18 नवम्बर 2007 (रविवार)
हिंद-युग्म साप्ताहिक समीक्षा : 16
(5 नवम्बर 2007 से 11 नवम्बर 2007 तक की कविताओं की समीक्षा)
मित्रो,
इस बार कविताएँ कम थीं फिर भी देर लग गई स्तंभकार को आप सबके हुजूर में हाजरी लगाने में। कई तरह के कार्य इस जीव ने अपने जिम्मे ले रखे हैं इसलिए जब इस नए काम का प्रस्ताव आया तो हामी भरते हुए मन में यही डर था कि पता नहीं कितनी देर तक, कितनी दूर तक निभाव हो सकेगा। कभी जब दूसरे कार्यों का दबाव बढ़ जाता है तो साप्ताहिक समीक्षा के काम में बाधा आ जाती है और मुझे अपराध-बोध होने लगता है. तब भी यही सोचकर फिरसे काम में लग जाता हूँ कि देखें कुछ और दिन निभ जाए।
इस बार की पहली कविता है, 'आज भी याद है मुझे' (श्रीकान्त मिश्र)। कवि ने भारतीय समाज के समक्ष एकदम नए रूप में उपस्थित वृद्धावस्था के पुनर्वास की समस्या को अत्यन्त मार्मिर्कता के साथ उठाया है। ऐसा नहीं है कि हमारे यहाँ कृतघ्न बेटों की परम्परा न रही हो माता-पिता के लिए मिट्टी और काठ के बर्तन रखने वाले बहू-बेटों का इतिहास बहुत पुराना है। पर उस ज़माने में उन बर्तनों को भी अपने माँ-बाप के बुढ़ापे के लिए छिपा कर रखने वाले नाती-पोते हुआ करते थे। आज के जड़हीन समाज में शायद वे नाती-पोते नहीं बचे हैं और इसीलिए बहू-बेटे ज्यादा क्रूर, निर्लज्ज और दुष्ट हो गए हैं. इसीलिए बुढापा पहली बार इतनी भयानक समस्या के रूप में भारतीय समाज के खोखलेपन का गवाह बन रहा है। मुझे लगता है ऐसे समय में कविता को ही दूरदर्शी नाती-पोतों की भूमिका निभानी होगी। बेटे-बहू अर्थ पिशाचों में बदल गए हैं, उनकी संवेदनशीलता को जगाने के लिए साहित्य के माध्यम का उपयोग किया जाना चाहिए कवि ने वही किया है। काश इस तरह की सार्थक कविताएँ सही लोगों तक पहुँच पाएं।
दूसरी रचना 'मुस्कराओ तो सही' (मोहिंदर कुमार) में सकारात्मक सोच और रचनाधर्मिता को उत्प्रेरित करने का प्रयास सराहनीय है। शायद बच्चन जी ने कहीं कहा है-"हैं अंधेरी रात पर दीया जलाना कब मना है ******** जो बसे हैं वे उजड़ते हैं प्रकृति के जड़ नियम से पर किन्ही उजड़े हुओं को फिर बसाना कब मना है।"
तीसरी रचना 'मंद समीरण...' (राजीव रंजन प्रसाद) में कवि के सामजिक सरोकार की आहट सुनी जा सकती है। शब्द चयन और रूपक रचना कवित्व शक्ति की उपस्थिति का परिचय देने में समर्थ हैं।
चौथी रचना 'मेरे मरने...'(गौरव सोलंकी) में कवि कल्पना ने भविष्य की घटना के बहाने वर्तमान की विसंगतियों का अच्छा खुलासा किया है। प्रणय की तीव्रता भी अच्छी तरह उभरी है।
पाँचवीं रचना 'दीवाली की रात' (सजीव सारथी) में बोलचाल की भाषा के साथ उर्दू के छोटे-छोटे शब्दों के दीये काफ़ी मोहक हैं। रोशनी का पैगाम लेकर आने वाली रात की सच्ची सार्थकता सचमुच वहाँ चिरागों का कारवां लेकर जाने में है जहाँ ज़िंदगी की शमा बुझ रही है। कवि का सामजिक दायित्व बोध प्रशंसनीय है। निश्चय ही कवि कर्म एक दायित्व पूर्ण सामजिक कर्म है।
छठी रचना 'मंजिल' (विश्व दीपक 'तनहा') में आजीविकागत दबाव के कारण गाँव छोड़कर शहर जाने की विवशता तथा तज्जनित चोट और कचोट की मार्मिक अभिव्यक्ति वेधक बन पड़ी है। रिश्ते-नातों, लोक तत्वों और लोक भाषा के प्रति जागरूकता द्वारा गीत विधा को सचमुच मार्मिकता मिल जाती है।
सातवी रचना 'मैं मीडिया...'(निखिल आनंद गिरि) में विवरणात्मक शैली में उस अमानुषिक होते समसामयिक यथार्थ का दर्शन कराया गया है जिसका सूत्रधार दिनानुदिन संवेदनहीन होता जा रहा हमारा 'आज' है। मीडिया के चरित्र पर यह एक सटीक टिप्पणी है।
यह तो हुई कविताओं पर स्तंभकार की समीक्षा। अब तनिक सन्दर्भ बदल कर ,या कहें कि कुछ सन्दर्भहीन बात भी कर ली जाए । अर्थात सुधी पाठकों के विमर्श हेतु इस बार कवयित्री इंदु जोशी के कविता संग्रह 'धुप में नहाई देह गंध' के कुछ अंश उद्धृत हैं --
"तुम्हारी साँसों की महक ,
गंधमादन की संजीवनी बूटी की तरह है ,
जो मुझमें भर जाती है -
कुछ नया करने का उत्साह । ***
मुझे लगता है मैं बिछी हुई धरती की तरह ,
लेकिन तुम हवा भी हो , सूरज भी , बादल भी ,
जिसका साथ पाकर मैं हो उठती हूँ ,
हरी भरी , भरी पूरी । ***
मेरे प्रिय , मैं तुम्हें दूंगी अपना सर्वस्व ,
तुम मुझे मेरी स्वतंत्रता देना ।"
हाँ तो दोस्तो! आज इतना ही। वक्त ने इजाज़त दी तो फ़िर मिलेंगे।
प्यार बना रहे !
