दोस्तो,
आज बात करते हैं तीसरे पायदान या दूसरे पायदान की कविता की (चूँकि दूसरे स्थान का पुरस्कार कल रद्द हो चुका है)। दूसरे स्थान के कवि तपन शर्मा हिन्द-युग्म की यूनिकवि एवम् यूनिपाठक प्रतियोगिता में कई बार भाग लेते रहे हैं। एक और बार इनकी हास्य कविता ऑक्सीजन का सिलिंडर टॉप १० में थी और हिन्द-युग्म पर प्रकाशित हुई थी, लोगों ने खूब सराहा भी था। आज इन्हीं की एक कविता "मैं अब तक क्यों मौन हूँ?" की बात होगी।
नामः तपन शर्मा
जन्मः ०२ अक्टूबर १९८२, दिल्ली।
शिक्षाः बी.टेक ( साफ्टवेयर इंजीनियरिंग)
परिवार में: पिता पत्रकारिता में, माँ गृहणी और एक छोटी बहन।
बचपन से ही हिंदी के प्रति लगाव रहा। नवीं कक्षा में हिंदी की जगह संस्कृत चुनी थी। इसीलिये हिंदी की कवितायें ज्यादा नहीं पढ़ पाये। स्कूल-कालेज में २-३ बार लेख छपे पर कविता कभी लिखे तक नहीं थे। ११वीं में विज्ञान के क्षेत्र में कदम रखा। पेशे से साफ्टवेयर इंजीनियर पर दो वर्ष पहले अचानक से कविताओं का शौक जगा। शायद पिता के पत्रकार होने का फायदा मिला। घर में सभी को साहित्य में रुचि है तो उनसे कैसे अलग रह पाते? घर में पहले से ही कितने उपन्यास रखे हैं ये इन्हें साल भर पहले पता चला। अब उपन्यास, कहानी, कविताओं को पढ़ना लिखना शुरू किया हैं तो लगता नहीं कि ये आदत छूटेगी। चाहते भी नहीं। अब तो कम्प्यूटर के आगे बैठ कर साफ्टवेयर बनाने से अच्छा कवितायें, कहानियाँ पढ़ना लगता है (जानता हैं नौकरी के लिये खतरनाक है)। और अब तो हिन्द-युग्म मिल गया है तो ये बीमारी केवल बढ़ सकती है।
शौक: साहित्य, संगीत (विशेषकर पुराने गाने)।
ब्लाग : http://tapansharma.blogspot.com
पता- सी-१५९, ऋषि नगर, रानी बाग, दिल्ली-११००३४
पुरस्कृत कविता- मैं अब तक क्यों मौन हूँ?
अँधा वो नहीं,
जो चलने के लिये,
डंडे का सहारा ले,
अँधा तो वो है,
जो अत्याचार होते देखे,
और आँखें फिरा ले।
बहरा वो नहीं,
जिसको सुनाने के लिये,
ऊँचा बोलना पड़ता है,
बहरा वो है,
जो कानों में रूई ठूँस कर,
इंसाफ किया करता है।
गूँगा वो नहीं,
जिसके मुँह में ज़ुबान नहीं,
गूँगे वो हैं,
जो चुप रहते हैं जब तक,
रुपया उन पर मेहरबान नहीं।
यहाँ अँधे, गूँगे बहरों की,
फ़ौज दिखाई देती है,
यहाँ मासूम खून से तरबतर,
मौजें दिखाई देती हैं।
खूब सियासत होती है,
लोगों के जज़्बातों पर,
जश्न मनाया जाता है,
यहाँ ज़िंदा हज़ारों लाशों पर।
यहाँ धमाके होने चाहिये
ताकि खाना हजम हो सके,
मौत का तांडव न हो तो,
चेहरे पर रौनक कैसे आ सके।
यहाँ बगैर लाल रंग के,
हर दिन बेबुनियाद है,
लाशों को ४७, ८४, ०२ की,
काली तारीखें याद हैं।
कोई पूछे उन अँधों से,
कैसे देखा करते हो बलात्कार,
कोई पूछे उन बहरों से,
कैसे सुन लेते हो चीत्कार,
कोई पूछे उन गूँगों से,
क्यों मचाया है हाहाकार।
मुझसे मत पूछना,
इन सवालों को,
मुझे नहीं पता मैं अँधा हूँ,
बहरा हूँ, गूँगा हूँ या कौन हूँ?
हद है!
हर सवाल पर,
मैं अब तक क्यों मौन हूँ??
