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Tuesday, October 30, 2007

जीत लो चाहे अवनि आद्यान्त तक




जीत लो चाहे अवनि आद्यान्त तक
जीत ना पाओ मुझे तुम कभी भी

अरे मैं तो ‘तत्व’ हूँ
क्या ‘व्यवस्था’ से मुझे लेना है
‘पंच तत्वों' की निरी भंगुर
महा इस सृष्टि से,
आद्यान्त अभिनव ब्रह्म से
मैं परे हूँ …..
बंधे हो तुम इन्द्रियों की पाश में,
यों ही पा सकोगे न कभी
जीत लो चाहे अवनि आद्यान्त तक
जीत ना पाओ मुझे तुम कभी भी

अरे मैं तो स्वयं
तुझ में गूंज कर भी
नहीं तुझ में लिप्त हूँ,
और तू तो स्वयं
मुझसे दूर होकर,
मगन है निस्सार में
‘बाह्य’ को कर बन्द,
‘अंतर’ खोल.. ढूंढ़ लो पाओ अभी
आज तो तू सोच, तू मैं और मैं तू
बस मिलो … आओ अभी
जीत लो चाहे अवनि आद्यान्त तक
जीत ना पाओ मुझे तुम कभी भी

आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)

11 कविताप्रेमियों का कहना है :

राजीव रंजन प्रसाद का कहना है कि -

‘अंतर’ खोल.. ढूंढ लो पाओ अभी
आज तो तू सोच, तू मैं और मैं तू
बस मिलो … आओ अभी
जीत लो चाहे अवनि आद्यान्त तक
जीत ना पाओ मुझे तुम कभी भी

दर्शन को कविता में कवि नें बखूबी ढाला है, अच्छी रचना।


*** राजीव रंजन प्रसाद

Mohinder56 का कहना है कि -

श्रीकान्त जी,
जीवन के दर्शन से साक्षातकार करवा दिये आपने.. अपनी कविता के माध्यम से
सुन्दर शब्दों बिम्बों से गुथी हुई माला.

vipin chauhan का कहना है कि -

बहुत सुन्दर श्रीकांत जी
बहुत बढ़िया रचना पढ़ने को मिली आप के द्वारा
धन्यबाद
बहुत सुन्दर शब्द चयन और संयोजन देखने को मिला
बहुत खूब
आभार
विपिन "मन"

anuradha srivastav का कहना है कि -

बहुत खूब.........

शोभा का कहना है कि -

श्रीकान्त जी
आपने पंच भोतिक तत्वों का स्मरण करा दिया । शरीर को जीतना तो आसान है किन्तु आत्म तत्व को जीतना
निश्चित रूप में सम्भव नहीं । आप आध्यात्ममिकता की उस सीमा तक पहुँच गए हैं जहाँ संसार के सब
आकर्षण गौण हो जाते हैं । अद्भुत अनुभूति है ये ।
बाह्य’ को कर बन्द,
‘अंतर’ खोल.. ढूंढ़ लो पाओ अभी
आज तो तू सोच, तू मैं और मैं तू
बस मिलो … आओ अभी
सुन्दर अति सुन्दर । आपकी कविताओं में कभी-कभी प्रसाद जी की छवि दिखाई देती है ।
आपके भीतर के उस आत्म तत्व को नमन ।

भूपेन्द्र राघव । Bhupendra Raghav का कहना है कि -

जीवित कविता, जीवन दर्शन.
खोखला बाह्य खोखला तन
जो पाश इन्द्रियाँ खोल सका
जीता उसने ही अंतर्मन
नही विजय पताका फहर सकी
जीता हो अवनि पाताल गगन?
जीवित कविता जीवन दर्शन..

गहरी रचना है कांत जी,
-बधाई

Sajeev का कहना है कि -

bahut sundar -
‘अंतर’ खोल.. ढूंढ लो पाओ अभी
आज तो तू सोच, तू मैं और मैं तू
बस मिलो … आओ अभी
जीत लो चाहे अवनि आद्यान्त तक
जीत ना पाओ मुझे तुम कभी भी

विश्व दीपक का कहना है कि -

जीत लो चाहे अवनि आद्यान्त तक
जीत ना पाओ मुझे तुम कभी भी

‘बाह्य’ को कर बन्द,
‘अंतर’ खोल.. ढूंढ़ लो पाओ अभी
आज तो तू सोच, तू मैं और मैं तू
बस मिलो … आओ अभी

कान्त जी,
अच्छी लगी आपकी रचना। आत्मा और परमात्मा की बातें आप हमेशा भी बहुत सुंदर तरीके से पेश करते रहे हैं।
बधाई स्वीकारें।

-विश्व दीपक 'तन्हा'

शैलेश भारतवासी का कहना है कि -

प्रसिद्ध कवि नरेन्द्र मोहन की आध्यात्मिक कवि की याद आ जाती है आपकी यह कविता पढ़कर। हिन्दी में वर्तमान में इस विषय इर लिखने वाले न के बराबर हैं (कविता की बात करें तो), उस दृष्टि से कविता प्रसंशनीय है।

शायद यह आत्मा की आत्मकथा है और परमात्मा से उसकी एकरूपता दिखाई गई है। लेकिन कुछ पंक्तियाँ मुझे रोकती है-

अरे मैं तो ‘तत्व’ हूँ
क्या ‘व्यवस्था’ से मुझे लेना है
‘पंच तत्वों' की निरी भंगुर
महा इस सृष्टि से,

यहाँ आप भगवान (परमात्मा) की नपुंसकता पर व्यंग्य कर रहे हैं या व्यवस्था पर शोर मचाने वालों पर हँस रहे हैं?

रंजू भाटिया का कहना है कि -

अरे मैं तो स्वयं
तुझ में गूंज कर भी
नहीं तुझ में लिप्त हूँ,
और तू तो स्वयं
मुझसे दूर होकर,
मगन है निस्सार में

सूफी और दर्शन है इस में और आत्मा परमात्मा का सुंदर मिलन का एहसास भी है
बहुत सकून दिया आपकी इस रचना ने श्रीकांत जी बधाई सुंदर रचना के लिए !!

गीता पंडित का कहना है कि -

अरे मैं तो स्वयं
तुझ में गूंज कर भी
नहीं तुझ में लिप्त हूँ,
और तू तो स्वयं
मुझसे दूर होकर,
मगन है निस्सार में

अंतर’ खोल.. ढूंढ़ लो पाओ अभी
आज तो तू सोच, तू मैं और मैं तू
बस मिलो … आओ अभी
जीत लो चाहे अवनि आद्यान्त तक
जीत ना पाओ मुझे तुम कभी भी

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