हम और तुम
सदैव एक दूसरे
की ओर आकर्षित
कभी तृप्त,कभी अतृप्त
कभी आकुल,कभी व्याकुल
किसी अनजानी कामना से
बढ़ते जा रहे हैं ----
सदैव एक दूसरे
की ओर आकर्षित
कभी तृप्त,कभी अतृप्त
कभी आकुल,कभी व्याकुल
किसी अनजानी कामना से
बढ़ते जा रहे हैं ----
मिल जाएँ तो विरक्त
ना मिल पाएँ तो अतृप्त
कभी रूष्ट, कभी सन्तुष्ट
कामनाओं के भँवर में
उलझते जा रहे हैं --
सामाजिक बन्धनों से त्रस्त
मर्यादा की दीवारों में कैद
सीमाओं से असन्तुष्ट
स्वयं से भी रूष्ट
दुःख पा रहे हैं --
निज से भी अनुत्तरित
विचारों से परिष्कृत
हृदय से उदार
भीतर से तार-तार
कहाँ जा रहे हैं ?
चलो चलें कहीं दूर
जहाँ हो उसका नूर
निःशेष हो हर कामना
कभी ना पड़े भागना
सारे द्वन्द्व जा रहे हैं-
मन वृन्दावन हो जाए
वो ही वो रह जाए
सारा संशय बह जाए
बस यही ध्वनि आए
सुःख आ रहे हैं --
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
16 कविताप्रेमियों का कहना है :
आदरणीय शोभा जी !
....जहाँ हो उसका नूर
निःशेष हो हर कामना
कभी ना पड़े भागना
............
मन वृन्दावन हो जाए
वो ही वो रह जाए
सारा संशय बह जाए
.....
बहुत संदर ...
आपकी टिप्पणियों के बाद ... आपकी रचनाओं की प्रतीक्षा करना भी सुखद ही है
चलो चलें कहीं दूर
जहाँ हो उसका नूर
निःशेष हो हर कामना
कभी ना पड़े भागना
सारे द्वन्द्व जा रहे हैं-
शोभा जी बेहद खूबसूरत है आपकी रचना ..मन की हलचल को बताती ,बहुत सुंदर गहरे भाव से रची यह रचना दिल को छु गई
बधाई आपको सुंदर रचना के लिए !!
शोभा जी,
सुन्दर रचना है..
सच में जो चीज सहज मिल जाती है हम उस का मोल नही जानते और जो खो जाती है उसके लिए तडफ़ते हैं.. ईश्वर से लग्न ही हर संशय मिटा सकती है बाकी तो सब उलझन ही है
बधाई
मिल जाएँ तो विरक्त
ना मिल पाएँ तो अतृप्त
कभी रूष्ट, कभी सन्तुष्ट
कामनाओं के भँवर में
उलझते जा रहे हैं --
शोभाजी, भावों के साथ साथ शब्द चयन भी बहुत
सुन्दर ! बधाई
एक एक शब्द दिल की गहराइयों में उतर गया... और दिल चाहने लगा ----
चलो चलें कहीं दूर
जहाँ हो उसका नूर
बहुत सुन्दर रचना !
मन वृन्दावन हो जाये.....
वाह! बहुत सुंदर रचना! बधाई स्वीकारें!
हम और तुम
सदैव एक दूसरे
की ओर आकर्षित
कभी तृप्त,कभी अतृप्त
कभी आकुल,कभी व्याकुल
किसी अनजानी कामना से
बहुत अच्छी शुरुवात है शोभा जी पर कविता आगे चलकर कुछ भटक सी गयी है
मन वृन्दावन हो जाए
वो ही वो रह जाए
सारा संशय बह जाए
बस यही ध्वनि आए
सुःख आ रहे हैं --
. सुंदर बना है.
अवनीश तिवारी
शोभा जी!!
बहुत अच्छी लगी आपकी यह रचना.....हम और तुम को बहुत ही अच्छा भाव दे कर प्रस्तूत किया है....
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निज से भी अनुत्तरित
विचारों से परिष्कृत
हृदय से उदार
भीतर से तार-तार
कहाँ जा रहे हैं ?
चलो चलें कहीं दूर
जहाँ हो उसका नूर
निःशेष हो हर कामना
कभी ना पड़े भागना
सारे द्वन्द्व जा रहे हैं-
मन वृन्दावन हो जाए
वो ही वो रह जाए
सारा संशय बह जाए
बस यही ध्वनि आए
सुःख आ रहे हैं --
शोभा जी,
बहुत प्यारी रचना!! हालांकि-
चलो चलें कहीं दूर
जहाँ हो उसका नूर
इससे मैं सैद्धांतिक रूप से सहमत नही हुँ। क्योंकि उसका नूर तो हर जगह है, कहीं दूर जाने की क्या जरूरत??? ... मन का वृंदावन हो जाना शुभ है।
एक पवित्र प्रेम का दर्शन कराने के लिए धन्यवाद शोभा जी।
मन वृन्दावन हो जाए
वो ही वो रह जाए
सारा संशय बह जाए
बस यही ध्वनि आए
सुःख आ रहे हैं --
बहुत हीं खूबसूरत। हिन्द-युग्म पर आपके हस्ताक्षर इसी तरह हमें लुभाते रहें, यही कामना करता हूँ।
-विश्व दीपक 'तन्हा'
क्षमा चाहूँगा शोभा जी लेकिन आध्यात्मिक कविताओं को मैं समझ नहीं पाता हूँ.
इसमें तो एक ही बात है कि कैसे तृप्त और अतृप्त हैं। एक ही भाव की बारम्बारता की आवश्यकता नहीं थी। बेवजह का विस्तार है। पहली कुछ पंक्तियाँ ही क्षणिका रूप में सारी बातें कह रही हैं।
निज से भी अनुत्तरित
विचारों से परिष्कृत
हृदय से उदार
भीतर से तार-तार
कहाँ जा रहे हैं ?
...यह पंक्तियां लाजवाब हैं।
शोभा जी hamesha se apke samiksha ka intajaar rahta था.आज कविता पढी अब दोगुना इन्तजार करवाएंगी आप.बहुत ही प्यारी कविता.
अलोक सिंह "साहिल"
Ham aur Tum ke advait par bahut achchi rachna hai. mri badhai sweekarein....Tanik isi kram mein meri isi sheershak wali kavita jo mere blog par hai use dekhiyega...maza ayega... mera pranam sweekaren.
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)