जजों की दृष्टि-
प्रथम चरण के ज़ज़मेंट में मिले अंक- ६, ८॰२५, ७॰२
औसत अंक- ७॰१५
स्थान- छठवाँ
द्वितीय चरण के ज़ज़मेंट में मिले अंक- ५, ७॰२
औसत अंक- ६॰१०
स्थान- नौवाँ
तृतीय चरण के ज़ज़ की टिप्पणी- रचना अच्छी लगी। अतिरिक्त गद्यात्मकता को कहीं-कहीं बचाया जा सकता था। व्यापक संलग्नता के बावजूद कविता के आदि व अंत में जो अंत:सम्बन्ध है, वह प्रशंसनीय है।
अंक- ६॰३
स्थान- दूसरा
अंतिम ज़ज़ की टिप्पणी-
कवि संवेदनशील है और आज के हालात से व्यथित, यह बात तो कविता स्थापित कर रही है। अकर्मण्यता और अंधे, बहरे गूंगे जैसे बिम्ब कविता में अच्छा प्रयोग बन पड़े हैं। बीच में कविता थोड़ी कमजोर हुई है किंतु स्वयं से यह प्रश्न हर किसी के बस में नहीं- “मैं अब तक क्यों मौन हूँ??” यही कविता का सबसे सशक्त पहलू है।
कला पक्ष: ७/१०
भाव पक्ष: ७॰५/१०
कुल योग: १४॰५/२०
पुरस्कार- डॉ॰ कविता वाचक्नवी की काव्य-पुस्तक 'मैं चल तो दूँ' की स्वहस्ताक्षरित प्रति
चित्र- उपर्युक्त चित्र को चित्रकार तपेश महेश्वरी ने बनाया है।
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17 कविताप्रेमियों का कहना है :
मुझसे मत पूछना,
इन सवालों को,
मुझे नहीं पता मैं अँधा हूँ,
बहरा हूँ, गूँगा हूँ या कौन हूँ?
हद है!
हर सवाल पर,
मैं अब तक क्यों मौन हूँ??
जबरदस्त प्रस्तुति तपन जी, बधाई स्वीकारें|
*** राजीव रंजन प्रसाद
संवेदनशील रचना है, हास्य के बाद जबरदस्त प्रयास है अगली कविता की प्रतीक्षा रहेगी
यहाँ बगैर लाल रंग के,
........
काली तारीखें याद हैं।
कोई पूछे उन अँधों से,
.........बलात्कार,
कोई पूछे उन बहरों से,
कैसे सुन लेते हो चीत्कार,
........
क्यों मचाया है हाहाकार।
........हद है!
हर सवाल पर,
मैं अब तक क्यों मौन हूँ?
संवेदनशील प्रयास
शुभकामनायें
युवाकवि अपने परिवेश के प्रति संवेदनशील है, जो शुभ है।
मुझसे मत पूछना,
इन सवालों को,
मुझे नहीं पता मैं अँधा हूँ,
बहरा हूँ, गूँगा हूँ या कौन हूँ?
हद है!
हर सवाल पर,
मैं अब तक क्यों मौन हूँ??
तपन जी सचमुच तपन महसूस हो रही है आपकी कविता पढकर...
बहुत बहुत बधाई
यहाँ बगैर लाल रंग के,
हर दिन बेबुनियाद है,
लाशों को ४७, ८४, ०२ की,
काली तारीखें याद हैं।
ये चार पन्तियाँ ही काफ़ी हैं कवि के उद्देश्य और परिचय के लिए...... फ़िर भी तपन भाई मैं आपको बधाई या बडाई का पात्र समझने के बजाये ज्यादा आशा वादी नज़र से देख रहा हूँ ताकि आपकी बेचैनियां शब्दों के माध्यम से सही अर्थों का संप्रेषण यूँ ही करवा पाने में सक्षम हों .
बेहतरीन प्रस्तुति।
एक कविता मे सभी दर्दों को समेटने का सराहनीय प्रयास ।
"मुझे नहीं पता मैं अँधा हूँ,बहरा हूँ, गूँगा हूँ या कौन हूँ?
