25 नवम्बर 2007 (रविवार)
हिंद-युग्म साप्ताहिक समीक्षा : 17
(12 नवम्बर 2007 से 18 नवम्बर 2007 तक की कविताओं की समीक्षा)
१.परवरिश[अभिषेक पातनी] में परम्पराओं और संबंधों के क्षरण के बहुचर्चित मुद्दे को उठाया गया है. विवरण और कथा सूत्र तो है पर काव्यात्मकता अभी प्रतीक्षित है.
२.याद आए[नीरज गोस्वामी] में लय और तुक का अच्छा निभाव है. शीर्ष पंक्ति वाचक के अप्रासंगिक होने से उपजी उपेक्षाजन्य पीड़ा का बोध कराती हैं. दूसरे अंश में इसी का खुलासा है. तीसरे अंश में सूक्ति है.आगे के तीन अंश भी. सातवां अंश याद की महिमा बताता है .आगे के दो अंश पराजय बोध से भरे हैं, अन्तिम अंश में पुनः सूक्ति रची गई है.
३.ओ पिता[श्रीकांत मिश्रा कान्त] में व्यक्तिगत यथार्थ को सामाजिक यथार्थ में बदलने की जद्दोजहद दिखाई देती है. विवरण की प्रधानता और उपयुक्त बिम्ब-रचना के अभाव में कविता स्टेटमेंट मात्र बनकर रह जाती है तथा पाठकीय चेतना पर वांछित प्रभाव नहीं छोड़ पाती. तर्क भी इसमें मिस-प्लेस्ड है . माँ और पिता की अनावश्यक तुलना करके माँ की महत्ता को कमतर सिद्ध किया गया है-- माँ होती है धरती, गेहूँ अथवा जौ बोया गया किस खेत में, कोई अन्तर नहीं पडता, हृदय पोषित तत्व से उगती है जो फसल, नाम क्या.. पहचान क्या, फिर कौन हूँ मैं .. वह तो है बोया बीज, मैं जो भी हूँ वह हो ‘तुम’ --बहुत फर्क पङता है धरती से .हर धरती में एक ही बीज से एक सी फसल नहीं उगती!
४.कुछ दर्द(मोहिंदर कुमार) में कुछ नयापन नहीं है. अन्तिम अंश की दूसरी पंक्ति में छंद भी गड़बड़ा गया है.
५.यादें मीठी(राजीव रंजन प्रसाद) भी विवरण और वक्तव्य की अधिकता से बोझिल कविता है. इसमे संदेह नहीं की कवि के पास काव्यात्मक भाषा है लेकिन उसका सृजनात्मक निखार अपेक्षित है.
६.बाज़ार(गौरव सोलंकी) में अच्छी शब्द क्रीडा है. मंचों पर इस तरह की रचनाओं पर खूब वाह-वाही मिलती है. कवि का सामजिक सरोकार प्रशंसनीय है.
७.ख्याल(रंजू) में ग़ज़ल के शिल्प को निभाने की अच्छी कोशिश दिखाई देती है मेरा/तेरा/घनेरा/बसेरा के साथ सुनहरा और सुरीला का प्रयोग अस्वीकार्य है.
८.मौत(सजीव सारथी) में स्वप्नों की मृत्यु को रूपकात्मक अभिव्यक्ति प्रदान करने में कवि को सफलता प्राप्त हुई है.
९.गैलीलियो(अवनीश गौतम) में मिथ बन चुके एक व्यक्तिचरित्र और उसकी खोजपूर्ण स्थापना का सुंदर उपयोग करते हुए मनुष्य के आदिम राग और कौटुंबिकता की प्रकृति का बयान सुंदर है.
१०.शब्द मेरे(अजय यादव) में छंद और लय के साथ-साथ सादृश्य विधान भी ध्यानाकर्षक है.
११.हम और तुम(शोभा महेन्द्रू) में स्त्री और पुरूष के परस्पर आकर्षण, उसकी दुर्निवारता, व्यक्ति और समाज के द्वंद्व तथा अंततः यथार्थ से पलायन करके अध्यात्म में शरण ग्रहण करने की प्रवृत्ति को उभारा गया है.
१२.तुम्हारा क्या दोष(विपुल) में कवि की कथा-कथन प्रतिभा दिखायी देती है. प्लेटोनिक लव से जुडी विवशता, आत्मपीडा, सदाशयता और उदात्तता झलक मार रही है. कवि की भाव प्रवणता को एंटी-रोमांटिक स्थितियों के साक्षात्कार से उपजे विरक्ति भाव से उबरना होगा.
१३.ओ सूरज(निखिल आनंद गिरी) में कुहरे और किरण के सांग रूपक के माध्यम से विवध जीवन संदर्भों को अच्छी अभिव्यक्ति दी गई है. अन्तिम अंश का विद्रोही तेवर खूब बन पड़ा है.
