काव्य-पल्लवन सामूहिक कविता-लेखन
विषय - मुसाफ़िर
विषय-चयन - रविकांत पाण्डेय
पेंटिंग - स्मिता तिवारी
अंक - आठ
माह - अक्टूबर 2007
काव्य पल्लवन के अक्टूबर अंक के लिये पाठकों से विषय आमंत्रित किये गये थे. पाठकों ने भी उत्साह दिखाते हुये कुल 19 विषय भेजे. सभी विषय सुरुचिपूर्ण व सामायिक थे. कविता किसी शब्द विशेष के बंधन में न बंधे व इसे खुली उडान मिले इसको ध्यान में रखते हुये श्री रविकान्त पाण्डेय जी द्वारा भेजे गये विषय "मुसाफ़िर" का चयन किया गया. इस बार 23 कवितायें प्राप्त हुई हैं. मुसाफ़िर विषय पर श्रीमति स्मिता तिवारी की बनायी हुई थीम पेन्टिंग से इस अंक का सौन्दर्य और निखर गया है. आशा है भविष्य में भी हमें पाठकों व लेखकों का सहयोग मिलता रहेगा एंव अधिक संख्या में रचनायें प्राप्त होंगी. लीजिये मुसाफ़िर के साथ सफ़र आरम्भ कीजिये और अपनी टिप्पणी से अनुग्रहित कीजिये.
*** प्रतिभागी ***
| शोभा महेन्द्रू | श्रीकांत मिश्र 'कांत' | हरिहर झा | कवि कुलवंत सिंह | रविकांत पाण्डेय | निखिल आनंद गिरि | रंजना भाटिया | राजीव रंजन प्रसाद | सचिन जैन | प्रगति सक्सैना | प्रविन कुमार | दिव्या | गीता पंडित | अनुराधा श्रीवास्तव | आलोक कुमार | अंजू गर्ग | विश्व दीपक ‘तन्हा’ | तपन शर्मा | भूपेन्द्र राघव | कुमार आशीष | मोहिन्दर कुमार | साधना दुग्गड़ | शैलेश भारतवासी |
~~~अपने विचार, अपनी टिप्पणी दीजिए~~~
राह पर चल तो रही हूँ
लक्ष्य की ना कुछ खबर है
आँख में सपने बहुत हैं
डगमगाती पर नज़र है
ज़िन्दगी के इस सफ़र में
कैसे-कैसे मोड़ आए
लक्ष्य का ना कुछ पता था
पाँव मेरे डगमगाए
राह की रंगीनियों ने
था बहुत मुझको पुकारा
उस मधुर आवाज़ से भी
कर लिया अक्सर किनारा
कंटकों की राह चुन ली
किन्तु फिर भी मैं ना हारा
हाँ कभी आवाज़ कोई
प्रेम की दी जब सुनाई
पाँव मेरे रूक गए थे
राह में थी डगमगाई
ज़िन्दगी के स्वर्ण के पल
राह से मैने उठाए
और दामन में समेटे
राह में जो काम आए
तक्त मीठे और खट्टे
राह में कितने मिले हैं
शूल के संग फूल भी तो
राह में अक्सर बिछें हैं
अब तो आ पहुँचा समापन
दिख रहा रौशन उजाला
पाँव अब क्यों काँपते हैं
हृदय में जब है उजाला
बावले अब धीर धर ले
सामने अब मीत प्यारा
मिल गया तुमको किनारा
- शोभा महेन्द्रू
' अंतहीन यात्रा ' के
' यात्री ' हम सब
सवार एक यान में ….
एक ' अंतरिक्ष यान' में
या फिर रेलगा ड़ी में …
बढे जा रहे हैं
' अज्ञात स्टेशन ' की ओर
कैसी विडम्बना … !
कौन है ' चालक'
जानने की
सबको है उत्सुकता
सबके अंतस् में
एक ' आदि प्रश्न'
किन्तु …
मैं ही उसे जानता हूँ
मेरे साथ ही आओ
यही है ' रास्ता'
मचा है शोर
उठा पटक
इस ' रेलगाड़ी ' क़े 'यात्रियों ' ने
' धर्म ' दिया है नाम
इस झूठे दम्भ को
इस ' अन्तहीन यात्रा' का
तथ्य एक और
ट्रेन कभी रूकती नहीं ,
स्टेशन कोई आता नहीं ,
किन्तु यात्री ..
चढ रहे हैं …
उतर रहे है …
चढे ही जा रहे है
कौन है ' वो'
रक्षक है कौन
अदृश्य सी पटरियाँ
ले जायेंगीं कहाँ
मात्र इसे जानने को
झग ड़ने से पूर्व
एक छोटा सा
' मन्त्र ' दुहरा लें
' सहयात्री ' से
' सहिष्णुता ' का
पाठ भर अपना लें..
