१.
कैसे हँसूँ,
परछाइयों के अपने भाव नहीं होते।
तुम हँसती रहो,
आसमां का रोना विप्लवी होता है।
मेरे सपने,
पानी पर बिछे हैं पत्थरों के लिए।
तुम्हारे सपने,
बाढ़ हैं और मैं एक मेड़।
मैं...
एक जिजीविषा हूँ
और तुम
मौत!
२.याद है तुम्हें?
मैं तुमसे
पानी पर खत लिखने की बात करता था।
मैं कहता था
कि मेरे ख़त बारिश के साथ
तुम तक पहुँचते हैं।
तुम कितना हँसती थी......
अब मैं
बादलों के घर में रहता हूँ।
अब तो मानोगी ना.........?
३.तुमने
इश्क़ जीता है..
मैं
इश्क़ को जीता हूँ..
तुम्हें अब भी
खोने का डर है,
मैं
खुद को खो चुका हूँ।
तुम
सौदागर हो
और मैं
सौदाई !
-विश्व दीपक 'तन्हा'
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17 कविताप्रेमियों का कहना है :
अच्छा लिखा है दीपक जी
.तुमने
इश्क़ जीता है..
मैं
इश्क़ को जीता हूँ..
तुम्हें अब भी
खोने का डर है,
मैं
खुद को खो चुका हूँ।
तुमने बहुत दिनों बाद फिर से वैसा ही लिखा है तन्हा भाई, जैसी मैं तुमसे उम्मीद हर बार करता हूँ।
१.
कैसे हँसूँ,
परछाइयों के अपने भाव नहीं होते।
तुम हँसती रहो,
आसमां का रोना विप्लवी होता है।
मेरे सपने,
पानी पर बिछे हैं पत्थरों के लिए।
तुम्हारे सपने,
बाढ़ हैं और मैं एक मेड़।
मैं...
एक जिजीविषा हूँ
और तुम
मौत!
२.याद है तुम्हें?
मैं तुमसे
पानी पर खत लिखने की बात करता था।
मैं कहता था
कि मेरे ख़त बारिश के साथ
तुम तक पहुँचते हैं।
तुम कितना हँसती थी......
अब मैं
बादलों के घर में रहता हूँ।
अब तो मानोगी ना.........?
वाह!
दिल खोल कर तुम्हारी तारीफ़ करने का मन है। कब मिल रहे हो?
बहुत बहुत सुंदर दीपक जी ..एक एक शब्द दिल में उतर गया .किसी के पंक्ति को बताना शायद मेरे लिए मुमकिन नही है ..बेहद खूबसूरत लिखा है आपने मैं और तुम ....तीनों ही बहुत अच्छी लगी मुझे .बधाई
तुम्हारे सपने,
बाढ़ हैं और मैं एक मेड़।
बहुत खूब तन्हाजी
सीधे दिल में उतर गया आपने जो कहा !
क्या बात है तनहा जी आजकल आपकी लेखनी बड़ा ही गज़ब ढा रही है ..
एक-एक शब्द अपनी कहानी कहता हुआ ..
वाह...
बहुत बहुत बधाई ....
तुम हँसती रहो,
आसमां का रोना विप्लवी होता है।................
मैं...
एक जिजीविषा हूँ
और तुम
मौत!
लेखनी जो दिल को छूले ....
बेहतरीन ....
सुनीता
याद है तुम्हें?
मैं तुमसे
पानी पर खत लिखने की बात करता था।
मैं कहता था
कि मेरे ख़त बारिश के साथ
तुम तक पहुँचते हैं।
तुम कितना हँसती थी......
अब मैं
बादलों के घर में रहता हूँ।
अब तो मानोगी ना.........?
सबसे सुंदर लगी ये लघु कविता.....
तुमने
इश्क़ जीता है..
मैं
इश्क़ को जीता हूँ..
तुम्हें अब भी
खोने का डर है,
मैं
खुद को खो चुका हूँ।
तुम
सौदागर हो
और मैं
सौदाई !
सुंदर है.
अवनीश तिवारी
तनहा जी,
प्रभावित तो आपने हमेशा ही किया है। यह दिल जीतने और याद रखने वाली रचना है। हर बिम्ब अपने आप में कसा हुआ और भीतर डुबाने में सक्षम है।
कैसे हँसूँ,
परछाइयों के अपने भाव नहीं होते।
मेरे सपने,
पानी पर बिछे हैं पत्थरों के लिए।
मैं कहता था
कि मेरे ख़त बारिश के साथ
तुम तक पहुँचते हैं।
अब मैं
बादलों के घर में रहता हूँ।
अब तो मानोगी ना.........?
