अरे... ! तुम कौन ?
कौन तुम
कवि अंकुर आधार
कौन तुम कृश काया
कृत गात
लिये हो अधरों पर नि:श्वास
नयन में
धूप छाँव सी प्यास
सजल जलदों का अभिनव भार
उनींदीं पलकों का संसार
कौन तुम
चंचल द्रुत दामिनी
कवि का अनुपम काव्याकाश
कौन तुम ..? कौन ..
कौन तुम अलकों का अटकाव
कौन तुम यौवन का भटकाव
हृदय आकुलता का ठहराव
काव्य सरिता का
यह प्रस्तार
तुम्हीं से हुआ
अरे ! क्यों मौन ?
अरे ! तुम कौन ?
अरे ! तुम कौन ?
कौन तुम
कवि अंकुर आधार
कौन तुम कृश काया
कृत गात
लिये हो अधरों पर नि:श्वास
नयन में
धूप छाँव सी प्यास
सजल जलदों का अभिनव भार
उनींदीं पलकों का संसार
कौन तुम
चंचल द्रुत दामिनी
कवि का अनुपम काव्याकाश
कौन तुम ..? कौन ..
कौन तुम अलकों का अटकाव
कौन तुम यौवन का भटकाव
हृदय आकुलता का ठहराव
काव्य सरिता का
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तुम्हीं से हुआ
अरे ! क्यों मौन ?
अरे ! तुम कौन ?
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25 कविताप्रेमियों का कहना है :
हृदय आकुलता का ठहराव
काव्य सरिता का
यह प्रस्तार
तुम्हीं से हुआ
अरे ! क्यों मौन ?
अरे ! तुम कौन ?
अरे ! तुम कौन ?
सुंदर लगी आपकी यह रचना श्रीकांत जी ...इसी कौन की तलाश कहाँ कहाँ ले जाती है ..बधाई सुंदर रचना के लिए !!
श्रीकांत जी,
एक अपरिचित से परिचय मांगती या स्वंय से ही एक प्रश्न करती हुई एक सुन्दर रचना.. जीवन में बहुत से प्रश्न अनुतरित रह जाते हैं..
बधाई
श्रीकांत जी,
आपने भाषा को सुन्दरता से पकड रखा है, साथ ही संस्कृतनिष्ठता में भी क्लिष्ठता से बचे हैं यह प्रसंशनीय है।
कौन तुम ..? कौन ..
कौन तुम अलकों का अटकाव
कौन तुम यौवन का भटकाव
हृदय आकुलता का ठहराव
काव्य सरिता का
यह प्रस्तार
तुम्हीं से हुआ
अरे ! क्यों मौन ?
अरे ! तुम कौन ?
अरे ! तुम कौन ?
बहुत बधाई।
*** राजीव रंजन प्रसाद
शुद्ध शैली की सुंदर रचना.
अवनीश तिवारी
श्रीकांत जी छायावाद की परम्परा को आप बचाए हुए हैं
बढिया!
कांत जी,
अरे... ! तुम कौन ?
कौन तुम
कवि अंकुर आधार
कौन तुम कृश काया
कृत गात
लिये हो अधरों पर नि:श्वास
नयन में
धूप छाँव सी प्यास
सजल जलदों का अभिनव भार
उनींदीं पलकों का संसार
कौन तुम
चंचल द्रुत दामिनी
कवि का अनुपम काव्याकाश
बहुत सुन्दर रचना, बधाई स्वीकारे..
कौन तुम ..? कौन ..
कौन तुम अलकों का अटकाव
कौन तुम यौवन का भटकाव
हृदय आकुलता का ठहराव
काव्य सरिता का
यह प्रस्तार
तुम्हीं से हुआ
अरे ! क्यों मौन ?
अरे ! तुम कौन ?
अरे ! तुम कौन ?
sundar prastuti hai aapki...keep writing
श्रीकान्त जी
‘कामायनी’ की पैरोडी के रूप में लिखी गई इस कविता के लिए पाद-टिप्पणी में यह लिखा जाना अच्छा रहता कि -- ‘कामायनी के अमुक भाग को पढ़कर, प्रभावित होकर ,प्रेरित होकर’ ---इत्यादि। अस्तु।
सुंदर....