- श्रीकान्त मिश्र 'कान्त'
माना ये जग है सफर चार दिन का
हम हैं मुसाफिर ये मेला छूटेगा
जब होगा धमाका मौत छीन लेगी
खाली हाथ जाते दिल भी टूटेगा
पंडित बताते मत करो हाय तौबा
धरो हाथ पर हाथ, सब कुछ वो देगा
दे डालो सब कुछ, शिकायत करो ना
अन्त में ईश्वर परीक्षा भी लेगा
माना ये जग है सफर चार दिन का
सफर तक में बैठने को सीट भी चाहिये
जग की यात्रा में नहीं हम जानवर
इन्सानो जैसी जिन्दगी भी चाहिये
वातानुकूलित हैं शयनकक्ष तुम्हारे
मत सिखाओ हमको सबक जिन्दगी का
इन्तजाम खुद के लिये हर सुख सुविधा
भाषण क्या खूब! खुदा की बन्दगी का
माना ये जग है सफर चार दिन का
गम हों भले हम तो खुशियां भी चाहें
बकवास कोरी और लिबास दर्शन का
भटका नहीं सकता हमारी राहें
- हरिहर झा
यह दुनिया एक रंगमंच है
मुसाफ़िर आते हैं,
अपना किरदार निभाते हैं
फ़िर चले जाते हैं ।
सब अपना अपना रंग दिखा जाते हैं
कुछ अच्छे, कुछ बुरे काम कर जाते हैं।
कुछ हीर-रांझा, लैला-मजनू
जैसा प्यार कर जाते हैं।
कुछ धर्मगुरू शंकराचार्य बन
अद्वैत और विश्वास दे जाते हैं ।
कुछ नानक, बुद्ध, ईसा, पैगंबर बन
मानवता को दिशा दे जाते हैं ।
कुछ राणा प्रताप, शिवाजी, गुरु गोविंद बन
दीनों को जुल्मियों से बचा जाते हैं ।
कुछ नादिर, गोरी, तैमूर बन
देश को लूट ले जाते हैं ।
कुछ आर्यभट्ट, भास्कर बन
खगोल बना जाते हैं ।
कुछ चरक, सुश्रुत बन
चिकित्सा को आयाम दे जाते हैं ।
कुछ अशोक, चंद्रगुप्त, आकबर बन
देश को जोड़ जाते हैं ।
कुछ औरंगजेब, मीर जाफ़र, जयचंद्र बन
देश को तोड़ जाते हैं ।
कुछ गांधी, विवेकानंद बन
ऎसे कर्म कर जाते हैं,
कि अपने पीछे, अपने
पदचिन्हों को छोड़ जाते हैं ।
कुछ भक्ति में लीन हो जाते हैं
मीरा बन कृष्ण को पा जाते हैं ।
कुछ समाज सुधारक बन
राम मोहन राय और कबीर बन जाते हैं ।
कुछ मदर टेरेसा बन
दूसरों की सेवा अपना लेते हैं ।
उनमें ही ईश्वर और खुशी ढ़ूंढ़
खुद को भूल जाते हैं ।
कुछ भगत, आजाद, बोस बन
देश पर निछावर हो जाते हैं ।
कुछ तेलगी, हर्षद, वीरप्प्न बन
देश को ही चूस जाते हैं ।
कुछ युवाओं के आइकान बन
किंग-खान, बिग- बी बन जाते हैं ।
कुछ पागलपन की हद तक गिर
अपनों की पीठ में छुरा घोंप जाते हैं ।
कुछ हैवान बन जाते हैं
कुछ शैतान बन जाते हैं
कुछ बेईमान बन जाते हैं
कुछ सम्मान पा जाते हैं ।
कुछ विज्ञान से यान बना जाते हैं
कुछ जीवन को रोशन कर जाते हैं ।
कुछ मानवता को तबाह करने
परमाणु बम गिरा जाते हैं ।
कोई खुन बहाता है
कोई खून चूसता है ।
कोई धर्म, देश, जाति पर
खून निछावर कर जाता है ।
यह दुनिया एक रंगमंच है
मुसाफ़िर आते हैं,
अपना किरदार निभाते हैं
फ़िर चले जाते हैं ।
- कवि कुलवंत सिंह
मानो या ना मानो, दुनिया
एक मुसाफ़िरखाना है
कुछ खट्टी कुछ मीठी यादें
बस इतना ही फ़साना है
सबसे सच्चा वही मुसाफ़िर
जो केवल चलना जाने
मायूस अँधेरों से ना हो
बने दीप, जलना जाने
विश्राम हेतु हैं रूके यहाँ
फ़िर अपनी राह चलेंगे सब
दिन ढलने से पहले-पहले
पूरा सफ़र, करेंगे सब
आओ दो पल साथ जी लें
राह के इस मोड़ पर
क्या पता कब चला जाए
कौन किसको छोड़कर
- रविकांत पाण्डेय
जीवन तब भी रुका नही था…
जब तुमको दो व्याकुल आंखें
तकती थीं दिन-रात कभी…
और तुम्हारी एक हंसी पे
सदके थे जज्बात सभी….
वक़्त क़ैद था मुट्ठी में जब……
फिर हम दोनो साथ टहलते,
बिन, मतलब के इधर-उधर,
दर्द तुम्हारी फूंक से गायब,
बातें तुम्हारी, जादू-मंतर..
वक़्त क़ैद था मुट्ठी में जब…
और अचानक वो लम्हा जब,
तुमको छू लेने की जिद में
मैंने अपनी मुट्ठी खोली,
हाथ बढ़ाकर तुम तक पंहुचा ,
वक़्त क़ैद से निकल चुका था …
फिर कुछ लम्हे तनहा-तनहा,
फिर कुछ रातें ख़त के सहारे,
गम खा -खा कर, आंसू पीकर,
फिर कुछ सदियाँ चांद किनारे …
वक़्त क़ैद से निकल चुका था….
दुनिया की सड़कों पर चलकर,
सच के चहरे हर बत्ती पर,
रोज़ बदलते, मैं क्या करता,
एक सफ़र था जीवन तुम बिन,
वक़्त का सच अब बदल चुका था….
और मेरी दो व्याकुल आंखें
जिनमे अब भी बसी हुई है छवि तुम्हारी,
थोड़ी -सी गीली होकर मेरे चहरे पर,
झलक तुम्हारी दे जाती हैं…
इसी भरोसे….
जीवन अब भी रुका नही है,
इसी भरोसे,
अभी मुसाफिर थका नही है…….
अभी मुसाफिर थका नही है…….
- निखिल आनंद गिरि
मुसाफ़िर है मन बवाला
जाने कहाँ कहाँ ले जाता है
कभी छेडता राग मिलन के
कभी विरह में डूब जाता है
बिखरेता कभी रंग स्नेह के
कभी वात्सलय हो जाता है
भटकता ना जाने किस खोज में
कभी शांत नही यह हो पाता है
श्वसो की गति पर थिरकता
यह निरन्तर चलता जाता है
कभी ना उबता ,ना रुकता
बस हवा सा उड़ता जाता है
शाश्वत सच को यह मन
जिस पल पा जाएगा
चंचल चपल यह मुसाफ़िर
स्वयम् ही तब मंज़िल पा जाएगा !!
