पेशे से अध्यापिका सुनिता यादव हमारे ऐसे प्रतियोगियों में रही हैं जिन्होंने ३६ कवियों व ४२ कवियों दोनों में अपना स्थान १० के अंदर रखा है। पिछली बार इनकी कविता 'पंचाक्षर मंत्र' को नौवां स्थान मिला था, इस बार की कविता को ७वां स्थान मिला है।
कविता- कोलाहल में मृत्यु का रंग
कवयित्री- सुनीता यादव, औरंगाबाद(महाराष्ट्र)
कोलाहल...हृदय के अंदर और बाहर कोलाहल
कोलाहल ही कोलाहल
मेघ में, हवा में, रात में, रति में
कोलाहल ही कोलाहल....
आज एक जय के अंदर शत-शत पराजय
एक जन्म में शत-शत मृत्यु का संशय
एक चेतना में शत-शत चिंताएँ विस्मय
एक स्थिर बिंदु में अस्थिरता का ग्लानि
और अपयश.......................
बस देख रही हूँ एक मुग्ध मनुष्य की तरह
हर रोज़ पानी में अनडूबी आत्मा की गति को
आग में अनज़ली आत्मा की तेज़ को
अस्त्राघात से अनटूटी आत्मा की स्थिति को....
आकाश में विभ्रांत में,
फिर एक बार
उनकी नई प्रस्तुति के लिए
समय के हीन चक्रान्त से बचाने के लिए.....
जहाँ मृत्यु का रंग
काँटों से भरी सूखी शाखा में
झूल रहा होगा
एक फूल बन कर....
रिज़ल्ट-कार्ड
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प्रथम चरण के ज़ज़मेंट में मिले अंक- ७॰५, ७॰५, ५॰५, ७॰१५, ६॰१
औसत अंक- ६॰७५
स्थान- सोलहवाँ
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द्वितीय चरण के ज़ज़मेंट में मिले अंक-७॰५, ७॰२, ६॰४, ६॰७५ (पिछले चरण का औसत)
औसत अंक- ६॰९६२५
स्थान- दसवाँ
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तृतीय चरण के ज़ज़ की टिप्पणी-कविता दार्शनिक बन पड़ी है और गीता के आत्मा तत्व का प्रयोग भी सुन्दर हुआ है, तथापि कवि का कथ्य खुल कर अभिव्यक्त नहीं हो सका है।
अंक- ६॰७
स्थान- छठवाँ
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अंतिम ज़ज़ की टिप्पणी-
तात्विक विषयों पर लिखते हुए यह ध्यान भी रखना पड़ता है कि अपनी ही स्थापना तो नहीं कट रही। व्याकरण की त्रुटियाँ व शब्दों के सहप्रयोग में असावधानी ने प्रभाव को कम किया है। दार्शनिक शब्दों के साथ सामान्यत: विशेषण-चयन पर भी सावधानी की आवश्यकता है। शब्दों का ऐसा अर्थान्वितिहीन प्रयोग खलता है।
अंक- २॰८७
स्थान- सातवाँ
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पुरस्कार- प्रो॰ अरविन्द चतुर्वेदी की काव्य-पुस्तक 'नकाबों के शहर में' की स्वहस्ताक्षरित प्रति
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9 कविताप्रेमियों का कहना है :
सुनीता जी बहुत ही सोच और गहरे भाव से भरी है आपकी यह रचना
अच्छा लगा इसको पढ़ना
शुभ कामनाओं के साथ
रंजू
सुनीता जी.. बहुत ही ज़्यादा प्रभावित किया आपने... ऐसी कविताएँ आजकल पढ़ने को बहुत ही कम मिलती हैं.... पूरी कविता ही असाधारण है
वाह....
जहाँ मृत्यु का रंग
काँटों से भरी सूखी शाखा में
झूल रहा होगा
एक फूल बन कर....
अदभुत बिंब...
अगली बार भी हिस्सा लीजिएगा... इस कविता से ही आपका स्तर समझ में आजाता है.. मैं लालायित हूँ आपकी और भी रचनाएँ पढ़ने के लिए...
बहुत अच्छी रचना, दार्शनिक तत्वों में लिपटी हुई।
*** राजीव रंजन प्रसाद
गूढ़ भावों का बेहद संतुलित सम्मिश्रण॰॰॰॰
अनसुलझी ज़िन्दगी का अनसुलझा सच॰॰॰॰
एक अध्यापिका की लेखनी ही ऐसा कमाल कर सकती है ।
ठीक कहा विपुल जी ने, कि ऐसी कवितायें अब पढने को कम ही मिला करती है ।
नमन आपको और आपकी लेखनी को,
आर्यमनु, उदयपुर ।
सुनीता जी
बहुत ही सुन्दर कृति है । एक सत्य तथ्य है कि आज बाहर और भीतर कोलाहल ही कोलाहल है । अधिकतर
लोग बाहर का कोलाहल सुनते हैं किन्तु भीतर के कोलाहल की ओर ध्यान देने वाला ही सच्ची मानसिक शान्ति
पाता है । कुछ बातें जो आत्मा के स्वभाव के बारे में हैं कुछ गूढ़ लगीं किन्तु अप्रासंगिक नहीं । भाषा बहुत ही
सधी हुई । विचार प्रवाह मान । बहुत- बहुत बधाई ।
सुनीता जी
कोलाहल कविता नहीं अंतर्नाद है
मेरा प्रिय काव्य विषय बहुत ही अच्छा
प्रयास आपकी रचना शीघ्र ही प्राप्त हो सके
इस हेतु प्रतीक्षा रहेगी
शुभकामनायें
सुनीता जी,
बहुत अच्छी दार्शनिक रचना,
हर रोज़ पानी में अनडूबी आत्मा की गति को
आग में अनज़ली आत्मा की तेज़ को
अस्त्राघात से अनटूटी आत्मा की स्थिति को....
आकाश में विभ्रांत में,
फिर एक बार
उनकी नई प्रस्तुति के लिए
समय के हीन चक्रान्त से बचाने के लिए.....
बहुत- बहुत बधाई ।
सुनीता जी सशक्त रचना
सुनीता जी,
विषय एवं भाव दोनों अच्छे लगे।
जहाँ मृत्यु का रंग
काँटों से भरी सूखी शाखा में
झूल रहा होगा
एक फूल बन कर....
बहुत सुन्दर!!बधाई स्वीकार करें।
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