एक बस्ता लिये
एक बोतल लिये
राह में तितलियों की तरह डोलती
बोलती तो हवा मिस्रियाँ घोलती
पैर में पंख थे, मन में जुगनू जले
वह कली/ अधखिली
खेलती/कूदती/झूलती
स्कूल चली...
शाम आयी मगर घर वो आयी नहीं
और आयी तो हर आँख पत्थर हुए
एक चादर कफन बन के फन खोल कर
पूछता था धरा डोलती क्यों नहीं?
वह पिता था जो परबत लिये आ रहा
और माँ ढह गयी
लाडली उठ मेरी, बोलती क्यों नहीं?
‘बलिहारी गुरु आपनों’
हे गोविन्द!! यह क्या बताया?
मसल कर मारी गयी यह मासूम
जबरन फटी हुई आँखे बंद किये जाने से पहले तक
तुमसे यही सवाल दागती रही थी
....और उसकी अंतिम यात्रा
सवालों का दावानल हो, आक्रांता है
कोई कंदरा तलाश लो
कि आत्मा, परमात्मा से प्रश्न लिये आती है
गीता में तुमने ही कहा है
मेरे चाहे बगैर एक पत्ता भी नहीं हिलता
धिक्कार!! यह क्या चाहा तुमने?
कुत्तों, सियारों, भेडियों को कौन अध्यापक बनाता है?
कुकुरमुत्तों से हर छत के नीचे
क्यों उग आते हैं स्कूल?
सरकार अपने होठों पर लाली लगाये
कौन सी फैशन परेड में है?
थू, यह समाज है
जिसे अपनी नपुंसकता शर्मिंदा नहीं करती।
पैसे ही फेंक कर गर
अच्छी हुई पढ़ाई
तो कल से आँख मूंदो
हर कुछ तबाह होगा
काजल की कोठरी से कब तक निबाह होगा?
कुतिया जनेगी कुत्ते और सर्पिणी सफोले
साबुन लगा के कौवा ना हंस हो सकेगा
स्कूल हैं बाजार, विद्या का कैसा मंदिर?
तो किस लिये दरिंदे टीचर न बनें आखिर?
*** राजीव रंजन प्रसाद
26.10.2007
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15 कविताप्रेमियों का कहना है :
राजीव जी,
इस बार मेरी टिप्पणी का अन्दाज अलग है... आप कवि हैं जरूर इशारा समझ लेंगे
ये सच है सांप के काटे दुनिया में कम नहीं हैं
मगर फ़ूल गुलशन में अब भी खिलते कम नहीं हैं
अगली बार एक प्रेमरस की कविता हो जाये :)
मोहिन्दर जी,
इशारा तो समझा लेकिन इस कलम का क्या करूं? यह फिल्मी गीत रट रखा है "और भी गम है जमाने में मुहब्बत के सिवाय......"
सादर।
*** राजीव रंजन प्रसाद
कमाल कमाल कमाल ....कमाल लिखा है आप ने राजीव जी
मन को भेदती हुई गई है आप की ये रचना
बहुत खूब
अब और क्या कहूं
आप से मुझ जैसे नए कवियों को बहुत कुछ सीखने को मिलेगा
बहुत खूब
बधाई स्वीकार करे
एक बस्ता लिये
एक बोतल लिये
राह में तितलियों की तरह डोलती
बोलती तो हवा मिस्रियाँ घोलती
पैर में पंख थे, मन में जुगनू जले
वह कली/ अधखिली
खेलती/कूदती/झूलती
स्कूल चली...
शाम आयी मगर घर वो आयी नहीं
और आयी तो हर आँख पत्थर हुए
एक चादर कफन बन के फन खोल कर
पूछता था धरा डोलती क्यों नहीं?
वह पिता था जो परबत लिये आ रहा
और माँ ढह गयी
लाडली उठ मेरी, बोलती क्यों नहीं?
राजीव जी,
बहुत अच्छी, आँखें नम कर देने वाली रचना है..
लाडली उठ मेरी, बोलती क्यों नहीं? तक कवित्व एवम भाव दोनो प्रबल हैं मगर इससे नीचे कवित्व क्षीण सा होता चला गया है और शैली गध्यात्मक होती चली गयी है मगर भाव प्रबलता बढती गयी है..
उत्कृष्ट रचने के लिये बधाई
राजीव जी
आप कविता में वैचारिकता अधिक ला रहे हैं । विषय अच्छा लिया है । निभाया भी खूब है । अन्त में
कुछ बोझिलता आ गई है ।
आ
कुत्तों, सियारों, भेडियों को कौन अध्यापक बनाता है?
कुकुरमुत्तों से हर छत के नीचे
क्यों उग आते हैं स्कूल?
सरकार अपने होठों पर लाली लगाये
कौन सी फैशन परेड में है?
थू, यह समाज है
जिसे अपनी नपुंसकता शर्मिंदा नहीं करती।
आपका आक्रोष सही है । बधाई
उद्वेलित करती हुई
राजीव जी!
