देखा है मैंने
आज रात
काव्य के
अनुपम सौंदर्य
से सजी हुयी
कविता को
पूजा का थाल लिये
धरती है पग पग
हौले हौले
चढ़ती है सीढ़ीयां
हृदय द्वार
देहरी पर
अधरों पर
मन्द मन्द
मुस्कान लिये
यह अनुपम सौंदर्य
मंद मुस्कान
थाल में
टिम टिम करते दीपक
नवयौवन
दीपावली के संग
बढ़ता मेरी ओर
दीप्ति सहित दैदीप्यमान
हाथ में जो
पूजा का थाल
दर्प यौवन से
पुञ्जित भाल
थाल की दिव्य
रोशनी से
आरती से स्तंभित मैं
करूं क्या …
प्रिये तेरा सम्मान
स्नेह ममता का
आंचल लिये
प्रेम पग धरतीं
मेरी ओर
नयन में है
अद्भुत संदेश
अकिंचन फैलाऊं मैं बाँह
न हो अब …
इस पल का अवसान
अधर में कम्पन है रसधार
सहस्त्रों वीणा की झंकार
शारदे का अद्भुत आदेश
साथ है अब
निशि दिन रहना
वंचितों की पीड़ा बनकर
नयन में नीर बरस बसना
अद्भुत किरण प्रेम की
हर पल हृदय
जगाऊगी मैं
दीपक स्नेह जलाकर
संग में अलख जगाऊंगी मैं
मैं जानूं
दायित्व हमारा
और धर्म
कविता का
कवि का …
मैं युग धर्म निबाहूं
वाणी मैं बन जाऊं
हर …
शोषित वंचित को चाहूं
आकर …
न्याय महाभारत में
‘कान्त’ काव्य रथ
बनूं सारथी
ओज का शंख बजाऊं
अंबर ! धरणी !!
हे वागेश्वरी
करें सब
प्रियतम का श्रंगार
अभिनव स्रष्टि
रचें हम नूतन
गीतों का संसार
बही आंखों से
अविरल धार
जागकर शैया से मैं चकित
हृदय में वास करो हे ! अभ्यागत
आज से हर पल साथ रहो
प्राणप्रिय 'काव्य' तेरा स्वागत
आज रात
काव्य के
अनुपम सौंदर्य
से सजी हुयी
कविता को
पूजा का थाल लिये
धरती है पग पग
हौले हौले
चढ़ती है सीढ़ीयां
हृदय द्वार
देहरी पर
अधरों पर
मन्द मन्द
मुस्कान लिये
यह अनुपम सौंदर्य
मंद मुस्कान
थाल में
टिम टिम करते दीपक
नवयौवन
दीपावली के संग
बढ़ता मेरी ओर
दीप्ति सहित दैदीप्यमान
हाथ में जो
पूजा का थाल
दर्प यौवन से
पुञ्जित भाल
थाल की दिव्य
रोशनी से
आरती से स्तंभित मैं
करूं क्या …
प्रिये तेरा सम्मान
स्नेह ममता का
आंचल लिये
प्रेम पग धरतीं
मेरी ओर
नयन में है
अद्भुत संदेश
अकिंचन फैलाऊं मैं बाँह
न हो अब …
इस पल का अवसान
अधर में कम्पन है रसधार
सहस्त्रों वीणा की झंकार
शारदे का अद्भुत आदेश
साथ है अब
निशि दिन रहना
वंचितों की पीड़ा बनकर
नयन में नीर बरस बसना
अद्भुत किरण प्रेम की
हर पल हृदय
जगाऊगी मैं
दीपक स्नेह जलाकर
संग में अलख जगाऊंगी मैं
मैं जानूं
दायित्व हमारा
और धर्म
कविता का
कवि का …
मैं युग धर्म निबाहूं
वाणी मैं बन जाऊं
हर …
शोषित वंचित को चाहूं
आकर …
न्याय महाभारत में
‘कान्त’ काव्य रथ
बनूं सारथी
ओज का शंख बजाऊं
अंबर ! धरणी !!
