तुम ….
हाँ तुम ही तो हो,
मेरी स्मृतियों में.
चले थे कभी
उंगली पकड़कर
छोटे-छोटे कदमों से,
लड़खड़ाये और गिरे
कई-कई बार ….
याद है मुझे आज भी.
उन मासूम आँखों का
मेरी तरफ ताकना,
बढ़े हुये वो नन्हें हाथ,
पकड़ने को मेरी उंगली
लगाते हुये जोर
और …….
फिर उठकर खड़े होना
आज भी याद है मुझे
याद है मुझे आज भी.
तुम्हारा ……
वो मासूम स्पर्श,
कशमशाते थे तुम
मेरे सीने में,
भींचा जब भी मैंनें,
रखे छोटे से दोनों हाथ
और ….
बचने की वो नाकाम कोशिश,
मेरी मूंछों से
आज भी याद है मुझे.
ताकती हैं निगाहें
लड़ख़ड़ाते हैं मेरे कदम
तब से ….
उठा है मेरा हाथ
पाने को सहारा,
ठहर गया है समय
झटका है तुमने हाथ
जब से….
और मैं खो गया हूँ
अंधेरी वादियों में
सूझता नहीं है कोई रास्ता
मालूम नहीं मुझे
होगी भी सहर इस रात की
फिर भी उम्मीद का दिया
जला रखा है मैंने
लौटोगे तुम उसी जगह फिर
झटका था मुझे
जिस जगह एक दिन
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15 कविताप्रेमियों का कहना है :
श्रीकांत जी,
बचपन को सहारा देने और बुढापे का सहारा छिनने का सजीव चित्रण किया है आपने..
हाथ झटकने वाले अक्सर नहीं लौटते... और लौट भी आयें तो वो पहले सी बात नहीं रहती..
श्रीकांत जी,
कविता स्त्ब्ध कर देती है| मन में एक चुप और एसा बोझ भर देती है कि टीस उठती है| झटके जाने का त्रास और फिर भी आशा का दिया....अनुपम कविता|
फिर भी उम्मीद का दिया
जला रखा है मैंने
लौटोगे तुम उसी जगह फिर
झटका था मुझे
जिस जगह एक दिन
*** राजीव रंजन प्रसाद
फिर भी उम्मीद का दिया
जला रखा है मैंनेलौटोगे तुम उसी जगह फिर
झटका था मुझे
जिस जगह एक दिन
हमेशा की तरह बहुत ही सुंदर लिखा है आपने उम्मीद का दीप यूं ही जलता रहता है और ज़िंदगी यूं ही आगे -आगे चलती रहती है ...बहुत ही गहरे भाव से रची आपकी यह रचना बहुत पसंद आई
शुभकामनाएं
रंजू
एक बेबस पिता की पीड़ा और आस को अच्छी तरह से कहा है.
कविता सरल और सटीक बनी है. समझाने मी आसानी होती है.
बधाई
अवनीश तिवारी
ठीक कविता है.
श्रीकान्त जी
सुन्दर कविता है । इस कविता में वात्सल्य तो साकार हुआ ही है एक पिता का मोह भी उजागर होता है ।
बच्चों के साथ जिया हुआ हर पल माता-पिता की आखों में हमेशा रहता है । उन अनुभूतियों को अच्छी
अभिव्यक्ति दी है आपने किन्तु यह स्नेह मोह सा क्यों दिख रहा है ।
पंख निकलने पर पक्षी भी उड़ जाते हैं । यह शाश्वत सत्य है इसे तो स्वीकार करना ही होगा । छोड़ दीजिए
प्रतीक्षा और कर दीजिए मुक्त उस पीड़ा से स्वयं को ।
कविता सचमुच सुन्दर है और इसने दिल को छुआ भी है । बधाई स्वीकरें ।
मर्मस्पर्शी........ कटु सत्य सी......
श्रीकांत जी,
मार्मिक कविता!! और सबसे अच्ची बात की आपने अभी भी उम्मीद को जिन्दा रखा है। शोभा जी की बात से सहमत हुँ....