हद है! हर सवाल पर,मैं अब तक क्यों मौन हूँ?? "
अंत ने भाव-विभोर कर दिया । वैसे जब शुरुआत हूई, तो कविता का एक खाका तैयार हो गया था, पर रचना तो उससे भी बढकर लगी, और जिस प्रकार से अंत को आरम्भ किया, तो मोहित होना स्वाभाविक था ।
कविता की व्यापकता विशेष रुप से पसन्द आई ।
तपन जी के बारे में पढकर भी अच्छा लगा ।
साभार,
आर्यमनु, उदयपुर ।
तपन जी
आपने बहुत सुन्दर कविता लिखी है ।
यहाँ धमाके होने चाहिये
ताकि खाना हजम हो सके,
मौत का तांडव न हो तो,
चेहरे पर रौनक कैसे आ सके।
यहाँ बगैर लाल रंग के,
हर दिन बेबुनियाद है,
लाशों को ४७, ८४, ०२ की,
काली तारीखें याद हैं।
कोई पूछे उन अँधों से,
कैसे देखा करते हो बलात्कार,
कोई पूछे उन बहरों से,
आज समाज की यही स्थिति है । हर कोई गूँगा और बहरा है । एक अच्छी सोच देने के लिए बधाई ।
यहाँ कवि ने जो लिखा है वह् बिल्कुल पहले स्तर का ऑब्ज़र्वेशन है. कवि जैसे-जैसे आंतरिक स्तरों तक पहुँचता जाएगा कविता का विकास होता जाएगा.
तपन जी,
बहुत सुन्दर!
यहाँ बगैर लाल रंग के,
हर दिन बेबुनियाद है,
लाशों को ४७, ८४, ०२ की,
काली तारीखें याद हैं।
******
मुझसे मत पूछना,
इन सवालों को,
मुझे नहीं पता मैं अँधा हूँ,
बहरा हूँ, गूँगा हूँ या कौन हूँ?
हद है!
हर सवाल पर,
मैं अब तक क्यों मौन हूँ??
विषय चयन एवं प्रस्तुति दोनो प्रसंशनीय है।
खूब सियासत होती है,
लोगों के जज़्बातों पर,
जश्न मनाया जाता है,
यहाँ ज़िंदा हज़ारों लाशों पर।
तपन जी, मुबारक हो आपको की आपकी कविता को द्वितीय स्थान मिला..कविता सचमुच रचनात्मक है जो आज के हालत को दर्शाती है ...
मुझसे मत पूछना,
इन सवालों को,
मुझे नहीं पता मैं अँधा हूँ,
बहरा हूँ, गूँगा हूँ या कौन हूँ?
हद है!
हर सवाल पर,
मैं अब तक क्यों मौन हूँ??
bahut hi jabardast abhivyakti
मुझे नहीं पता मैं अँधा हूँ,
बहरा हूँ, गूँगा हूँ या कौन हूँ?
हद है!
हर सवाल पर,
मैं अब तक क्यों मौन हूँ??
तपन जी,
हिन्द-युग्म पर आपकी बहुत हीं जबर्दस्त प्रस्तुति है यह रचना।
इस कविता में उठाए गए सारे सवाल जायज हैं। सारी बातें सच्ची हैं। इसलिए हमें इस माहौल के जाल को तोड़ने के लिए कुछ न कुछ कदम उठाना होगा।
तपेश जी को सुंदर चित्र बनाने के लिए बधाई।
-विश्व दीपक 'तन्हा'
आप कवि बनते जा रहे हैं। बधाइयाँ।
तपेश जी,
चित्रकार के रूप में आपमें बहुत संभावनाएँ हैं। बहुत मुश्किल होता है दूसरी की कविताओं को १००% समझना, लेकिन आप समझते ही नहीं रंग भी भरते हैं। हमें खुशी है कि हमें आपका साथ मिला है।
''दशरथ के घर राम भये
राधिका के घनश्याम भये
दिन दशहरा, दीवाली हर शाम भये
खुशियों भरी आपकी उम्र तमाम रहे''
तपन जी,
लाजवाब रचना है...बहुत ही जबर्दस्त रचना है....
शब्दों को बहुत ही खुब्सूरती से पिरोया है...कहीं कोई कमी मह्सूस नही हो रही है...बहुत ही परिपक्व है...
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यहाँ बगैर लाल रंग के,
हर दिन बेबुनियाद है,
लाशों को ४७, ८४, ०२ की,
काली तारीखें याद हैं।
कोई पूछे उन अँधों से,
कैसे देखा करते हो बलात्कार,
मुझसे मत पूछना,
इन सवालों को,
मुझे नहीं पता मैं अँधा हूँ,
बहरा हूँ, गूँगा हूँ या कौन हूँ?
हद है!
हर सवाल पर,
मैं अब तक क्यों मौन हूँ??
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बहुत-बहुत शुभकाम्नायें!!!!
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)