श्रीकान्त जी
छायावादी शैली में लिखी भाव-पूर्ण रचना है ।
लिये हो अधरों पर नि:श्वास
नयन में
धूप छाँव सी प्यास
सजल जलदों का अभिनव भार
उनींदीं पलकों का संसार
कौन तुम
चंचल द्रुत दामिनी
कवि का अनुपम काव्याकाश
इस प्रकार के प्रश्न बहुत बार उठते हैं किन्तु उनको इतनी सुन्दर अभिव्यक्ति दे पाना हमेशा सम्भव नहीं होता ।
बधाई स्वीकर करें । कल्पना में यदि कोई है तो प्रश्न का उत्तर भी अवश्य मिलेगा ।
shrikant ji , pravah uttam aur shilp kasa hua hai .. utkrisht rachna
श्रीकांत जी,
छायावाद की सुन्दर अभिव्यक्ति के लिए साधुवाद।
अच्छी लगी।
कविता वाचक्नवी जी से भी सहमत हूँ।
कविता जी
प्रसाद की कामायनी मैने भी पढ़ी है और पढ़ते सार भाव साम्य मैने भी अनुभव किया किन्तु कल्पनाओं पर किसी का भी काधिकार नहीं होता । प्रसाद जी का भी नहीं है । बहुत बार बहुत कुछ मिलता सा लगता है किन्तु सब कुछ वही नहीं होता । मुझे याद आ रहा है कि कमलेश्वर जी को भी इस प्रकार के आरोप का सामना करना पड़ा था । जबकि उनकी कहानी तथा कथित पात्र के जन्म से पहले लिखी गई थी । माननीय श्रीकान्त जी की कविताओं को पढ़कर मैने एक बार लिखा भी था कि आपमें मुझे प्रसाद जी की छवि नज़र आती है । किन्तु उनकी कविता को पैरोडी कहना आपत्ति जनक है ।
"कौन तुम ?
संसृति- जलनिधि तीर-तरंगो से फेंकी मणि एक.
कर रहे निर्जन का चुपचाप प्रभा की धारा से अभिषेक?
मधुर विश्रांत और एकांत - जगत् का सुलझा हुआ रहस्य,
एक करुणामय सुन्दर मौन और चंचल मन का आलस्य!" ( श्रद्धा, कामायनी, ज.प्र. प्रसाद)
मैं भी kvachaknavee से ही सहमति हूँ। व्यक्त करत
"कौन तुम ?
संसृति- जलनिधि तीर-तरंगो से फेंकी मणि एक.
कर रहे निर्जन का चुपचाप प्रभा की धारा से अभिषेक?
मधुर विश्रांत और एकांत - जगत् का सुलझा हुआ रहस्य,
एक करुणामय सुन्दर मौन और चंचल मन का आलस्य!" ( श्रद्धा, कामायनी, ज.प्र. प्रसाद)
मैं भी kvachaknavee से ही सहमति हूँ। व्यक्त करत
मैं कविता जी से असहमति जताते हुए कहना चाहता हूँ कि दो अलग अलग कवि एक सोच भी रख सकते हैं और कई बार कुछ समान प्रतीत होने वाले शब्दों से कविता प्रभावित प्रतीत होती है। वस्तुस्थिति में इस रचना के साथ एसा नहीं है। कामायनी भी ले कर बैठा और इस रचना को भी बारम्बार पढा। भाषा और शैली तक भी विभिन्नता है। पैरोडी कह देना मुझे एतराज पूर्ण लगता है और पाठक को यह टिप्पणी करते हुए गंभीर तर्कों के साथ अवश्य प्रस्तुत हिना चाहिये। कवि की रचनाधर्मिता अकारण कटघरे में नहीं खडी की जानी चाहिये जब तक कि "आरोप" तथ्यपरक न हों। एनोनिमस महोदय का आभार कि उन्होनें कुछ पंक्तियाँ उद्धरित कीं किंतु श्रीकांत जी की कविता को साथ में रख कर पढता हूँ तो कुछ शब्दिक साम्य के अतिरिक्त एसा कुछ भी नहीं पाता कि इस रचना को विवादित किया जाये।
***राजीव रंजन प्रसाद
*** राजीव रंजन प्रसाद
मैं राजीव रंजन जी की बात से पूर्ण रूप से सहमत हूँ .अक्सर लिखते वक्त कई भाव एक से लगते हैं
इस लिए यूं इसको कहना उचित नही लगा ..पैरोडी लफ्ज़ सच में बहुत अजीब लगा श्रीकांत जी की रचना के साथ !!
कविता जी,
संसार में भाव सीमित हैं.. शब्द भी सीमित ही हैं.. सिर्फ़ कल्पना और शब्दों के संयोजन से ही कविता का जन्म होता है.. इसी कारण हर दस में से एक कविता ऐसी लगती है कि यह किसी न किसी से मिलती है.... इस बार शायद "कौन हो तुम" पढ कर यह भ्रम हुआ... दोनों रचनाओं कि शैली में कोई समानता नही है...