- रंजना
मुझको हर मोड़ पर मिलता है एक मोड़ खड़ा
ज़िन्दगी मेरी रास्ता बन कर
दिल के पाँवों में बिछ गयी लेकिन
रास्ता मेरी ज़िन्दगी बन कर
मेरी उलझन की तरह मुडता है
मेरे हर एक कदम पर ठिठका
मेरा मन थक गया जिसे थामे
खींचता हूं कि चलो चार कदम और चलो
देख लो मुड के अगले मुडने तक
कोई तारा दिखे..
मन चूर चूर है , ढलता है
मेरी बाहों मे सर रख कर
बस मुश्किल ही से चलता है
हर ओर मेरे सन्नाटा है
मैं चीख रहा है क्या कोई?
क्या पास कहीं पर पानी है?
मन की जान बचानी है..
- राजीव रंजन प्रसाद
रास्ते कितने चला मैं मजिंल को पाने को,
मैं यूं ही चलता रहा और दूरियां बढ़ती रही,
कुछ दूर चलकर आऎगी मजिंल मेरी,
खत्म होगा ये सफ़र और ये मारामारी,
बस इसी आशा को लेकर बढता गया,
इसी तरह नये सपने संजोता रहा,
पर मैं यूं ही चलता रहा और दूरियां बढ़ती गई,
सफ़र में थे हम्सफ़र हर रोज़ मेरे नये-नये,
कुछ ने बदले रास्ते और कुछ की थी मजिंल अलग,
जो मिला सफ़र में मुझसे मैं उससे मुसकरा कर मिला,
कुछ मेरे साथी बने और कुछ बिछडते चले गये,
पर मैं यूं ही चलता रहा और दूरियां बढ़ती गई,
पर मेरे सपने में थी बस वही मजिंल एक,
मैं तो उसकी तरफ़ बढता रहा पूरी उम्मीद से,
इसी आशा में कि एक दिन मंजिल मेरे कदम चूमेगी,
एक दिन मैं उठकर आसमां को चूम लूँगा,
पर मैं यूं ही चलता रहा और दूरियां बढ़ती गई,
एक दिन मैं थक जाउंगा इस सफ़र में,
वो दिन होगा आखिरी मेरी जिदंगी का,
पर मजिंल की दूरियां तब भी यूं कायम रहेगीं,
चाहे कितना भी सफ़र कर लें ये कदम,
क्यूंकि मैं यूं ही चलता रहुगाँ और दूरियां बढ़ती रहेगीं
- सचिन जैन
एक नए सफर और एक नई खोज के साथ
राहों में
फिर , हाजिर हूँ में
कि.. , मुसाफिर हूँ मैं…
उलझे कई जवाबों मैं
एक सुलझा सा सवाल
बन , ज़ाहिर हूँ मैं …
कि.., मुसाफिर हूँ मैं …
चलना ही मेरा मज़हब -ओ -इमान है ..
कोई कहता है
कि , काफिर हूँ मैं
कि.., मुसाफिर हूँ मैं …
मंजिलों का पता नहीं मुझे
चला उन पड़ावों -
की ही खातिर हूँ मैं ..
कि.. , मुसाफिर हूँ मैं …
जब साँस टूटे और खोने हौसला लगे
बोलूँगा बस कि ..
इंसा आखिर हूँ मैं
कि.. , मुसाफिर हूँ मैं …
- प्रगति सक्सैना
एक मुसाफ़िर हूं मुझे बस प्यार दे देना
गुनगुनाने के लिये दिन चार दे देना
काम बाक़ी जल उठा अलाव कर देगा
सिर्फ़ मिट्टी को थपक आकार दे देना
जा रहा है उसको तुम आवाज़ से रोको
रूठते को नेह की मनुहार दे देना
पार जाने का बहुत उत्साह है हरदम
बाढ कैसी हो उसे पतवार दे देना
युग-युगों से ये शिला चुपचाप बैठी है
गा उठेगी बस मधुर झंकार दे देना
भोगने को एक तलब हरदम रही बाक़ी
जानने को ये सफ़र हर बार दे देना
हंस नहीं सकती ग़ज़ल के ओंठ घायल हैं
मुस्कराने को इसे संसार दे देना
- प्रवीन कुमार
छोते से गओन से निकला वो मुसाफ़िर
इस शहर मे आकर फ़िसला वो मुसाफ़िर
नये खरबूजों का ढेर है शहर में
उनके ही रंग में ढला वो मुसाफ़िर
ठौकर लगती है तो क्या हुआ ?
ना कभी फ़िर सम्भला वो मुसाफ़िर
चलना तो मुसाफ़िर का धर्म है
रुक के फिर न चला वो मुसाफ़िर
रात को अपनी हथेली पर लिये
रात भर उसको मला वो मुसाफ़िर
हर आईने से वो तो डरता रहा
आईनों को रोज बदलता रहा वो मुसाफ़िर
- दिव्या
सूनी - सूनी पगडण्डी,पर निरख ना पथ का सूनापन,
गति पाँवों को दो दिनकर की,अथक सतत अपनापन,
मंजिल दूर ना होगी पग से, स्वेद - कण बरसाना मन,
श्रम-जल से सिंचित राहों पर,अनवरत आगे बढना मन।
पग में लाख शूल चुभें या,रस्ता रोक रहे हों विषधर,
पाहन से पथरीले मग पर,पाँव बढाना साहस रखकर,
चाहे कितनी हो बाधाएं, रोक नहीं पाएंगी रे मन !
एक बार तो पी लेना,परिश्रम के प्याले को छक-कर।
पीने से हर बार स्वयम को, रोक नहीं पायेगे.,
अवनि-अम्बर झुक जायेंगे,जब भी पाँव बढायेंगे,
एक मुसाफिर एक राह,राहें ना बदल कर चलना मन !
