आज बात करते हैं प्रतियोगिता की आठवीं कविता की। जिसके रचनाकार रविन्दर टमकोरिया 'व्याकुल' ने भी किसी प्रतियोगिता में पहली बार भाग लिया है। और यह हमारे लिए और हिन्दी कविता के लिए अच्छे संकेत हैं कि इनके जैसा ऊर्जवान कवि मिल रहे हैं।
व्याकुल का जन्म २५ फ़रवरी सन १९८९ को पश्चिम बंगाल के आसनसोल में एक मारवाड़ी समुदाय में हुआ। लगभग साढ़े चार वर्ष की अवस्था होगी जब उसका परिवार दिल्ली आकर बस गया। कवि की प्रारम्भिक शिक्षा घर पर ही हुई ...पिता 'श्री राजकुमार टमकोरिया' को भी कविताओं-कहानियों का बहुत शोक था, सो उनकी कवितायें सुन-सुन कर तथा भाई-बहनों को पढता देख वह स्वत : ही पढ़ना सीख गया ... साढ़े नो वर्ष की उम्र होगी जब पहली बार पांचवी कक्षा के दौरान उसने पहली बार विद्यालय देखा...इसके पहले कवि को याद नहीं की उसने कब पढ़ना-लिखना सीखा। पढ़ाई में हमेशा मेधावी रहे, कक्षा दस में हिंदी में सर्वाधिक अंक प्राप्त किया जिसके लिए 'राष्ट्रीय हिंदी अकादमी' की तरफ से पुरस्कार मिला। अध्ययन के दौरान मन सामजिक क्रिया-कलापों में भटकता रहता, तथा मन में धीरे -धीरे सामाजिक कार्य हेतु भावना जन्म लेने लगी। बारहवीं कक्षा पास करने तक कवि ने पत्रकारिता करने की ठान ली। उनके अधिकतर सहयोगियों तथा सहपाठियों ने कवि के इस फैसले को गलत बताया ..मगर कवी दृढ़ निश्चय ले चुका था... बारहवीं के पश्चात स्नातक में उसने पत्रकारिता को अपनाने हेतु दिल्ली स्थित '' एन.आर. ए.आई. स्कूल ऑफ़ मास कम्न्यूनीकेशन'' में दाखिला ले लिया। अभी कवि दूसरे वर्ष के छात्र हैं तथा अपने फैसले से बहुत खुश है। प्रथम सत्र के दौरान कवि ने हिंदी देनिक समाचार-पत्र ''मेरी दिल्ली'' के लिए पत्रकारिता की .....तथा लम्बी अवधी से हिंदी मासिक पत्रिका 'धर्मयुद्ध' के लिए एक पत्रकार के रूप में लेख लिख रहे हैं
पता- बी- ४८(पहला माला) रामपुरी, गाजियाबाद (यू.पी.)..चन्द्र नगर डाकघर :- २०१०११
पुरस्कृत कविता- वेश्या
हर रोज देखता हूँ मैं उसे चौराहे पर,
कोई उसे रांड कहता है ..कोई रंडी ...तो कोई वेश्या ...
चुपचाप खड़ी रहती है भीड़ से दूर एकांत में वह ,
मगर खोजती रहती है उसकी निगाहें अपने ग्राहक को ....
जो उसके साथ उसके जिस्म का सोदा कर सके!
कोई उसे नफरत से देखता है ,कोई गुस्से से ...
तो कोई थूक देता है उसकी तरफ़ देखकर...
मगर जब भी कोई देखता है उसकी तरफ़ ..वो मुस्कुरा पड़ती है,
जैसे सिखाना चाहती हो उसे मुस्कुराने का तरीका..
या बताना चाहती हो प्रकृति का नियम!
हर रोज जाती है वह गैरों के साथ...
हर रोज कुचला जाता है उसके जिस्म को...
फिर छोड़ दिया जाता है उसे उसी चौराहे पर ...
चंद रुपयों के साथ ,
औरों के द्वारा कुचले जाने के लिए !
कोई नहीं समझता उसकी पीड़ा, उसके अंतर्मन ...उसकी चाह को ...
स्त्री है वह पर फिर भी स्त्री जैसी नहीं ....
वह तो सिर्फ़ समझी जाती है एक खिलौना ,
जो अपने जिस्म से मर्दों का मन बहलाती है ...
जिस पल बनती है वह दुल्हन ...
उसी पल बेवा हो जाती है !