१४.बासी बासी मन(विश्व दीपक 'तन्हा') में लोक तत्वों के सहारे साधारण आदमी की पीड़ा और संघर्ष घाटा को शब्द बद्ध किया गया है. (नई कविता के सशक्त हस्ताक्षर सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ने कई सारे बंजारा गीत लिखे हैं इसी प्रकार अभी गत दिनों दिवंगत हुए कवि राजेन्द्र प्रसाद संघ ने अपने जन गीतों में विवध लोक गीतों की शैलियों को सफलता पूर्वक अपनाया है और भी अनेक नव गीतकारों ने लोक गीतों के विधान को अपनी रचनाओं द्वारा नया रूप प्रदान किया है. )
अंततः इस बार पाठकों के विमर्श हेतु प्रो. रवीन्द्रनाथ श्रीवास्तव की काल जयी कृति 'साहित्य का भाषिक चिंतन' का एक अंश उधृत करने की अनुमति चाहता हूँ-" साहित्यिक जगत बाह्य एवं वस्तु परक जगत की प्रतिच्छवी न होते हुए भी उससे असंपृक्त नहीं , और क्योंकि वह भी ठोस और यथार्थ है, अतः उसका भी वैज्ञानिक रीति से विश्लेषण सम्भव है साहित्यिक एवं बाह्य जगत के अन्तर को समझना वस्तुतः वस्तुओं की आतंरिक अन्विति और उनके फलां को समझना है जिसे हम अभिव्यक्ति शैली के माध्यम से ही जान सकते हैं , कम से कम कविता में उसका पता लगाने का और कोई साधन नहीं.."
इसी के साथ,सप्रनाम विदा !
प्रेम बनाए रखिएगा !!
सादर आपका-
ऋषभदेव शर्मा
२.याद आए[नीरज गोस्वामी] में लय और तुक का अच्छा निभाव है. शीर्ष पंक्ति वाचक के अप्रासंगिक होने से उपजी उपेक्षाजन्य पीड़ा का बोध कराती हैं. दूसरे अंश में इसी का खुलासा है. तीसरे अंश में सूक्ति है.आगे के तीन अंश भी. सातवां अंश याद की महिमा बताता है .आगे के दो अंश पराजय बोध से भरे हैं, अन्तिम अंश में पुनः सूक्ति रची गई है.
३.ओ पिता[श्रीकांत मिश्रा कान्त] में व्यक्तिगत यथार्थ को सामाजिक यथार्थ में बदलने की जद्दोजहद दिखाई देती है. विवरण की प्रधानता और उपयुक्त बिम्ब-रचना के अभाव में कविता स्टेटमेंट मात्र बनकर रह जाती है तथा पाठकीय चेतना पर वांछित प्रभाव नहीं छोड़ पाती. तर्क भी इसमें मिस-प्लेस्ड है . माँ और पिता की अनावश्यक तुलना करके माँ की महत्ता को कमतर सिद्ध किया गया है-- माँ होती है धरती, गेहूँ अथवा जौ बोया गया किस खेत में, कोई अन्तर नहीं पडता, हृदय पोषित तत्व से उगती है जो फसल, नाम क्या.. पहचान क्या, फिर कौन हूँ मैं .. वह तो है बोया बीज, मैं जो भी हूँ वह हो ‘तुम’ --बहुत फर्क पङता है धरती से .हर धरती में एक ही बीज से एक सी फसल नहीं उगती!
४.कुछ दर्द(मोहिंदर कुमार) में कुछ नयापन नहीं है. अन्तिम अंश की दूसरी पंक्ति में छंद भी गड़बड़ा गया है.
५.यादें मीठी(राजीव रंजन प्रसाद) भी विवरण और वक्तव्य की अधिकता से बोझिल कविता है. इसमे संदेह नहीं की कवि के पास काव्यात्मक भाषा है लेकिन उसका सृजनात्मक निखार अपेक्षित है.
६.बाज़ार(गौरव सोलंकी) में अच्छी शब्द क्रीडा है. मंचों पर इस तरह की रचनाओं पर खूब वाह-वाही मिलती है. कवि का सामजिक सरोकार प्रशंसनीय है.
७.ख्याल(रंजू) में ग़ज़ल के शिल्प को निभाने की अच्छी कोशिश दिखाई देती है मेरा/तेरा/घनेरा/बसेरा के साथ सुनहरा और सुरीला का प्रयोग अस्वीकार्य है.
८.मौत(सजीव सारथी) में स्वप्नों की मृत्यु को रूपकात्मक अभिव्यक्ति प्रदान करने में कवि को सफलता प्राप्त हुई है.
९.गैलीलियो(अवनीश गौतम) में मिथ बन चुके एक व्यक्तिचरित्र और उसकी खोजपूर्ण स्थापना का सुंदर उपयोग करते हुए मनुष्य के आदिम राग और कौटुंबिकता की प्रकृति का बयान सुंदर है.
१०.शब्द मेरे(अजय यादव) में छंद और लय के साथ-साथ सादृश्य विधान भी ध्यानाकर्षक है.
११.हम और तुम(शोभा महेन्द्रू) में स्त्री और पुरूष के परस्पर आकर्षण, उसकी दुर्निवारता, व्यक्ति और समाज के द्वंद्व तथा अंततः यथार्थ से पलायन करके अध्यात्म में शरण ग्रहण करने की प्रवृत्ति को उभारा गया है.