आपका
ऋषभदेव शर्मा
इस बार कविताएँ कम थीं फिर भी देर लग गई स्तंभकार को आप सबके हुजूर में हाजरी लगाने में। कई तरह के कार्य इस जीव ने अपने जिम्मे ले रखे हैं इसलिए जब इस नए काम का प्रस्ताव आया तो हामी भरते हुए मन में यही डर था कि पता नहीं कितनी देर तक, कितनी दूर तक निभाव हो सकेगा। कभी जब दूसरे कार्यों का दबाव बढ़ जाता है तो साप्ताहिक समीक्षा के काम में बाधा आ जाती है और मुझे अपराध-बोध होने लगता है. तब भी यही सोचकर फिरसे काम में लग जाता हूँ कि देखें कुछ और दिन निभ जाए।
इस बार की पहली कविता है, 'आज भी याद है मुझे' (श्रीकान्त मिश्र)। कवि ने भारतीय समाज के समक्ष एकदम नए रूप में उपस्थित वृद्धावस्था के पुनर्वास की समस्या को अत्यन्त मार्मिर्कता के साथ उठाया है। ऐसा नहीं है कि हमारे यहाँ कृतघ्न बेटों की परम्परा न रही हो माता-पिता के लिए मिट्टी और काठ के बर्तन रखने वाले बहू-बेटों का इतिहास बहुत पुराना है। पर उस ज़माने में उन बर्तनों को भी अपने माँ-बाप के बुढ़ापे के लिए छिपा कर रखने वाले नाती-पोते हुआ करते थे। आज के जड़हीन समाज में शायद वे नाती-पोते नहीं बचे हैं और इसीलिए बहू-बेटे ज्यादा क्रूर, निर्लज्ज और दुष्ट हो गए हैं. इसीलिए बुढापा पहली बार इतनी भयानक समस्या के रूप में भारतीय समाज के खोखलेपन का गवाह बन रहा है। मुझे लगता है ऐसे समय में कविता को ही दूरदर्शी नाती-पोतों की भूमिका निभानी होगी। बेटे-बहू अर्थ पिशाचों में बदल गए हैं, उनकी संवेदनशीलता को जगाने के लिए साहित्य के माध्यम का उपयोग किया जाना चाहिए कवि ने वही किया है। काश इस तरह की सार्थक कविताएँ सही लोगों तक पहुँच पाएं।
दूसरी रचना 'मुस्कराओ तो सही' (मोहिंदर कुमार) में सकारात्मक सोच और रचनाधर्मिता को उत्प्रेरित करने का प्रयास सराहनीय है। शायद बच्चन जी ने कहीं कहा है-"हैं अंधेरी रात पर दीया जलाना कब मना है ******** जो बसे हैं वे उजड़ते हैं प्रकृति के जड़ नियम से पर किन्ही उजड़े हुओं को फिर बसाना कब मना है।"
तीसरी रचना 'मंद समीरण...' (राजीव रंजन प्रसाद) में कवि के सामजिक सरोकार की आहट सुनी जा सकती है। शब्द चयन और रूपक रचना कवित्व शक्ति की उपस्थिति का परिचय देने में समर्थ हैं।
चौथी रचना 'मेरे मरने...'(गौरव सोलंकी) में कवि कल्पना ने भविष्य की घटना के बहाने वर्तमान की विसंगतियों का अच्छा खुलासा किया है। प्रणय की तीव्रता भी अच्छी तरह उभरी है।
पाँचवीं रचना 'दीवाली की रात' (सजीव सारथी) में बोलचाल की भाषा के साथ उर्दू के छोटे-छोटे शब्दों के दीये काफ़ी मोहक हैं। रोशनी का पैगाम लेकर आने वाली रात की सच्ची सार्थकता सचमुच वहाँ चिरागों का कारवां लेकर जाने में है जहाँ ज़िंदगी की शमा बुझ रही है। कवि का सामजिक दायित्व बोध प्रशंसनीय है। निश्चय ही कवि कर्म एक दायित्व पूर्ण सामजिक कर्म है।
छठी रचना 'मंजिल' (विश्व दीपक 'तनहा') में आजीविकागत दबाव के कारण गाँव छोड़कर शहर जाने की विवशता तथा तज्जनित चोट और कचोट की मार्मिक अभिव्यक्ति वेधक बन पड़ी है। रिश्ते-नातों, लोक तत्वों और लोक भाषा के प्रति जागरूकता द्वारा गीत विधा को सचमुच मार्मिकता मिल जाती है।
