गर बंद अंधेरे कमरे में
चादर के अंदर,
लगातार बहते आँसू
तकिया गीला कर दें
तो इसमें
तुम्हारा क्या दोष?
तुमने तो
कभी "हाँ" बोला ही नहीं,
मेरे इन आँसुओं को,
अपनी एक मुस्कान से
तोला ही नहीं
एकतरफ़ा प्यार...
तुम्हारा क्या दोष?
त्योहारों पर उदासी
कुछ ज़्यादा होती है!
होली,दीवाली
सब बेमानी सी लगती है
तुम्हारी यादें
कुछ-कुछ अमरबेल की तरह हैं..
दिल पर लिपट कर,
सारी ख़ुशी चूस जाती हैं!
ख़ैर...
तुम्हारा क्या दोष?
रात भर छत पर बैठकर,
तारों में
तुम्हारी सूरत ढूंढता हूँ!
हाथ में प्रेम रेखा नहीं है,
चाकू से नयी गोद लेता हूँ
दर्द तो होता है,
नाकामी का ख़ून भी बहुत बहता है
पर छोड़ो...
तुम्हारा क्या दोष?
तुम्हें बदनामी का डर था
मना कर दिया...
अब में कभी प्रेम पर नहीं लिखता!
दिल के ज़ज़्बातों का दरिया,
शब्दों के बाँध पर नहीं ठहरता
पता है..
प्रेम पर लिखे बिना
कोई कवि संपूर्ण नहीं होता!
ख़ैर जाने दो...
तुम्हारा क्या दोष?
रोज़ दिखती हो,मिलती हो
पर मेरी तरफ़ देखती भी नहीं!
सोचता हूँ,
एक बार तो देखना पड़ता होगा
यह देखने के लिए
कि कहाँ नहीं देखना है!
आह्!
तुमको भी कितना ज़ब्त करना है!
पर सुनो...
इसमें मेरा क्या दोष?
नींद में बड़बड़ाता हूँ
चिल्लाता हूँ,रोता हूँ
दोस्त कहते हैं
तुझे कुछ बीमारी है
क्या बीमारी है?
मेरे तकिये में भरी रूई
जानती है...
कि इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं !
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
16 कविताप्रेमियों का कहना है :
विपुल जी
सबसे पहले तो बुधिया की मुक्ति की बधाई । कविता इतनी प्यारी है कि मज़ा आ गया । तुमने बहुत ही सुन्दर भावाभिव्यक्ति की है । मन के भावों को इतने सुन्दर रूप में व्यक्त करने के लिए तुम्हारी जितनी प्रशंसा की जाए कम है । रोज़ दिखती हो,मिलती हो
पर मेरी तरफ़ देखती भी नहीं!
सोचता हूँ,
एक बार तो देखना पड़ता होगा
यह देखने के लिए
कि कहाँ नहीं देखना है!
आह्!
तुमको भी कितना ज़ब्त करना है!
पर सुनो...
इसमें मेरा क्या दोष?
बहुत-बहुत बधाई तथा आशीर्वाद
तुमने तो
कभी "हाँ" बोला ही नहीं,
मेरे इन आँसुओं को,
अपनी एक मुस्कान से
तोला ही नहीं
एकतरफ़ा प्यार...
तुम्हारा क्या दोष?
बहुत सुंदर विपुल ..
रोज़ दिखती हो,मिलती हो
पर मेरी तरफ़ देखती भी नहीं!
सोचता हूँ,
एक बार तो देखना पड़ता होगा
यह देखने के लिए
कि कहाँ नहीं देखना है!
कमाल का लिखते हैं आप विपुल ....दिल को छू गया आपका लिखा...
सस्नेह
रंजू
विपुल
सोचता हूँ,
एक बार तो देखना पड़ता होगा
यह देखने के लिए
कि कहाँ नहीं देखना है!
स्नेह
बहुत कुछ दोषारोपण किया है. सुंदर बना है.
अवनीश तिवारी
गर बंद अंधेरे कमरे में
चादर के अंदर,
लगातार बहते आँसू
तकिया गीला कर दें
तो इसमें
तुम्हारा क्या दोष?
भई वाह विपुल जी कमाल कर दिया
i msged u and i think it already reached u dear...........
regards
एकतरफ़ा प्यार...
तुम्हारा क्या दोष?
वेदना की मार्मिक तस्वीर.... प्यार हमेशा ही एकतरफा होता है विपुल, वरना क्यों टूटते दिल, यूं प्यार में .....
विपुल जी,
मार्मिक अभिव्यक्ति के लिए साधुवाद।
दिल के ज़ज़्बातों का दरिया,
शब्दों के बाँध पर नहीं ठहरता
पता है..
प्रेम पर लिखे बिना
कोई कवि संपूर्ण नहीं होता!
दोष आपका भी नहीं हैं बस उस छटपटाहट का है जो आपसे यह सब लिखवा रही है. छट्पटाते रहिये छट्पटाहट को बढाते रहये.
विपुल जी !!
मजा आ गया रचना पढ़कर.