हे वागेश्वरी
करें सब
प्रियतम का श्रंगार
अभिनव स्रष्टि
रचें हम नूतन
गीतों का संसार
बही आंखों से
अविरल धार
जागकर शैया से मैं चकित
हृदय में वास करो हे ! अभ्यागत
आज से हर पल साथ रहो
प्राणप्रिय 'काव्य' तेरा स्वागत
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
11 कविताप्रेमियों का कहना है :
स्नेह ममता का
आंचल लिये
प्रेम पग धरतीं
मेरी ओर
नयन में है
अद्भुत संदेश
अकिंचन फैलाऊं मैं बाँह
न हो अब …
इस पल का अवसान
waah srikant ji, sabah subah itni sundar kavita padhi hai aapko, mera to din safal ho gaya
जागकर शैया से मैं चकित
हृदय में वास करो हे ! अभ्यागत
आज से हर पल साथ रहो
प्राणप्रिय 'काव्य' तेरा स्वागत
bahut hi sundar, ishwar karen aapka aapki pranpriya kavya ka saath yuhin hamesha rahe
अदभुत रचना है यह आपकी श्रीकांत जी .जैसे कोई एक सपना सा आंखो में खिलने लगा हो ..
यह अनुपम सौंदर्य
मंद मुस्कान
थाल में
टिम टिम करते दीपक
नवयौवन
दीपावली के संग
बढ़ता मेरी ओर
दीप्ति सहित दैदीप्यमान
बहुत सुंदर ....
अभिनव स्रष्टि
रचें हम नूतन
गीतों का संसार
बही आंखों से
अविरल धार
यूं ही आपकी कलम से सुंदर गीतों का संसार रचता रहे यही दुआ है ..
आज से हर पल साथ रहो
प्राणप्रिय 'काव्य' तेरा स्वागत
शुभकामना और बधाई इस खूबसूरत रचना के लिए
रंजू
very differnt poem of different mood and presentation....a way to follow tat most of the poets have moved far ahead....it reminds me of our old classic poets..u have depicted words very beautifully...keep writing....best wishes...
बहुत बहुत सुन्दर भाव है.
बधाई
अवनीश तिवरी
मैं जानूं
दायित्व हमारा
और धर्म
कविता का
कवि का …
मैं युग धर्म निबाहूं
वाणी मैं बन जाऊं
जागकर शैया से मैं चकित
हृदय में वास करो हे ! अभ्यागत
आज से हर पल साथ रहो
प्राणप्रिय 'काव्य' तेरा स्वागत
आपकी कविता आपके अनुभवों से पक कर निकली है। शिल्प और भावों में उत्कृष्ट। बहुत बधाई।
*** राजीव रंजन प्रसाद
किन्हीं विशेष पंक्तियों का हवाला देकर कुछ कहना चाहूँ तो मुझे नहीं लगता कि कविता का तनिक भाग भी छूट पायेगा..
इसलिये शीर्षक का ही हवाला दे रहा हूँ
"प्राणप्रिय 'काव्य' तेरा स्वागत"
बहुतखूब..
मेरी शुभकामनायें
श्रीकान्त जी
आपका ख्वाब कितना प्यारा होगा यह कविता पढ़कर ही पता चल रहा है । आपने बहुत ही सुन्दर भाव और
भाषा में उसको सजाया है । इसको माँ सरस्वती का यह वरदान आपके जीवन में अमृत रस का झरना बहा दे
यही कामना है ।
भाई श्रीकांत!
रचना थोडी आसान भाषा में होती तो शायद मुझ जैसे साधारण पढे लिखे को भी समझ में आ जाती.
श्रीकान्त जी,
एक अनूठे अन्दाज की एक सुन्दर स्वप्न को जीती हुई रचना है जिसे आपकी कलम ने साकार किया है.
श्रीकांत जी !
भाषा का सौन्दर्य ,
या कहूं ............जिन शब्दों से आपने कविता का श्रृंगार किया है..
उसे देखकर मन बाग-बाग हो गया..|
अद्भुत, मैं जैसे जी उठी हूँ.....इस आनंद-उत्सव के लिये आपकी आभारी हूँ.......
अद्भुत रचना...
बधाई
हर …
शोषित वंचित को चाहूं
आकर …
न्याय महाभारत में
‘कान्त’ काव्य रथ
बनूं सारथी
ओज का शंख बजाऊं
बहुत सुंदर कविता है कांत जी। प्राणप्रिय काव्य का आपने जिस तरह से स्वागत किया है,रोम-रोम को विस्मित कर देता है।
बधाई स्वीकारें।
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)