एक ही बाती एक दीप की,भोर भये तक जल जायेंगे।
दर्प - दीप जलने ना देना, भय - ग्रस्त करेगा राहें ,
होंगी दूभर फिर सहनी , विद्वेष की अनचाही बाहें,
अनजाने पथ का पथिक अरे ,डगर भूल ना जाना मन !
शाम ढले सूरज चल देता, तुझको भी चलना है मन ।
नित-नूतन विश्वासों के संग, टूटे बल का सम्बल बनना,
कीर्तिमान बन विजय-पताका उत्तुंग-शिखर पर फहराना,
धूप-छाँव में जीवन की, अविकल कदम बढाना रे मन !
अपने मन की हरी दूब से, जग भी हरा बनाना मन ।
- गीता पंडित (शमा)
मन एक मुसाफिर आवारा
यायावर अभिलाषायें
नित नई डगर,नित नई मंजिलें
पल पर भी इसे चैन नहीं
इक ठौर ये बंध कर रह सकें
ऐसा भी कोई छोर नहीं
मन एक मुसाफिर आवारा
पल-पल चाहा थाम लूं
रोक लूं,रफ्तारे जिन्दगी
अगले ही पल
मन था व्याकुल
कुछ-कुछ आकुल
बढ चला पुनः
इक नई डगर,इक नया सफर
मन एक मुसाफिर आवारा।
- अनुराधा श्रीवास्तव
निज लक्ष्य पर बढने वाला
एक मुसाफिर कहलाता है ,
कोई राह पुरानी अपनाता है
कोई सबको राह दिखाता है ,
मुश्किल अपनाना राहों को
राही बनना आसान नही ,
कितने ठोकर इन राहों पर
राही को अनुमान नही ,
डरने वाला पर ठोकर से
दो कदम क्या चल पायेगा ,
बढ़े कदम को करके पीछे
बस हाथों को मल पायेगा,
जिसमें है हिम्मत चलने की
नही फूंक कदम उठाता है,
सरिता की लहरों को देखो
कैसे वह कदम बढाता है,
जो राह मिला,जो डगर दिखा
उसपर ही कदम बढाता है,
कितना भी पथ पथरीला हो
वह सागर को अपनाता है,
इसलिये जगत के हे मुसाफिर
राह पुराने मत अपनाओ ,
बनकर सरिता की लहरें
तुम भी मुझको राह दिखाओ .
- आलोक कुमार
ज़िंदगी है एक सफ़र ,
है बड़ी ही कठिन डगर .
सोच रहा था एक मुसाफ़िर
मिलेगी केसे कामयाबी मगर ..
आँखों में सपने ,
मन में उमंगे .
सफलता की आशा
लेकर चला .
थोड़ी दूर बीच राह
उसे एक साथी मिला .
आते ही उसके ज़िंदगी मुस्कराने लगी ,
मंज़िल जेसे पास नज़र आने लगी..
परंतु अचानक आया एक नया मोड ,
जब साथी गया अकेला छोड़.
मुसाफ़िर हुआ बहुत हताश ,
कुछ समय तक रहा निराश.
मिलना और बिछड़ना -2
है एक संसारीक नियम ,
यही सोचकर उसने आगे बड़ाए क़दम.
कही फूलों की कलियाँ मेहक रही ,
कही शोलों से धरती देहक रही .
कही की भूमि पत्थरीली ,
तो कही थी हरी हरी हरियाली ...
कही बज रहे थे राग सुरीले ,
तो कही से आ रही चीखे पुकारे ,
दिखा रहा कोई करतब रंगीले ,
तो कोई पड़ा था बॉल बखेरे....
कोई मदमस्त होकर रहा खेल ,
तो कोई मुसीबतें रहा झेल .
कोई अपनी ज़िंदगी को दे रहा था दोष ,
तो किसी के दिल में भरा था जोश .
कोई किसी से झगड़ रहा ,
तो कोई ग़ुलामी में जकड़ रहा ....
देख कर एह सब ,
मुसाफ़िर के चेहरे पर छाई उदासी,
फिर हल्की सी आई हँसी ,
अंत में उसने एही जाना ,
ज़िंदगी का सफ़र
यू ही है एक दिन गुज़र जाना ,
अगर इसमें है कुछ पाना ,
तो हिम्मत कभी ना हारना........
- अंजू गर्ग
सुन जिंदगी, उफक से तू सूरज निकाल ले,
यह दिन गया, अगले का तू कागज निकाल ले।
बनकर मुसाफिर तू गई , इस दिन को छोड़ जो,
फिर आएगी इसी राह , सो अचरज निकाल ले ॥
यह फफकती मौत तेरे दर सौ बार आएगी,
तुझे संग ले हर बार हीं उस पार जाएगी।
नये जिस्म , नई साँसों में गढी तू होगी हमेशा ,
हर बार हीं नये जोश में तू अवतार लाएगी॥
कई रहजन , कई रहबर इस राह में होंगे,
तुझे पाएँगे, तुझे पाने के कुछ चाह में होंगे,
यूँ इश्क और हुश्न का खेल चलता रहेगा,
दुल्हे बदलेंगे, बाराती वही इस विवाह में होंगे।
- विश्व दीपक 'तन्हा'
मुसाफ़िर सभी हैं ज़िन्दगी के सफ़र में ,
सिफ़र से शुरू, और समाते सिफ़र में।
मंज़िल तलाशते निकलते हैं, नंगे पाँव खाली हाथ,
अपनी धुन में उलझे, क्या दिन क्या रात।
लड़ते, झगड़ते, रौंदते, खौलते, रोते, पीटते, सफ़र गुजरता जाता है,
कोई राह भटक जाता है, कोई गिर कर उभरता जाता है।
हीरे मोती सोने चाँदी की चाह में, रिश्ते खोये, खुशियाँ खो दी,
यूँ ही खून पीते पीते, बदले के कुदाल से अपनी कब्र खुद खोदी।
ज़िन्दगी चलने का नाम है, मत बैठ मुसाफिर थक कर कहीं,
झेल जा काँटें जो ज़िन्दगी से मिलें, फूल भी संग होंगे उनमें कहीं।
- तपन शर्मा
न बोध है, न प्रश्न है, न स्वप्न है, न आस है
न रंग है, न मंच है, न गीत है, न रास है
न दीखता ढलान अब, न दूर तक चढाव है
जिन्दगी की राह का, ये कौन सा पडाव है
ये कौन सा पडाव है....