सोचते तो सभी हैं लेकिन कागज पर कोई विरला ही उतार पाता है जिसे हम कवि की संज्ञा देते है.
रोज़ दिखती हो,मिलती हो
पर मेरी तरफ़ देखती भी नहीं!
सोचता हूँ,
एक बार तो देखना पड़ता होगा
यह देखने के लिए
कि कहाँ नहीं देखना है!
आह्!
तुमको भी कितना ज़ब्त करना है!
पर सुनो...
इसमें मेरा क्या दोष?
भावयुक्त रचना हेतु बधाई.
विपुल जी,
मुझे तो वास्तव में सर्वश्रेष्ठ रचाना लगी आपकी ये कविता..
मन कि अनुभूतियों को मोतियों कि तरह पिरोकर अभिव्यक्ति की है आपने..
रात भर छत पर बैठकर,
तारों में
तुम्हारी सूरत ढूंढता हूँ!
हाथ में प्रेम रेखा नहीं है,
चाकू से नयी गोद लेता हूँ
दर्द तो होता है,
नाकामी का ख़ून भी बहुत बहता है
पर छोड़ो...
तुम्हारा क्या दोष?
तुम्हें बदनामी का डर था
मना कर दिया...
अब में कभी प्रेम पर नहीं लिखता!
दिल के ज़ज़्बातों का दरिया,
शब्दों के बाँध पर नहीं ठहरता
पता है..
प्रेम पर लिखे बिना
कोई कवि संपूर्ण नहीं होता!
ख़ैर जाने दो...
तुम्हारा क्या दोष?
एक तरफा प्यार पर अच्छी शब्द शैली क प्रयोग, सुन्दर बिम्बात्मक दृष्टिकोण साफ साफ परिलक्षित हो रहा है.. सच में अतुलनीय रचा है विपुल जी..
नींद में बड़बड़ाता हूँ
चिल्लाता हूँ,रोता हूँ
दोस्त कहते हैं
तुझे कुछ बीमारी है
क्या बीमारी है?
मेरे तकिये में भरी रूई
जानती है...
कि इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं !
किन शंब्दों से तारीफ करू आपकी सम्वेदनशील रचना धर्मिता का..
बधाई के पात्र है विपुल जी..
नमन है आपकी लेखनी को..
हाथ में प्रेम रेखा नहीं है,
चाकू से नयी गोद लेता हूँ
रोज़ दिखती हो,मिलती हो
पर मेरी तरफ़ देखती भी नहीं!
सोचता हूँ,
एक बार तो देखना पड़ता होगा
यह देखने के लिए
कि कहाँ नहीं देखना है!
दर्द कुछ और मुखर हो जाता तो कविता और अच्छी बन जाती।
फिर भी काफ़ी अच्छी कविता है, विपुल। मुझे छत वाली कविता इससे ज्यादा पसंद आई थी।
अब में कभी प्रेम पर नहीं लिखता!
प्रेम पर लिखे बिना
कोई कवि संपूर्ण नहीं होता!
विपुल,
प्रेम कभी-कभी ऎसा वातावरण गढ देता है कि आप न उसके साथ रह पाते हो और न उसके बिना। तुम्हारी ऊपरी दो पंक्तियों में यह बात साफ-साफ दीख रही है।
पर मेरी तरफ़ देखती भी नहीं!
सोचता हूँ,
एक बार तो देखना पड़ता होगा
यह देखने के लिए
कि कहाँ नहीं देखना है!
बड़ी हीं बारीकी से तुमने इस पर गौर किया है। शुक्रिया तुम्हारा। इसे पढकर महसूस हुआ कि किसी की अनदेखी करने में भी हम उसे देख जाते हैं। फिर, न देखने की सारी कसमें तो बेमानी होती हैं ना!
तुम्हारा क्या दोष?
इसमें मेरा क्या दोष?
सच कहूँ तो दोष किसी का नहीं , बल्कि परिस्थितियों का है। इंसान बस ख्वाब गढता है , परिस्थितियाँ हीं निर्धारित करती हैं कि उन ख्वाबों को यथार्थ की जमीं मुहैया की जाए या नहीं।
सही जा रहे हो मित्र! ऎसे हीं लिखते रहो।
बधाई स्वीकारो।
-विश्व दीपक 'तन्हा'
कविता की शुरूआत ही प्रभावी नहीं है। मेरे हिसाब से पहली कुछ पंक्तियों के अलावा शेष पंक्तियों में अधिक कलात्मकता है। समान भाव पंक्तियों को आगे-पीछे रखने की कला सीखिए।
कविता की शुरूआत ही प्रभावी नहीं है। मेरे हिसाब से पहली कुछ पंक्तियों के अलावा शेष पंक्तियों में अधिक कलात्मकता है। समान भाव पंक्तियों को आगे-पीछे रखने की कला सीखिए।
गर बंद अंधेरे कमरे में
चादर के अंदर,
लगातार बहते आँसू
तकिया गीला कर दें
तो इसमें
तुम्हारा क्या दोष?
kya vipul bhai, aapne to kamal hi kar diya .
bahut acchhe
badhai ho
alok singh "Sahil"
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