उठता है फिर, कितनी दफ़ा मरता है वो"
ये भी अच्छा है मगर ग़ज़ल के हिसाब से थोडी दूसरी पंक्ति कम लय में है....इसे थोडा बढिया किया जा सकता है...
"इक नया फ़तवा कोई हर रोज़ फन उठाता है यहाँ
सारे मंदिर मस्ज़िदों से बहुत ही आजकल बचता है वो"
इसमें भी दूसरी पंक्ति बयान जैसी लगती है....भाव अच्छे हैं...
"सेंसेक्स छूता जा रहा है हर दिन नई ऊँचाइयाँ
मरते हैं अब भी भूख से, ऐसे ही बस बकता है वो"
ये नया स्टाइल कहा जा सकता है मगर.....चलिए, ये पसंद आई...
ये ‘अजय’ भी शख्स अज़ीब है, इसे चैन एक पल नहीं
कभी वक्त से, हालात से, कभी खुद से ही लड़ता है वो
यहाँ, आप अपनी प्रतिभा के अनुरूप हैं...बिलकुल सटीक, संक्षेप में पूरा सार कहने में सफल......
बधाई...
निखिल आनंद गिरि
इस दौर के इन्सान की बरदाश्त की भी हद नहीं
हर बार जी उठता है फिर, कितनी दफ़ा मरता है वो
इक नया फ़तवा कोई हर रोज़ फन उठाता है यहाँ
सारे मंदिर मस्ज़िदों से बहुत ही आजकल बचता है वो
सेंसेक्स छूता जा रहा है हर दिन नई ऊँचाइयाँ
मरते हैं अब भी भूख से, ऐसे ही बस बकता है वो
बहुत सुन्दर अजय जी..
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