न कंटकों कि राह है, न धूल का गुबार है
न पत्थरों की ठोकरें, न बादली फुहार है
न रोशनी की चोंध है, न धूप है न छांव है
जिन्दगी की राह का, ये कौन सा पडाव है
ये कौन सा पडाव है....
हवायें लुप्त लुप्त सी, फिजायें सुप्त सुप्त सी
आसमाँ भी गुम गया, घटायें भी विलुप्त सी
न खेत हैं न रूख हैं, न रेत है न गांव है
जिन्दगी की राह का, ये कौन सा पडाव है
ये कौन सा पडाव है....
आस ना निराश ना, कोइ दूर पास ना
न चाह है, न भूख है, न प्यास है न वासना
आसक्ति है, न शक्ति है, न भाव है, न चाव है
जिन्दगी की राह का, ये कौन सा पडाव है
ये कौन सा पडाव है....
अजन्मा हूँ मै, या न जाने, जन्म लेकर मर गय
रिक्तता से पूर्ण हूँ, या सर्व कहीं बिखर गया
कारवाँ गुजर गये, या मै अकेला ही चला
न कोल है खगों का, ना निशाने कोई पांव है
उच्क्ष्वास है न कोई दिल मे, ना कोई दवाव है
ज़िन्दगी चली ही नहीं या आ गया ठहराव है
मै मुसाफिर हूँ पता क्या मुसाफिरी पहनाव है
मै मुसाफिर हूँ पता क्या मुसाफिरी पहनाव है..
मै मुसाफिर हू..............
- भूपेन्द्र राघव
हमीं नहीं हैं मुसाफिर हैं चांद सूरज भी
असल तो पार हमें जुस्तजू को करना है
हमारे जेहन में पलती है जुगनुओं सी जो
उसी की कौंध में अब हमको वजू करना है
- कुमार आशीष
चट्टान पूछती थके-हारे राही से
तुमने कितने मील के पत्थर देखे हैं
जितने कदम चले हो तुम अब तक
उससे कहीं अधिक मैने पतझड देखे हैं
छाया में बैठे राही से पेड कह रहा
क्या गिनना राही पांव के छालों को
जितने जख्म लगे हैं तुम को अब तक
उससे कहीं ज्यादा मैंने अंधड झेले हैं
समय के चलते रुके राही से फ़ूल कह रहा
मुडकर न देख, रख नजर अपनी मंजिल पर
रुकने से चलना ही है हरदम बेहतर क्योंकि
जीते सिर्फ़ वही हैं जो यहां खुल कर खेले हैं
मुसाफ़िर सिर्फ़ वही नहीं जो है राहों पर
नियती से बंध कुछ दिन व रात चलते हैं
कुछ मुसाफ़िर सपने अलबेले से भी है जो
जागती,सोती,हंसती,रोती आंखों में पलते हैं
- मोहिन्दर कुमार
यह कैसा मुसाफिर खाना है।
यह शरीर जो मिला है तुझे
यहीं छोड़ कर जाना है।
यह शरीर मुसाफिर खाना है
बाकि के सफ़र में तो मुसाफिर
संग कुछ लेकर जाता है
पर जब खुदा टिकिट कटवाता है
तो खाली हाथ ही जाना पड़ता है।
एक बार छोड़ा जो शरीर
उसी में फिर वापस नहीं आता है।
पता नहीं कब का टिकिट
खुदा उसका कटवाता है।
इसके लिये उसे न
लगता कोई किराया है।
इसका अता पता न
कोई ठौर ठिकाना है।
कहने वाले जरूर कहते है
अच्छा कर्म करोगे तो स्वर्ग
बनता तुम्हारा आशियाना है।
बुरा कर्म करोगे तो नर्क
बनता तुम्हारा आशियाना है।
खुदा बस इतना ही
मांगता मेहनताना है।
यह तेरा न स्थाई ठिकाना है।
बस आना और जाना है।
यह शरीर मुसाफिर खाना है।
मानव तुझे बस यही समझाना है॥
- श्रीमति साधना दुग्गड़
१॰)
आदमी मुसाफ़िर होता
तो ठीक था
लम्बे अर्से की बेगानगी
उसका ठौर न होती।
२॰)
गाँव वाले
मुसाफ़िर नहीं हुए होते
तो
भारत आज भी ज़िंदा रहता।
३॰)
हमने
सपनों का महल बनाया
वो मुसाफ़िर थे॰॰॰
तबसे यहाँ सराय है।
४॰)
इश्क़ को मैंने
मंज़िल समझा
खुद को मुसाफ़िर
पर वहाँ
चलना नहीं
बहना था।
- शैलेश भारतवासी
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
13 कविताप्रेमियों का कहना है :
आपने यह लाल नीली थिरकती पट्टी कैसे बनाई है?