इस कविता के विषय में, मैं राघव जी से पूरी तरह सहमत हूँ. कविता का विषय बहुत ही मार्मिक है और आपने भावों को कहीं भी क्मज़ोर नहीं पड़ने दिया है. परंतु काव्यात्मकता अंत तक अक्षूण्ण नहीं रह पाई है. आशा है कि आगे भावावेश में काव्यात्मकता भी कमज़ोर नहीं पड़ेगी.
जहाँ तक वर्तमान अध्यापकों का संबंध है, मैंने इसे काफी नज़दीक से देखा है और दुख के साथ कहना पड़ता है कि अनेक अध्यापको के लिये आपके विशेषण भी कम पड़ जाते हैं.
मार्मिक रचना के लिये बधाई स्वीकारें!
राजीव जी आप अपनी डगर चलिए, समाज को आइना दिखाने वाले भी तो चाहिए न, बेहद उत्कृष्ट,
राजीव जी,
इस बार कुछ शिकायत करूँ?
कर लेता हूँ.... :)
मुझे लगता है कि आपने इस विषय पर पहले भी लिखा है, इसलिए थोड़ा जाना-पहचाना-सा लगा। वैसे यह कोई खामी नहीं है।खामी यह है कि आप इसे लिखते समय भावावेश में आए, प्रतीत होते हैं। यही कारण है कि शिल्प अंत आते-आते पूर्ण गद्यात्मक हो गया है। आपसे हमेशा कुछ सीखने की चाहत होती है , इसलिए कृप्या पद्य को बरकरार रखे।
शिकायत कर लिया, अब कुछ अच्छाई भी बता दूँ। अब कोई बात जिस तरह से सीधी-सपाट भाषा में कह देते हैं, दिल में टीस बनकर बैठ जाती है। यह कवि की सफलता भी है।
अब कुछ मिश्रित प्रतिक्रिया-
अगली बार से आप जब भी कुछ ऎसा लिखें, कृप्या भाव की अति न होने दें..क्योंकि "अति सर्वत्र वर्जयेत" । भाव की अति , शिल्प को बहुत क्षति पहुँचाती है, और कविता लिखने में शिल्प का होना बहुत जरूरी है। यह मेरा मानना है।
अगर कुछ ज्यादा या गलत कहा हो तो माफ कर दीजिएगा।
-विश्व दीपक 'तन्हा'
शिल्प का तो नहीं पता लेकिन कविता रुला देती है। इस विषय पर लिखना ही हिम्मत का काम है। राजीव जी जारी रहें।
आपकी कविता टीचरों के चारित्रिक व नैतिक पतन पर चोट तो करती है, प्रश्न तो उठाती है , सोचने पर विवश तो करती है लेकिन शिल्प ध्यान आकृष्ट नहीं करा पाती। कविता की शैली कहीं-कहीं निबंधात्मक हो गई है, जैसे-
कुत्तों, सियारों, भेडियों को कौन अध्यापक बनाता है?
कुकुरमुत्तों से हर छत के नीचे
क्यों उग आते हैं स्कूल?
सरकार अपने होठों पर लाली लगाये
कौन सी फैशन परेड में है?
और दूसरी बात , मेरे हिसाब से प्रत्येक पंक्ति में समान मारक क्षमता होनी चाहिए। इस लिहाज़ से भी आपकी कविता कमज़ोर है।
राजीव जी आपकी कविता हमेशा कोई संदेश ही देती है या दिल में एक बार हलचल जरुर कर देती है
यह भी उसी श्रृंखला की एक कड़ी है,अच्छा लगा इस को पढ़ना ..
सवालों का दावानल हो, आक्रांता है
कोई कंदरा तलाश लो
कि आत्मा, परमात्मा से प्रश्न लिये आती है
गीता में तुमने ही कहा है
मेरे चाहे बगैर एक पत्ता भी नहीं हिलता
बहुत खूब बधाई!!
हर बार की तरह इस बार भी एक मार्मिक अपील करती रचना, जो बरबस आँख नम कर जाती है। समाज में आई कुरीतियों को उघाड़ती आपकी कलम इस बार भी पूरी तरह से सफल होती है ।
अगर कोई कवि अपनी लेखनी से आँखों को नम करने के साथ साथ मन को कुछ कर गुज़रने के लिये उद्वेलित कर जाये, मेरे हिसाब से काव्य की सफलता की पराकाष्ठा है।
मन की अतल गहराईयों से बधाई ।
आर्यमनु, उदयपुर ।
मार्मिक रचना
राजीव जी
बधाई स्वीकारें!
कविजी प्रणाम!
सन्देश मिल गया .रचना में विषाद भी था.आशा है विद्या-मंदिर अगर ज़्यादा भी हो जाएं फिर भी अच्छे शिक्षकों की कमी कभी ना हो.आपका कहना सर्वथा उछित है की हमें अधिक विद्यालयों की जगह अछे शिखन संस्थाओं की आवश्यकता है.लिखते रहिये और हम सब को सन्देश देते रहिये.
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