जजों की दृष्टि-
प्रथम चरण के ज़ज़मेंट में मिले अंक- ७, ६॰७५, ५
औसत अंक- ६॰२५
स्थान- सोलहवाँ
द्वितीय चरण के ज़ज़मेंट में मिले अंक- ६॰३, ५
औसत अंक- ५॰६५
स्थान- ग्यारहवाँ
तृतीय चरण के ज़ज़ की टिप्पणी- विषय-चयन अच्छा है, किन्तु पूरी कविता से ऐसा लगा कि जैसे इस विषय पर लिखने की बाध्यता से लिखी गई हो। ऐसी रचनाओं से जिस मार्मिकता की अपेक्षा मन में जगती है, वह उपलब्ध नहीं होती। उस पीड़ा का अनुभव कीजिए।
अंक- ५॰९
स्थान- सातवाँ
अंतिम ज़ज़ की टिप्पणी-
चित्रण अच्छा है, किंतु मार्मिक नहीं, कविता शून्य में समाप्त होती है जहाँ कवि कोई संदेश लिये खड़ा नहीं दिखता। कविता में जिस “प्रकृति के नीयम” को कवि उद्धरित कर रहा है उसे जब अंतिम पद में “पीड़ा” से जोडने का यत्न करता है तब कविता उचित बिम्ब, तर्क या कथ्य के अभाव में कमजोर हो जाती है।
कला पक्ष: ६॰५/१०
भाव पक्ष: ६/१०
कुल योग: १२॰५/२०
पुरस्कार- वेबजाल सृजनगाथा की ओर से काव्य-पुस्तक 'विहंग'
चित्र- इस कविता पर उपर्युक्त चित्र को युवा चित्रकार पीयूष पण्डया ने बनाया है।
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11 कविताप्रेमियों का कहना है :
कविता संभवतः एक चोट है एक विशेष विषय पर। मैं समझता हूं कि इसे समय देकर संपादित किया जाता तो अधिक बेहतर हो सकती है। फिर भी यह कहना सही नहीं होगा कि कवि कम एक संदेश के साथ ही अन्त करना चाहिए। शुभकामनाऒं सहित।
this poet is in any manner best
रविन्दर जी
इतनी कम उम्र में इतनी अच्छी रचना । वाह
स्त्री है वह पर फिर भी स्त्री जैसी नहीं ....
वह तो सिर्फ़ समझी जाती है एक खिलौना ,
जो अपने जिस्म से मर्दों का मन बहलाती है ...
जिस पल बनती है वह दुल्हन ...
उसी पल बेवा हो जाती है !
वेदना को बहुत नज़दीक से परखा है तुमने । बधाई स्वीकारें ।
पीयूष जी का चित्र कविता से भी सुन्दर बन पड़ा है । पीयूष जी बहुत-बहुत बधाई
रविन्दर जी!!!
एक वेश्या के दिन्चर्या को आपने बहुत ही सच्चाई के साथ पेश किया है....शूरुआत मे आपने बहुत खड़े शब्दों क प्रयोग किया है.....पर जैसे जैसे नीचे की पन्क्तिया आती है....इन खरे शब्दो का प्रयोग उचित ही लगा....रचना अच्छी है.....सराहने योग्य है.....
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हर रोज देखता हूँ मैं उसे चौराहे पर,
कोई उसे रांड कहता है ..कोई रंडी ...तो कोई वेश्या ...
चुपचाप खड़ी रहती है भीड़ से दूर एकांत में वह ,
मगर खोजती रहती है उसकी निगाहें अपने ग्राहक को ....
...
जिस पल बनती है वह दुल्हन ...
उसी पल बेवा हो जाती है !
स्त्री है वह पर फिर भी स्त्री जैसी नहीं ....
वह तो सिर्फ़ समझी जाती है एक खिलौना ,
जो अपने जिस्म से मर्दों का मन बहलाती है ...
जिस पल बनती है वह दुल्हन ...
उसी पल बेवा हो जाती है !
रविन्दर जी, विषय-चयन अच्छा है पर मेरा भी मानना है की कविता में संदेश भी होना चाहिए।
कथ्य अच्छा किन्तु अधूरा. आशा है आगे की कविताओं में और कसाव होगा. जजों की टिप्पणी ध्यातव्य है.
शुभकामना सहित...
मणि
रविन्दर जी,
अमूमन कवि प्रेमकविताओं से शुरूआत करते हैं, मगर आपकी शुरूआती रचनाएँ ही जब सामाजिक विडम्बनाओं, सरोकारों से जुड़ी हैं, तो आपसे उम्मीदें सामान्य कवियों से अधिक हो जाती हैं। आप बिलकुल ठीक दिशा में जा रहे हैं। ऐसे ही लिखते रहिए।
आज तो आपकी कविता पर विकास जी ने आवाज़ भी दिया है। आप उसे यहाँ सुन सकते हैं।
पीयूष जी की पेंटिंग की जितनी तारीफ़ की जाय वो कम है। उन्होंने कविता के लगभग हर भाव को इस छोटी सी पेंटिंग में सजा लिया है। पीयूष जी बहुत-बहुत बधाई।
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