आलोक
शोभा महेन्द्रू
---------
कवयित्रि नें जिस तरह मुसाफिर को मंजिल तक पहुँचाया है वह कविता को उँचाई पर ले जाता है। सफर का वर्णन अच्छा है और मंज़िल पर कविता स्पर्श करती है:
पाँव अब क्यों काँपते हैं
हृदय में जब है उजाला
बावले अब धीर धर ले
सामने अब मीत प्यारा
मिल गया तुमको किनारा
- श्रीकान्त मिश्र 'कान्त'
------------------
दर्शन और आध्यात्म का सुन्दर समायोजन।
इस ' रेलगाड़ी ' क़े 'यात्रियों ' ने
' धर्म ' दिया है नाम
इस झूठे दम्भ को
कौन है ' वो'
रक्षक है कौन
अदृश्य सी पटरियाँ
ले जायेंगीं कहाँ
- हरिहर झा
---------
मुसाफिर को बखूबी राह दिखाने का यत्न करती है कविता।
माना ये जग है सफर चार दिन का
गम हों भले हम तो खुशियां भी चाहें
बकवास कोरी और लिबास दर्शन का
भटका नहीं सकता हमारी राहें
- कवि कुलवंत सिंह
---------------
कुलवंत जी, आप सत्य कह रहे हैं कि “यह दुनिया एक रंगमंच है”। रचना उद्धरणों के माध्यम से प्रेरक और मार्गदर्शक बन गयी है।
यह दुनिया एक रंगमंच है
मुसाफ़िर आते हैं,
अपना किरदार निभाते हैं
फ़िर चले जाते हैं ।
- रविकांत पाण्डेय
-------------
मुसाफिर और उसकी यात्रा को संदेश में गूंथ कर अच्छी रचना प्रस्तुत की गयी है:
सबसे सच्चा वही मुसाफ़िर
जो केवल चलना जाने
मायूस अँधेरों से ना हो
बने दीप, जलना जाने
- निखिल आनंद गिरि
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वक्त रुकता नहीं किसी के लिये और जीवन अनवरत चलते जाने का नाम है। काव्य और शिल्प की दृष्टि से सुन्दर रचना:
सदके थे जज्बात सभी….
वक़्त क़ैद था मुट्ठी में जब……
गम खा -खा कर, आंसू पीकर,
फिर कुछ सदियाँ चांद किनारे …
वक़्त क़ैद से निकल चुका था….
एक सफ़र था जीवन तुम बिन,
वक़्त का सच अब बदल चुका था….
और मेरी दो व्याकुल आंखें
जिनमे अब भी बसी हुई है छवि तुम्हारी,
थोड़ी -सी गीली होकर मेरे चहरे पर,
झलक तुम्हारी दे जाती हैं…
इसी भरोसे….
जीवन अब भी रुका नही है,
- रंजना
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रंजना जी नें अपनी परिचित शैली में मुसाफिर को राह दिखायी है। बहुत अच्छी रचना:
शाश्वत सच को यह मन
जिस पल पा जाएगा
चंचल चपल यह मुसाफ़िर
स्वयम् ही तब मंज़िल पा जाएगा !!
- सचिन जैन
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”मैं यूं ही चलता रहा और दूरियां बढ़ती रही” बहुत सुन्दरता से सफर की इस थकान को कवि नें शब्द दिये हैं। फिर भी चलते जाने की ललक कविता का सर्वश्रेष्ठ पहलू है।
एक दिन मैं थक जाउंगा इस सफ़र में,
वो दिन होगा आखिरी मेरी जिदंगी का,
पर मजिंल की दूरियां तब भी यूं कायम रहेगीं,
चाहे कितना भी सफ़र कर लें ये कदम,
क्यूंकि मैं यूं ही चलता रहुगाँ और दूरियां बढ़ती रहेगीं
- प्रगति सक्सैना
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इस रचना नें विषेश प्रभावित किया। कविता मुसाफिर के अनछुवे पहलू उजागर करती है स्पंदित करती है।
उलझे कई जवाबों मैं
एक सुलझा सा सवाल
बन , ज़ाहिर हूँ मैं …
कि.., मुसाफिर हूँ मैं …
मंजिलों का पता नहीं मुझे
चला उन पड़ावों -
की ही खातिर हूँ मैं ..
कि.. , मुसाफिर हूँ मैं …
- प्रवीन कुमार
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प्रवीण जी, इस उत्क़ृष्ट गज़ल के लिये आप बधाई के पात्र हैं। वैसे तो पूरी गज़ल पसंद आयी कुछ पसंदीदा शेर उद्धरित कर रहा हूँ:
काम बाक़ी जल उठा अलाव कर देगा
सिर्फ़ मिट्टी को थपक आकार दे देना
पार जाने का बहुत उत्साह है हरदम
बाढ कैसी हो उसे पतवार दे देना
हंस नहीं सकती ग़ज़ल के ओंठ घायल हैं
मुस्कराने को इसे संसार दे देना
- दिव्या
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अच्छी गज़ल है, मुसाफिर के कई आयाम दर्शाती है:
नये खरबूजों का ढेर है शहर में
उनके ही रंग में ढला वो मुसाफ़िर
रात को अपनी हथेली पर लिये
रात भर उसको मला वो मुसाफ़िर
- गीता पंडित (शमा)
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अनुपम रचना है और आशावादिता से कूट कूट कर भरी भी। बहुत बधाई:
पीने से हर बार स्वयम को, रोक नहीं पायेगे.,
अवनि-अम्बर झुक जायेंगे,जब भी पाँव बढायेंगे,
एक मुसाफिर एक राह,राहें ना बदल कर चलना मन !
एक ही बाती एक दीप की,भोर भये तक जल जायेंगे।
नित-नूतन विश्वासों के संग, टूटे बल का सम्बल बनना,
कीर्तिमान बन विजय-पताका उत्तुंग-शिखर पर फहराना,
धूप-छाँव में जीवन की, अविकल कदम बढाना रे मन !
अपने मन की हरी दूब से, जग भी हरा बनाना मन ।
- अनुराधा श्रीवास्तव
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मन से बडा तो सचमुच कोई मुसाफिर नहीं। बहुत अच्छी रचना।
पल-पल चाहा थाम लूं
रोक लूं,रफ्तारे जिन्दगी
अगले ही पल
मन था व्याकुल
कुछ-कुछ आकुल
बढ चला पुनः
इक नई डगर,इक नया सफर
मन एक मुसाफिर आवारा।
- आलोक कुमार
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राही को राह दिखाने वाली रचना है। अपेक्षानुरूप ही उत्कृष्ट रचना:
इसलिये जगत के हे मुसाफिर
राह पुराने मत अपनाओ ,
बनकर सरिता की लहरें
तुम भी मुझको राह दिखाओ .