१२.तुम्हारा क्या दोष(विपुल) में कवि की कथा-कथन प्रतिभा दिखायी देती है. प्लेटोनिक लव से जुडी विवशता, आत्मपीडा, सदाशयता और उदात्तता झलक मार रही है. कवि की भाव प्रवणता को एंटी-रोमांटिक स्थितियों के साक्षात्कार से उपजे विरक्ति भाव से उबरना होगा.
१३.ओ सूरज(निखिल आनंद गिरी) में कुहरे और किरण के सांग रूपक के माध्यम से विवध जीवन संदर्भों को अच्छी अभिव्यक्ति दी गई है. अन्तिम अंश का विद्रोही तेवर खूब बन पड़ा है.
१४.बासी बासी मन(विश्व दीपक 'तन्हा') में लोक तत्वों के सहारे साधारण आदमी की पीड़ा और संघर्ष घाटा को शब्द बद्ध किया गया है. (नई कविता के सशक्त हस्ताक्षर सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ने कई सारे बंजारा गीत लिखे हैं इसी प्रकार अभी गत दिनों दिवंगत हुए कवि राजेन्द्र प्रसाद संघ ने अपने जन गीतों में विवध लोक गीतों की शैलियों को सफलता पूर्वक अपनाया है और भी अनेक नव गीतकारों ने लोक गीतों के विधान को अपनी रचनाओं द्वारा नया रूप प्रदान किया है. )
अंततः इस बार पाठकों के विमर्श हेतु प्रो. रवीन्द्रनाथ श्रीवास्तव की काल जयी कृति 'साहित्य का भाषिक चिंतन' का एक अंश उधृत करने की अनुमति चाहता हूँ-" साहित्यिक जगत बाह्य एवं वस्तु परक जगत की प्रतिच्छवी न होते हुए भी उससे असंपृक्त नहीं , और क्योंकि वह भी ठोस और यथार्थ है, अतः उसका भी वैज्ञानिक रीति से विश्लेषण सम्भव है साहित्यिक एवं बाह्य जगत के अन्तर को समझना वस्तुतः वस्तुओं की आतंरिक अन्विति और उनके फलां को समझना है जिसे हम अभिव्यक्ति शैली के माध्यम से ही जान सकते हैं , कम से कम कविता में उसका पता लगाने का और कोई साधन नहीं.."
इसी के साथ,सप्रनाम विदा !
प्रेम बनाए रखिएगा !!
सादर आपका-
ऋषभदेव शर्मा
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
8 कविताप्रेमियों का कहना है :
इस बार आप सीधे समीक्षा पर आ गए, आपकी भूमिका की कमी खली, शयद समयाभाव..... समझा जा सकता है..... समीक्षाएं ..... हमेशा की तरह सार्थक
आदरणीय ऋषभदेव शर्मा जी
"वक्तव्य की अधिकता से बोझिल कविता" मेरी रचना पर आपके इस कथन से मेरी सहमति है। रचना खास मन:स्थिति की है और इसी लिये मैं न्याय नहीं कर सका। किंतु आपके मार्गदर्शन को ध्येय बना कर मेरी कोशिश रहेगी कि एसी त्रुटियाँ कम हों। आभार।
*** राजीव रंजन प्रसाद
धन्यवाद ऋषभदेव जी.... जी हाँ यह लफ्ज़ मुझे भी बहुत अच्छे नही लगे थे .पर कुछ और ध्यान में आए नही :) ध्यान रखूंगी इस का आगे से :)
कविताओं के प्रति नई समझ विकसित करने का एक मात्र इशारा आपकी तरफ से मिलता है। आपका भी प्रेम बना रहे।
आदरणीय ऋषभ जी,
आपके इस स्तम्भ से हम पाठकों को भी बहुत कुछ सीखने को मिलता है। हम हर कविता को नई नज़र से देख पाते हैं।
आदरणीय ऋषभदेवजी,
आपकी टिप्पणियाँ ऐसी लगती हैं जैसे भरी कक्षा में शिक्षक कुछ छात्रों को एकाध नसीहत दे जाता है मगर वही एक-दो वाक्य उसके लिए ज़िंदगी भर काम आते हैं....
आपकी सारगर्भित समीक्षा के लिए धन्यवाद.....
हाँ, कभी-कभी ऐसा लगता है कि आप शुरू कि कविताओं पर ज्यादा शब्द खर्च करते हैं और क्रम में नीचे आने वाली कवितायें आपकी व्यस्तता का "शिकार" हो जाती हैं...
कृपया सभी कविताओं का अपना पूरा प्यार दें..
निखिल
ॠषभदेव जी,
हमेशा की तरह बड़ी हीं सार्थक एवं मूल्यवान समीक्षा की है आपने। इसके लिए मैं आपका तहे-दिल से शुक्रिया अदा करता हूँ।
-विश्व दीपक 'तन्हा'
सर जी इतने सार्थक मूल्यांकन के लिए धन्यवाद.
आलोक सिंह "साहिल"
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)