बहुत खूब।
*** राजीव रंजन प्रसाद
दीपक जी,
सच में गजब का प्रकाश लिये हैं आपकी कवितायें
अलोकिक,अतुलनीय
हर पंक्ति ध्यान आकृष्ट करती है। बहुत दिनों के बाद तुम्हारी लेखनी प्रभावी लगी है। उम्मीद है भविष्य में इससे भी ज्यादा अच्छा पढने को मिलेगा।
तन्हा भाई,
बड़े दिनों बाद आया हूँ , माफ़ी चाहता हूँ ।
एकबारगी देखने से लगता है कि छोटे छोटे पत्थर रखे हुए हैं , यूँ हीं , बेतरतीब से, फ़िर थोड़ा भीतर जाना पड़ता है , पत्थरों से बनती आकृति को देखने के लिये,पहली कविता की खासियत यह है कि एक थीम उसे जोड़े हुए है , खूब … पर उसे थोड़ा और वितान मिलता तो और ही रंग जमता ।
सुधार :खत -ख़त
दूसरी कविता ज्यादा कसी हुई और संतुलित है ।
"अब मैं " में 'मैं ' को दूसरी पंक्ति में रखें तो मेरे हिसाब से ज्यादा अच्छा लगेगा ।
"अब
मैं बादलों के घर में रहता हूँ "
……
"अब तो मानोगी ना …?" में "ना " नहीं लगाते तो भी चलता ।
तीसरी कविता में …
"तुम्हें अब भी
खोने का डर है,
मैं
खुद को खो चुका हूँ।"
से "अब भी " हटा दें तो पिछली चार लाईनों से लय मिलेगी , पर अर्थ वह न रहेगा जो आप चाहते थे ; आपका निर्णय … एक और सुझाव … जिस तरह "जीता " का अलग अलग अर्थों में प्रयोग सम्मोहित करता है, उसी तरह का कुछ प्रयोग अगर आगे की चार लाईनों में होता तो और चमत्कार करता ।
मैंने कोई गलतियाँ नहीं बतायीं हैं पर मेरी समझ से जो भी सुझाव लगा, आपको बता दिया … क्यों कि मैंने निश्चय किया है कि सिर्फ़ तारीफ़ नहीं करूँगा । हाँ अगर यह कविता मैंने लिखी हो्ती … तो मैं काफ़ी गर्व महसूस करता । पर अभी इतने अच्छे बिम्ब बनाना मुझे नहीं आया । इसका श्रेय रचनाकार से कोई नहीं छीन सकता ।
रचना अच्छी है।
तन्हा जी कविताएँ अच्छी हैं. बारीकी से देखने पर एक आधी चूक दिखती है. जैसे..
यहाँ आप लिखतें है.
कैसे हँसूँ,
परछाइयों के अपने भाव नहीं होते।
और फिर आपने इस कविता का अंत किया है.
मैं...
एक जिजीविषा हूँ
और तुम
मौत!
यहाँ चूक है. परछाइयों की कोई जिजीविषा भी नहीं होती.
बाकी दोनों कविताएँ बढिया है. बढिया पहली भी है . बस एक छोटी सी चूक लगी मुझे.
बधाईयाँ!
शब्द-शिल्पीजी,
पोस्टमार्टम तो हो ही चुका है, आलोकजी एवं अवनिश ठीक ही कह रहे हैं, मगर मैं शिल्प की बजाय भाव देख रहा हूँ, जानदार!
तीनों मैं ही जो भाव प्रकट हुए है, वे खुद की तुलना में साथी को ऊपर रखते है... प्रेम यही है.. इसके पीछे की कहानी कभी चेट पर जानने का प्रयास किया जायेगा ;-)
बहुत-बहुत बधाई!!!
- गिरिराज जोशी
कविताओं की यही विशेषता होनी चाहिए। आप जिस तरह के बिम्ब (विशेषरूपेण प्रतिभावों में ) प्रयोग करते हैं, वो बरबस ही ध्यान खींच लेते हैं-
तुम्हारे सपने,
बाढ़ हैं और मैं एक मेड़।
मगर इन्हें भी इस प्रकार से लिखा जाना चाहिए था-
तुम्हारे सपने,
बाढ़ हैं
और मैं एक मेड़।
(जब सुनायेंगे तो पंक्ति भिन्नता का अर्थ समझ में आयेगा। थोड़ा सस्पेंस बना रहेगा)
वैसे अवनीश जी जैसे गंभीर और गुणी पाठक बहुत कम होते हैं जोकि कविताओं की ये बारीकियाँ पकड़ सकें। अगर उन्होंने यह नहीं लिखा होता हो मेरा तो ध्यान जाता ही नहीं। अवनीश जी आपका बहुत-बहुत धन्यवाद।
आलोक जी की सभी बातों का मैं समर्थन करता हूँ और इसी प्रकार की सलाह मैं भी देता हूँ।
तन्हा जी अच्छी रचना है,
ढेरों शुभकामनाएं
आलोक सिंह "साहिल"
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