- अंजू गर्ग
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मुसाफिर की व्यथा का बहुत आशावादी अंत किया गया है। बधाई।
अंत में उसने यही जाना ,
ज़िंदगी का सफ़र
यू ही है एक दिन गुज़र जाना ,
अगर इसमें है कुछ पाना ,
तो हिम्मत कभी ना हारना........
- विश्व दीपक 'तन्हा'
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तनहा जी की बेहतरीन प्रस्तुति। बधाई:
सुन जिंदगी, उफक से तू सूरज निकाल ले,
यह दिन गया, अगले का तू कागज निकाल ले।
कई रहजन , कई रहबर इस राह में होंगे,
तुझे पाएँगे, तुझे पाने के कुछ चाह में होंगे,
यूँ इश्क और हुश्न का खेल चलता रहेगा,
दुल्हे बदलेंगे, बाराती वही इस विवाह में होंगे।
- तपन शर्मा
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ज़िन्दगी, मुसाफिर और सफर पर बहुत अच्छी प्रस्तुति:
मुसाफ़िर सभी हैं ज़िन्दगी के सफ़र में ,
सिफ़र से शुरू, और समाते सिफ़र में।
ज़िन्दगी चलने का नाम है, मत बैठ मुसाफिर थक कर कहीं,
झेल जा काँटें जो ज़िन्दगी से मिलें, फूल भी संग होंगे उनमें कहीं।
- भूपेन्द्र राघव
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बहुत सुन्दर गीत बन पडा है। बहुत दार्शनिक कथ्य के साथ। बधाई भूपेन्द्र जी:
अजन्मा हूँ मै, या न जाने, जन्म लेकर मर गय
रिक्तता से पूर्ण हूँ, या सर्व कहीं बिखर गया
कारवाँ गुजर गये, या मै अकेला ही चला
न कोल है खगों का, ना निशाने कोई पांव है
उच्क्ष्वास है न कोई दिल मे, ना कोई दवाव है
ज़िन्दगी चली ही नहीं या आ गया ठहराव है
मै मुसाफिर हूँ पता क्या मुसाफिरी पहनाव है
मै मुसाफिर हूँ पता क्या मुसाफिरी पहनाव है..
मै मुसाफिर हू..............
- कुमार आशीष
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सुन्दर रचना:
हमीं नहीं हैं मुसाफिर हैं चांद सूरज भी
असल तो पार हमें जुस्तजू को करना है
हमारे जेहन में पलती है जुगनुओं सी जो
उसी की कौंध में अब हमको वजू करना है
- मोहिन्दर कुमार
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मुसाफिर पर पूरा दर्शन उडेल दिया है आपने। अब उँट के आगे पहाडा आ जाये तो बेचारा मुसाफिर फिर से जूते में लेस बाँध कर निकल ही लेगा। उत्कृष्ट रचना:
चट्टान पूछती थके-हारे राही से
तुमने कितने मील के पत्थर देखे हैं
जितने कदम चले हो तुम अब तक
उससे कहीं अधिक मैने पतझड देखे हैं
रुकने से चलना ही है हरदम बेहतर क्योंकि
जीते सिर्फ़ वही हैं जो यहां खुल कर खेले हैं
- श्रीमति साधना दुग्गड़
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”यह शरीर मुसाफिर खाना है” इस दर्शन को अच्छी तरह प्रस्तुत किया गया है।
यह तेरा न स्थाई ठिकाना है।
बस आना और जाना है।
यह शरीर मुसाफिर खाना है।
मानव तुझे बस यही समझाना है॥
- शैलेश भारतवासी
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क्षणिकायें अच्छी बन पडी हैं। विषेष कर 2 और 3। बधाई।
२॰)
गाँव वाले
मुसाफ़िर नहीं हुए होते
तो
भारत आज भी ज़िंदा रहता।
३॰)
हमने
सपनों का महल बनाया
वो मुसाफ़िर थे॰॰॰
तबसे यहाँ सराय है।
*** राजीव रंजन प्रसाद
भाई मुझे तो प्रवीन और दिव्या की रचनायें पसन्द आईं शैलेश की क्षणिकायें अच्छी बनती- बनती रह गयीं. बाकी कविताओं में जैसे एक ही बात का दोहराव लगा.
Shobha ji,
हाँ कभी आवाज़ कोई
प्रेम की दी जब सुनाई
पाँव मेरे रूक गए थे
राह में थी डगमगाई
Prem cheej hi aisi hai jiski awaj sun kar sabhi ke paanv rook jate hai, sajeev koi bhi jeev ke. Prem ki takat aapne batayi hai
aur haan
अब तो आ पहुँचा समापन
दिख रहा रौशन उजाला
पाँव अब क्यों काँपते हैं
हृदय में जब है उजाला
बावले अब धीर धर ले
सामने अब मीत प्यारा
मिल गया तुमको किनारा
aur yahan per prem ki utkrishta ta bata di gayi hai.
bahot naseeb wali hai aap - bina laksh ke nikal ne per bhi aakhir kar bhi aap ko itna suhana laksh mil gaya. khair, ab to apne mann ko sambhalna aur samjana hi hai, bus dheere chalo ya phir rook jao, ab kinara aa chuka hai...........