लौटोगे तुम उसी जगह फिर
पुराने का मोह जब प्रबल हो जाता है तो नए हाथ सहार देने को आएँ भी तो दीख नही पाते। और पुराने का उसी पुराने रूप मे लौटने का कोई उपाय नही। हाँ अगर उम्मीद का दिया जलता रहे तो और मोह हावी न हो तो बात और है....तब तो हर हाथ उसी का हाथ है।
मर्मस्पर्शी, निशब्द हो जाते है शब्द जब -
फिर भी उम्मीद का दिया
जला रखा है मैंने
लौटोगे तुम उसी जगह फिर
झटका था मुझे
जिस जगह एक दिन
आशावादी सुन्दर कविता के लिये बधाई स्वीकारें
फिर भी उम्मीद का दिया
जला रखा है मैंने
लौटोगे तुम उसी जगह फिर
झटका था मुझे
जिस जगह एक दिन
कांत जी,
आपकी रचना को पढकर दिल में एक टीस-सी उठी। बचपन के प्यार और उन पर टिकी उम्मीदों का बुढापे में लहु-लुहान होना, अंदर तक झकझोरता है।
हृदय में जज्बात जगाती इस रचना के लिए बधाई स्वीकारें।
-विश्व दीपक 'तन्हा'
आपकी कहानी को इस कविता से जोड़ा जाय (जो शायद आपने फ़ोन पर बताया था), तब आँखें नम हो जाती है। लेकिन उसके अभाव में एक रहस्यवादी कविता बन जाती है।
मै स्वयं भी समझ नहीं पाया कि आपकी यह टिप्पणी कविता पर है या फिर कहानी पर हमने दूरभाष पर राष्ट्रीय एवं सामाजिक संदर्भ से लेकर गांव शहर तथा मेरे अपने अनेकों अनुभवों पर चर्चा की है अतः मुझे नही स्मरण कि आप फोन पर हुयी मेरी किस बात का उल्लेख कर रहे हैं
जहां तक मेरे अथवा किसी भी अन्य के साहित्य का प्रश्न है प्रत्येक रचना रचनाकार के हृदय की गहन अंतरतम कोर से ही निकलती है वह चाहे किसी विषय वस्तु की तटस्थ होकर संग्यान में आयी हुयी घटना हो अथवा निज का भोगा अनुभव कवि का संवेदनशील हृदय सदैव उस पीड़ा को भोगता ही है भले ही उसे दूसरों से तालियां मिलें अथवा उपेक्षा
इसीलिये भोगा हुआ ही साहित्य की कसौटी पर खरा उतरता है चाहे वह सापेक्ष हो अथवा निरपेक्ष
वाह श्रिकांत जी....
एक और सुन्दर रचना....बधाई हो!!
बहुत ही सटिक शीर्षक दिया है...
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उन मासूम आँखों का
मेरी तरफ ताकना,
बढ़े हुये वो नन्हें हाथ,
पकड़ने को मेरी उंगली
लगाते हुये जोर
और …….
फिर उठकर खड़े होना
आज भी याद है मुझे
फिर भी उम्मीद का दिया
जला रखा है मैंने
लौटोगे तुम उसी जगह फिर
झटका था मुझे
जिस जगह एक दिन
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आदरणीय श्रीकांत जी !
आप मेरे पिता के समान है, मैंने पहली बार कोई इतनी अच्छी कविता पढी है, जो मेरे दिल को छू गयी. एक अत्यन्त ही खूबसूरत रचना जो आज के समाज की असलियत दर्शाती है. ये कविता आज के मतलबी समाज के ऊपर बहुत ही करारा व्यंग्य करती है. आज के ये मतलबी लोग एक बार भी ये नही सोचते की ये वही माँ बाप है, जिन्होंने उन्हें जन्म दिया है और अपनी छोटी से छोटी से छोटी खुसी को मार कर उनकी हर खुसी पुरी की है और जब उनकी बारी आती है, तो वो ये बड़ी आसानी से कह देते है की ये हर माँ बाप का फ़र्ज़ होता है, तो फिर उनका क्या फ़र्ज़ है? क्या उनका माँ बाप के लिए कोई फ़र्ज़ नही बनता?
मैं १० मैं पढ़ती हूँ और मैं उम्मीद रखती हूँ की मेरी पीढ़ी अपने माँ बाप का सम्मान करे और उनके होने का महत्व समझे और ये महत्व क्या है वो उनसे पूछे जिनके माँ बाप नही है, उनसे ज्यादा इसका मतलब और कोई नही समझ सकता है. मैं बस अब इतना ही कहूँगी की आपने एक बहुत ही सुंदर कविता लिखी है और उसके लिए आपको ढेर सारी शुभकामनाएं.
धन्यवाद
अपराजिता
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