जब नेता बिक रहे थे
विधान सभा में फेकी जा रही थी माईकें
टीवी पर बिना पतलून के दिखाई जा रही थी खादीगिरि
"उनके" इशारों पर हो रहे थे एनकाउंटर्स
जलाये जा रहे थे मुहल्ले
तुम कहाँ थे?
मैं कोई सिपहिया तो हूँ नहीं
कि लोकतंत्र के कत्ल की वजह तुमसे पूछूं
मुझे कोई हक नहीं कि सवाल उठाऊं तुम्हारी नपुंसकता पर
लेकिन आज बोरियत बहुत है यार मेरे
मिर्च-मसाले सा कुछ सुन लूं तुम ही से
टाकीज में आज कौन सी पिक्चर नयी है?
तुम्हारी पुरानी गर्लफ्रेंड के
नये ब्वायफ्रेंड की दिलचस्पी लडको में है?
कौन से क्रीकेटर नें फरारी खरीदी?
कौन सा बिजनेसमेन देश से फरार है?
बातें ये एसी हैं, इनमें ही रस है
देश का सिसटम तो जैसे सर्कस है
अब कोई नहीं देखता....
मेरे दोस्त, किसी बम धमाके में
अपने माँ, बाप, भाई, बहन को खो कर
अगर चैन की नींद सोनें का कलेजा है भीतर
तो मत सोचो,
सिगरेट से सुलगते इस देश की कोई तो आखिरी कश होगी?
उस रोज संसद में फिर हंगामा हुआ था
उस रोज फिर बहस न हुई बजट पर
मैं यूं ही भटकता हुआ सडक पर जाता था
कि फेरीवाले नें कहा ठहरो “युवक”
यह भेंट है रखो, बाँट लो आपस में
कहता वह ओझल था, आँखों से पल भर में
खोला जब डब्बे को, हाँथों से छूट गया
बिखर गयी सडक पर चूडियाँ चूडियाँ...
*** राजीव रंजन प्रसाद
7.04.2007
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13 कविताप्रेमियों का कहना है :
Kavita jis flow me chal rahi thi laga nahi tha ki aise khatam ho sakti hai...suddenly it took u u turn and changed the whole meaning of poem to readers perspective....i liked tis surprise....going best...of its mood...
नाज़िम हिकमत की कविता याद आ गई...
एक दिन मेरे देश की जनता अराजनीतिक बुद्धिजीवियों से पूछेगी।
वह उनसे पूछेगी कि तुम उस समय क्या कर रहे थे जब देश ...
बाकी याद नहीं है। लेकिन कविता के तेवर आपकी कविता जैसे ही हैं।
राजीव जी ...इसका अंत अलग से हट के था
यह भेंट है रखो, बाँट लो आपस में
कहता वह ओझल था, आँखों से पल भर में
खोला जब डब्बे को, हाँथों से छूट गया
बिखर गयी सडक पर चूडियाँ चूडियाँ...
एक और रचना आपकी आज के सच के करीब
शुभकामनाएं
रंजू
सिवाए अंत के बाकी कविता अच्छी बन पडी है.
खोला जब डब्बे को, हाँथों से छूट गया
बिखर गयी सडक पर चूडियाँ चूडियाँ...
achha vyangatmak prateek ka prayog kiya hai aapne.
राजीव जी,
कविता पढता जा रहा था.. अचानक 2 लाइनें और मेरे पवर-ब्रेक.. एकदम स्तब्ध.
कमाल करती है आपकी लेखनी..
जैसे कोई तीर गति से जाता हुआ लक्ष पर टकराता है और बस... हो गया जो होना था..
-बधाई
राजीव जी
ओज गुण आपकी कविता की पहचान बन गया है । चूड़ियों का चित्र देखकर कुछ भ्रम हुआ था । विचार प्रधान शैली
में लिखी कविता प्रभावशाली है । ऐसे बहुत से प्रश्न हैं जिनको हम अनदेखा कर जाते हैं । इस ओर आपने सही
संकेत किया है । एक ओजस्वी कवि को बधाई ।
मैं यूं ही भटकता हुआ सडक पर जाता था
कि फेरीवाले नें कहा ठहरो “युवक”
यह भेंट है रखो, बाँट लो आपस में
कहता वह ओझल था, आँखों से पल भर में
खोला जब डब्बे को, हाँथों से छूट गया
बिखर गयी सडक पर चूडियाँ चूडियाँ...