anyways good article Shobha ji
मुसाफिर विषय पर इस बार सभी कवियों ने जीवन यात्रा का ही वर्णन किया । शायद यही सबसे अधिक नज़दीकी
अर्थ था ।
श्रीकान्त जी
आपने इस यात्रा को आध्यात्म की ओर मोड़ कर इसे प्रभावी बना दिया है । रेल गाड़ी की उठा-पटक के द्वारा
जीवन की उथल-पुथल का सुन्दर वर्णन किया है । हमेशा की तरह प्रभावी रचना ।
चढ रहे हैं …
उतर रहे है …
चढे ही जा रहे है
कौन है ' वो'
रक्षक है कौन
अदृश्य सी पटरियाँ
ले जायेंगीं कहाँ
मात्र इसे जानने को
झग ड़ने से पूर्व
एक छोटा सा
' मन्त्र ' दुहरा लें
' सहयात्री ' से
' सहिष्णुता ' का
बहुत सु्दर बधाई
हरिहर झा जी
जीवन सफ़र का सुन्दर वर्णन है ।
माना ये जग है सफर चार दिन का
सफर तक में बैठने को सीट भी चाहिये
जग की यात्रा में नहीं हम जानवर
इन्सानो जैसी जिन्दगी भी चाहिये
इन्सानियत का सन्देश देकार समाप्त किया है । बधाई
कवि कुलवन्त सिंह
कुलवन्त जी दुनिया एक रंगमंच है तो उस पर कलाकार आने चाहिए ना कि मुसाफिर । आपने महान कवि
शेक्सपियर की कल्पना ली है । यहाँ सब अपना-अपना पार्ट निभाते हैं । क्षमा करें मैं उनको अभिनेता कहती हूँ ।
रविकान्त जी
विश्राम हेतु हैं रूके यहाँ
फ़िर अपनी राह चलेंगे सब
दिन ढलने से पहले-पहले
पूरा सफ़र, करेंगे सब
आपने दुनिया को मुसाफ़िर खाना माना । सही ही है । इस यात्रा को पूरा करने के लिए कुछ आवश्यक सुझाव
भी दिए । कविता अच्छी बन पड़ी है । बधाई
निखिल आनन्द
जीवन सफ़र के अणमोल पलों को काव्यात्मक रूप में स्मरण किया है । भावों की प्रधानता से कविता प्रभावी
बन गई है ।
कविता मुझे पसन्द आई । कवि को बधाई एवं आशीर्वाद ।
रंजना जी
आपने मन को मुसाफिर माना है । इस दृष्टि से मन की भटकन का सुन्दर चित्रण है ।
शाश्वत सच को यह मन
जिस पल पा जाएगा
चंचल चपल यह मुसाफ़िर
स्वयम् ही तब मंज़िल पा जाएगा !!
शाश्वत सच को पा जाना बहुत ही सुन्दर कल्पना है । रंजना जी बधाई
राजीव रंजन जी
मुसाफिर की यात्रा का वर्णन किया है आपने । उसकी उलझनों और मन की चंचलता प्रभावी बन पड़ी है ।
हर ओर मेरे सन्नाटा है
मैं चीख रहा है क्या कोई?
क्या पास कहीं पर पानी
इन पंक्तियों में कुछ निराशा की झलक दिखाई पड़ी है । राजीव जी मन की जान बचाने के फेर में मत
पड़िए यह बड़े-बड़े साधु सन्त भी नहीं कर पाए ।
सचिन जैन
जीवन यात्रा का वर्णन है । साधारण कल्पना है ।
पर मेरे सपने में थी बस वही मजिंल एक,
मैं तो उसकी तरफ़ बढता रहा पूरी उम्मीद से,
इसी आशा में कि एक दिन मंजिल मेरे कदम चूमेगी,
एक दिन मैं उठकर आसमां को चूम लूँगा,
इन पंक्तियों में कवि का विश्वास झलक रहा है ।
प्रगति सक्सेना
मुसाफिर की बात कुछ अलग ढ़ंग से की है । काव्य सौन्दर्य प्रभाव पूर्ण है ।
मंजिलों का पता नहीं मुझे
चला उन पड़ावों -
की ही खातिर हूँ मैं ..
कि.. , मुसाफिर हूँ मैं …
यथार्थ बोध अच्छा है । बधाई
aaj itna hiiiii
आदरणीय शोभा जी
काव्य पल्लवन के इस अंक में आपकी नयी रचना ने पल्लवन की सार्थकता एक बार फिर सथापित की है आपके शब्दों में शैली में महादेवी वर्मा के काव्य की दिव्य अनुभूति मिलती है शेष रचनाओं में एक दो को छोड़कर सभी ने अच्छा प्रयास किया है। नये हस्ताक्षरों को पढ़ना बहुत ही उत्साहजनक लगा। हां शैलेष जी की क्षणिकायें मुझे भी अच्छी लगीं
"मुसाफिर" ने सच में मुसाफिर बना दिया
पल्लवन की राह में आये नये नये रचनाकारों से मिलकर बहुत अच्छा लगा, सभी ने बहुत उत्कृष्ट रचानायें दीं, वाकई अमूल्य भेंट ...
बस यही प्रार्थना है ईश्वर से कि ..
कारवां फैले गगन तक और बढ़ते जायें हम
कन्धे से कन्धा मिले और कदमों से कदम.
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जय हिन्द, जय हिन्दी
बहुत सुन्दर बन गया है मुसाफ़िर पर संकलन...
सुन्दर - संकलन
बधाई
sabse pahle to mai Kumar Ashish ji ko badhai dena chunga ki unhone chand alfazo ke sahare hi bhawon ko jo rawani dene ki koshish, achchha laga.sath hi sath mai Shbha Mahendru ji aur Shailesh ji ko bhi unke behtarin kavya ke liye badhai dena chahung.
ALOK KUMAR SINGH "Sahil"
"manav" ji ki "BLATKAR KE PRAKAR" PADHI,Ah! nari peeda ka itna sukshm aur marmsparshi vivechan, man romanchit ho utha.
ALOK SINGH "Sahil"
अति-सुन्दर रचनाये है सब...
हर मुसाफिर को एक संदेश
जीवन का माशुक मुसाफिर
जगह जगह आता फिर फिर
गम ही गम अंदर धर धर
होता रह्ता सहज़ गंभीर
मुह बंद कर, ये मुसाफिर
"प्यास" लेले मत हो अधीर
अरविन्द व्यास "प्यास"
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