सातवी रचना 'मैं मीडिया...'(निखिल आनंद गिरि) में विवरणात्मक शैली में उस अमानुषिक होते समसामयिक यथार्थ का दर्शन कराया गया है जिसका सूत्रधार दिनानुदिन संवेदनहीन होता जा रहा हमारा 'आज' है। मीडिया के चरित्र पर यह एक सटीक टिप्पणी है।
यह तो हुई कविताओं पर स्तंभकार की समीक्षा। अब तनिक सन्दर्भ बदल कर ,या कहें कि कुछ सन्दर्भहीन बात भी कर ली जाए । अर्थात सुधी पाठकों के विमर्श हेतु इस बार कवयित्री इंदु जोशी के कविता संग्रह 'धुप में नहाई देह गंध' के कुछ अंश उद्धृत हैं --
"तुम्हारी साँसों की महक ,
गंधमादन की संजीवनी बूटी की तरह है ,
जो मुझमें भर जाती है -
कुछ नया करने का उत्साह । ***
मुझे लगता है मैं बिछी हुई धरती की तरह ,
लेकिन तुम हवा भी हो , सूरज भी , बादल भी ,
जिसका साथ पाकर मैं हो उठती हूँ ,
हरी भरी , भरी पूरी । ***
मेरे प्रिय , मैं तुम्हें दूंगी अपना सर्वस्व ,
तुम मुझे मेरी स्वतंत्रता देना ।"
हाँ तो दोस्तो! आज इतना ही। वक्त ने इजाज़त दी तो फ़िर मिलेंगे।
प्यार बना रहे !
आपका
ऋषभदेव शर्मा
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8 कविताप्रेमियों का कहना है :
mere man me ek prashan he kii aap jinke samiksha karte hae unka chunav kis vidhi sae karte hae kya kewal hindi yugum kae members kii hii kavitoyon per samiksha hotee hae ? ye kewal ek prashan hen kyoki me aap ka colounm lagatar padhtee hun
mere man me ek prashan he kii aap jinke samiksha karte hae unka chunav kis vidhi sae karte hae kya kewal hindi yugum kae members kii hii kavitoyon per samiksha hotee hae ? ye kewal ek prashan hen kyoki me aap ka colounm lagatar padhtee hun
आपकी समीक्षाएं पढने का आनंद ही कुछ और है, ये युग्म का ऐसा स्तम्भ है जिसका बेसब्री से इंतज़ार रहता है, रचना जी हिंद युग्म पर , युग्म की कविताओं की ही तो समीक्षा होगी न ? फ़िर आपने ऐसा प्रश्न क्यों किया
रचनाजी और सारथीजी
स्तम्भ को पसंद कराने के लिए आभारी हूँ .
समीक्षार्थ रचनाएं प्रति सप्ताह शैलेश भारत्वासीजी मेल द्वारा उपलब्ध कराते हैं.
मैं उन्हीं पर संक्षिप्त सी चर्चा कर लेता हूँ , बस .
-ऋषभ देव शर्मा
हर बार की तरह खूबसूरत समीक्षा इंदु जी की खूबसूरत पंक्तियों के साथ !!
आदरणीय ऋषभ जी,
नये साहित्य-वाहकों को साप्ताहिक मार्गदर्शन, आलोचना, प्रसंशा रूपी ऊर्जा देने के लिए तो आपको आना ही पड़ेगा। आप नहीं लिखेंगे तो हिन्द-युग्म सूना-सूना हो जायेगा। आप लिखते हैं कि तनिक संदर्भ बदल लिया जाय। जबकि आप उसमें भी कुछ न कुछ इशारा कर रहे होते हैं। आपके अंदाज़ बहुत भाते हैं।
रचना जी,
ऋषभ जी प्रत्येक सप्ताह हिन्द-युग्म पर प्रकाशित सदस्य कवियों की कविताओं की समीक्षा करते हैं। आप भी प्रतियोगिता में भाग लिया कीजिए। आप भी सदस्य बन सकती हैं।
आदरणीय ऋषभ जी,
पुन: आभार इस स्तंभ के लिये जो कि युग्म के रचनाकारों के लिये आईना बन गया है।
*** राजीव रंजन प्रसाद
आदरणीय ऋषभ जी,
इतनी व्यस्तताओं के बाबजूद भी आप नियमय हिन्द-युग्म को अपना समय दे रहें है यह हमारे लिये सौभाग्य की बात है... आपकी समीक्षा का बेसबरी से इन्तजार रहता है...
समीक्षा के साथ साथ कुछ न कुछ नया पढने और सुनने को भी मिल जाता है
आभार सहित
मोहिन्दर
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