श्रीकान्त जी से भी कहना चाहूंगा कि टिप्पणी व्यक्ति विशेष का अपना मत भर है.. कोई फ़ाईनल बर्डिकट नहीं.... इस से आहत न हों
पैरोडी का अर्थ अगर अनुकरण से लिया जाए और अधिसंख्य पाठकों के इस कविता को छायावादी संस्कार की कविता मानने में निहित व्यंग्य को भी उतनी ही गंभीरता से लिया जाए तो साफ हो जायेगा कि प्रभाव या प्रेरणा को स्वीकार करने का सुझाव इतना भी नाजायज़ नहीं है कि यार लोग राशन पानी लेकर टिप्पणीकार की खोपडी पर चढ़ दौडें .माना कि असहमत होना सबका हक है पर यह क्या कि कोई ज़रा सा लीक से हटकर तन्कीद कर दे तो आप उसकी लानत-मलामत पर उतर आयें. किसी से प्रभावित होना या किसी का अनुकरण करना कोई दंडनीय अपराध नहीं है .पर अपनी आलोचना के प्रति किसी समूह के सदस्यों का असहिष्णु होना तथा गोलबंद होकर आलोचक पर पिल पड़ना कोई शुभ संकेत नहीं है.
काव्य सरिता का
यह प्रस्तार
तुम्हीं से हुआ
अरे ! क्यों मौन ?
अरे ! तुम कौन ?
अरे ! तुम कौन ?
कांत जी,
तत्सम शब्दों का बखूबी प्रयोग किया है आपने। इससे पता चलता है कि आपका शब्द-कोष कितना विस्तृत है। मुझे ऎसी रचनाएँ बहुत भाती हैं।
बधाई स्वीकारें।
-विश्व दीपक 'तन्हा'
रमन जी,
"लानत-मलामत" की तो कोई बात नज़र नहीं आती। न ही आलोचना के प्रति समूह के सदस्यों का असहिष्णु होने की। लोकतांत्रिक प्रक्रिया में सहमति और असहमति प्रकट करने का अधिकार ही कहा जाना सही शब्द है। मंच अपने आलोचकों का न केवल स्वागत करता है वरन आभारी भी है। आपकी निजी राय मंच पर आक्षेप तो है लेकिन असत्य है।
*** राजीव रंजन प्रसाद
तौबा-तौबा-तौबा!!!
मैं अपने सारे शब्द वापिस लेता हूँ. मैंने ख्याल ही नहीं किया था प्रभाव सम्बन्धी कमेंट के बाद के कमेंट्स का सुर सचमुच आलोचना के प्रति बेहद सहिष्णुता का सुर है. इस सहिष्णुता के नमूने पहेले भी पढने को मिलें हैं. जब किसी आमंत्रित समीक्षक की प्रेम-पूर्वक खाट खड़ी करने की कोशिश की गई थी. यह स्वस्थ आलोचना की परम्परा ही है की सारे हस्ताक्षर एक दूसरे की कमर प्रेम पूर्वक खुजाते रहते हैं - वाह!वाह! क्या ध्वनि है. मैं कबूल करता हूँ कि यहाँ एक भी हस्ताक्षर आत्म-मुग्ध नहीं है और सच्चाई का खुलकर सभी स्वागत करते हैं मैं क्या करूं न तो कवि हूँ, न लेखक, न आलोचक. अदना सा रीडर भर ही तो हूँ. रीडर की भला क्या औकाद कि सब कंठों से निकल रही एक जैसी ध्वनि को समवेत स्वर कह सके. जब सलाहकारों की ही सलाह पर मट्टी डालने की कोशिश की जा रही हो तो भला मैं बेचारा रीडर किस खेत की मुली हूँ.
एक बात बातों, बुरी तो लग सकती है पर सच्ची बात सद्दुला कहे, सबके मन से उतरा रहे. तारीफ़ नहीं तन्कीद से फनकार के फन में निखार आता है. यह रिवाज़ भी लिटरेरी हलकों में आम है कि जिस कलमकार को मटियामेट करना हो उसे खूब फूँक भर के ऊपर हवा में उड़ा देना चाहिए-कई कमेंट रचनाकार के साथ यही कुछ करते से भी लगते हहैं. कलमकार को ऐसे कसिदों से बचना चाहिए.
नाहक आदतन ज्यादा बोल आया हूँ. एडवांस में कान पकड़कर माफ़ी मांगता हूँ. बेचारे रीडर की वाट मत लगाइयेगा प्लीस
दस्तकों पर
पलट कर बोले न तो
फिर कौन की कविता...
चलो झक मारते हैं।
श्रीकांत जी,
हर कवि को अपनी शैली विकसित करनी चाहिए। शुरूआती लेखन में बहुतायत किसी से प्रभावित होना स्वभाविक माना जाता है, लेकिन जल्द ही अपनी खास शैली विकसित हो जानी चाहिए। ताकि कोई पहली पंक्ति पढकर ही बोल दे "यार यह तो अमुक की कविता है"। अभी आप अपनी शैली नहीं विकसित कर पाये हैं, यह हर बार कहता आया हूँ।
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