मैं हर कहे शब्द को लेख से जोड़ना चाहता हूँ
मैं आश्वासनों को आरोप से जोडना चाहता हूँ
जो धारायें सघन घाटियों की ओर बह रही हैं
उन्हें मरुस्थलों की तरफ़ मोड़ना चाहता हूँ
जो उसके व मेरे धर्म के बीच आ खड़ी है
जो दिखती नहीं मगर बांटती हर घड़ी हैं
जो हर दिल में इक फ़ांस बन चुभ रही है
वह उलझन हटा इक सुकूं ओढ़ना चाहता हूँ
हर संशय को न पालो दिल में इस तरह से
हर डर को न बांधो कस कर अपनी गिरह से
कहीं परछाईं ही भूत बन कर न डराने लगे
मैं हर एक जाला, हर भरम तोड़ना चाहता हूँ
जो खिल कर बिखेरे खुशबू हर किसी के लिये
जो जल कर बिखेरे रोशनी हर किसी के लिये
मैं एक ऐसी शम्मा जला कर
मैं एक ऐसा गुलशन खिला कर
हर आम रहगुजर के लिये छोड़ना चाहता हूँ
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
13 कविताप्रेमियों का कहना है :
जो धारायें सघन घाटियों की ओर बह रही हैं
उन्हें मरूस्थलों की तरफ़ मोडना चाहता हूं
जो उसके व मेरे धर्म के बीच आ खडी है
जो दिखती नहीं मगर बांटती हर घडी है
जो खिल कर बिखेरे खुशबू हर किसी के लिये
जो जल कर बिखेरे रोशनी हर किसी के लिये
मैं एक ऐसी शम्मा जला कर
मैं एक ऐसा गुलशन खिला कर
हर आम रहगुजर के लिये छोडना चाहता हूं
आपकी परिचित शैली में अच्छी रचना।
*** राजीव रंजन प्रसाद
बढिया है!
मोहिन्दर हमेशा की तरह गहरा और पैना लिखा है । बधाई स्वीकार करें ।
कविता के माध्यम से उठाए सवाल विचरणीय हैं ।
संजय गुलाटी मुसाफिर
बहुत खूब.
लेकिन आखिरी छ्न्द मे ५ पन्क्तियां आ गयी है जो और सब से अलग लग रही है.
बाकी अर्थ बेजोद है.
अवनीश तिवारी
मोहिंदर जी
बहुत खूब बहुत सुन्दर विचार आप लेकर आये हैं अपनी इस रचना में
बहुत सुन्दर
बधाई स्वीकार करें
जो खिल कर बिखेरे खुशबू हर किसी के लिये
जो जल कर बिखेरे रोशनी हर किसी के लिये
मैं एक ऐसी शम्मा जला कर
मैं एक ऐसा गुलशन खिला कर
हर आम रहगुजर के लिये छोडना चाहता हूं
वाह......
मोहिन्दर जी,
जो धारायें सघन घाटियों की ओर बह रही हैं
उन्हें मरूस्थलों की तरफ़ मोडना चाहता हूं
जो उसके व मेरे धर्म के बीच आ खडी है
जो दिखती नहीं मगर बांटती हर घडी है
बहुत अच्छा लिखा है,
अच्छी सोच को कव्यगत करने के लिये बधाई
मोहिन्दर जी
आप व्यवस्था से विद्रोह क्यों करना चाहते हैं ? यह सृष्टि ऐसे ही चल रही है । हम कितना भी चाहें कुछ नहीं बदलेगा ।इसी में जीने की आदत डाल लो ।वैसे कल्पना में यह सब आता जरूर है ।
हर संशय को न पालो दिल में इस तरह से
हर डर को न बांधो कस कर अपनी गिरह से
कहीं परछाईं ही भूत बन कर न डराने लगे
मैं हर एक जाला, हर भरम तोड़ना चाहता हूँ
शुभकामनाएँ स्वीकार करें ।
जो धारायें सघन घाटियों की ओर बह रही हैं
उन्हें मरुस्थलों की तरफ़ मोड़ना चाहता हूँ
बहुत सुंदर! बधाई स्वीकारें!
जो खिल कर बिखेरे खुशबू हर किसी के लिये
जो जल कर बिखेरे रोशनी हर किसी के लिये
मैं एक ऐसी शम्मा जला कर
मैं एक ऐसा गुलशन खिला कर
हर आम रहगुजर के लिये छोड़ना चाहता हूँ
bahut sundar bhaav
जो खिल कर बिखेरे खुशबू हर किसी के लिये
जो जल कर बिखेरे रोशनी हर किसी के लिये
मैं एक ऐसी शम्मा जला कर
मैं एक ऐसा गुलशन खिला कर
हर आम रहगुजर के लिये छोड़ना चाहता हूँ
मोहिंदर जी,
अच्छी ख्वाहिशें हैं। उम्मीद करता हूँ कि आपके ख्वाब कभी हकीकत बनेंगे।
-विश्व दीपक 'तन्हा'
ईश्वर करे कि आपकी मनोकामना पूरी हो।
इस बार आपकी कविता बहुत पसंद आई।
जो खिल कर बिखेरे खुशबू हर किसी के लिये
जो जल कर बिखेरे रोशनी हर किसी के लिये
मैं एक ऐसी शम्मा जला कर
मैं एक ऐसा गुलशन खिला कर
हर आम रहगुजर के लिये छोड़ना चाहता हूँ
बहुत सुंदर मोहिंदर जी ....बधाई आपको सुंदर रचना के लिए
मोहिंदर जी,
बहुत सुन्दर ..
बधाई स्वीकार करें
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