राजीव जी,
यह अंत थोड़ा असमंजस में डालता है। लेकिन कविता की पृष्ठभूमि इसे फिर बाँध लेती है। बाकी कविता सच को चरितार्थ करती है। तथाकथित बुद्धिजीवियों पर आपके व्यंग्यात्मक बाण सटीक लगे हैं। बधाई स्वीकारें।
-विश्व दीपक 'तन्हा'
बन्धुवर राजीव जी
.. खादीगिरि
...
जलाये जा रहे थे मुहल्ले
तुम कहाँ थे?
.. पुरानी गर्लफ्रेंड के
नये ब्वायफ्रेंड की दिलचस्पी लडको में है?
कौन से क्रीकेटर नें फरारी खरीदी?
कौन सा बिजनेसमेन देश से फरार है?
...
देश का सिसटम तो जैसे सर्कस है
अब कोई नहीं देखता....
...सिगरेट से सुलगते इस देश की कोई तो आखिरी कश होगी?
....यह भेंट है रखो, बाँट लो आपस में
कहता वह ओझल था, आँखों से पल भर में
खोला जब डब्बे को, हाँथों से छूट गया
बिखर गयी सडक पर चूडियाँ चूडियाँ...
आपकी कविता की शैली का ही एक ट्रेडमार्क नहीं है अपितु यह विषय का भी है। आपके रचनाओं मै उठने वाले राष्ट्रीय संदर्भ के प्रश्न पाठक को मात्र झकझोरते ही नहीं है बल्कि उसे झिंझोड़ डालते हैं हर बार वही शैली फिर भी बड़ी उत्सुकता के साथ प्रतीक्षा आपकी कविता की बड़ा सा कलेजा भी चाहिये आपकी रचना को पढ़कर स्वयं को संयत रखने के लिये आपकी यह पहचान हम सब मित्रों के लिये गौरव की बात है
एक और सफल रचना के लिये बधाई
राजीव जी बिल्कुल नए अंदाज़ में, बहुत ही गहरी चोट करती है आखिरी पंक्तियाँ, आपका बागी अंदाज़ हर बार उभर आ ही जाता है, जाने अनजाने, बस जो तस्वीर आपने लगाई है वो नही अच्छी लगी, वह कविता के भाव से नही मेल खाती.... सशक्त रचना के लिए बधाई
राजीव जी,
चिरपरिचित अंदाज में विसंगतियों पर कुठाराघात करती सुन्दर रचना.
अन्तिम छंद पढ कर पहले लगा कि शायद उस डिव्वे में बम्ब था.. दोवार पढा तो पता चला कि शायद उसमें चुडिया थी उन नेताओं के लिये जो शाब्दिक खेल ज्यादा खेलते हैं... या समाज के उस तबके के लिये जो अपनी मर्यादा और कर्तव्य से अनजान है.
मुझे सजीव जी की टिप्पणी से इत्तेफ़ाक है कि चित्र कविता से मेल नहीं खा रहा.
राजीव जी कविता हर बार की तरह प्रभावी है । अन्त ऐसा सोचा न था पर वो भी चमत्कारी सा लगा । चित्र असंगत सा है । श्रृंगारिक कविता का भान कराता है।
राजीव जी !
पहली पंक्ति पढ्ते ही समझ आ जाता है...कि ये रचना आपकी है....
सबसे अलग हठकर ,अलग तेवर रखने वाली भाव-प्रधान कृति के लियें आपकी लेखनी अनुपम है.....
बहुत सुन्दर...मनो-मस्तिष्क को झकझोर देने वाली रचना.....दिमाग पर सीधा असर करती है....
बधाई...
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