करते रहे हम इंतज़ार तुम्हारा
गुजरे लम्हे फिर ना गुज़रे
आँखो में तो भरे थे बादल
फिर भी क्यों वो ख़ाली निकले
खुशबू चाँद ,किरण, औ हवा, में
हर शे में बस तुम्हें तलाशा
पर जब झाँका दिल के दरीचां
वहाँ हर अक़्स में तुम ही निकले
गुज़रे वक़्त का साया है तू
फिर भी निहारुं राह तुम्हारी
दीप जलाए अंधेरे दिल में
तू इस राह से शायद निकले
बिखर चुकी हूँ कतरा- कतरा
अब तेज़ हवाओं से डर कैसा
फिर भी दिल मासूम ये सोचे
कि यह तूफ़ान ज़रा थम के निकले !!
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
16 कविताप्रेमियों का कहना है :
बिखर चुकी हूँ कतरा- कतरा
अब तेज़ हवाओं से डर कैसा
कभी ऐसा होता है कि जो हम सोच रहे होते है लेकिंन शब्दो मे नही बाँध पाते ,,उसे कविता मे पाकर उदास मन भी खुश हो जाता है... बहुत सुन्दर कविता...
बढ़िया है जी:
बिखर चुकी हूँ कतरा- कतरा
अब तेज़ हवाओं से डर कैसा
फिर भी दिल मासूम ये सोचे
कि यह तूफ़ान ज़रा थम के निकले !!
--बधाई!!
अक़्स का मतलब क्या होता है?
रंजना जी,
हमें आपका लिखा बहुत पसन्द आया..
गुज़रे वक़्त का साया है तू
फिर भी निहारुं राह तुम्हारी
दीप जलाए अंधेरे दिल में
तू इस राह से शायद निकले
बिखर चुकी हूँ कतरा- कतरा
अब तेज़ हवाओं से डर कैसा
फिर भी दिल मासूम ये सोचे
कि यह तूफ़ान ज़रा थम के निकले !!
निकले तो है... पर लगता है.. अब भी अरमान कम हैं निकले :)
रंजना जी,
विरह वेदना आस लिये..
टूटी, पर विश्वास लिये..
शब्दों की, लडियां प्यारी
हे कलम, जऊँ मै बलिहारी..
कमाल का लिखती हो रंजना जी..
गुजरे लम्हे फिर ना गुज़रे
गुज़रे वक़्त का साया है तू
फिर भी निहारुं राह तुम्हारी
दीप जलाए अंधेरे दिल में
तू इस राह से शायद निकले
बिखर चुकी हूँ कतरा- कतरा
अब तेज़ हवाओं से डर कैसा
बहुत ही सुन्दर कविता है रंजना जी। मासूम मनोभावों को आपके शब्द बहुत सुन्दरता से चित्रित करते हैं। बधाई।
*** राजीव रंजन प्रसाद
waah ranju ji baht sundar nazm hai aur akhiri misra behad pyara hai
बिखर चुकी हूँ कतरा- कतरा
अब तेज़ हवाओं से डर कैसा
फिर भी दिल मासूम ये सोचे
कि यह तूफ़ान ज़रा थम के निकले !!
बहुत खूब रंजना जी
आपकी टू लेखनी की तारीफ करने के लिए अल्फाज़ नही हैं अब तोः मेरे पास. बहुत ही उम्दा लिखा है आपने.
गुज़रे वक़्त का साया है तू
फिर भी निहारुं राह तुम्हारी
दीप जलाए अंधेरे दिल में
तू इस राह से शायद निकले
वाह वाह
रंजना जी !
अब तेज़ हवाओं से डर कैसा
फिर भी दिल मासूम ये सोचे
कि यह तूफ़ान ज़रा थम के निकले !!
..
वाह ... !!
एक और भावपूर्ण रचना का आपकी कलम से
स्वागत
"कि यह तूफ़ान ज़रा थम के निकले !!"
रंजू जी,'तूफान से पहले की शांति' को आपकी कविता "इंतजार" ने हलचल मचा दी है। अब इसे आपकी लेखनी की जादूगरी कहूं या सर्द हवाओं की सदा ?
वाकई इस इंतजार का मजा ही कुछ और है सच लिखा भावनाओं को शब्दों में गहनता से उतारा है…।
रंजना जी
बहुत सुन्दर प्रेम भरी कविता है । नारी हृदय की वेशालता का चित्रण किया है ।
बिखर चुकी हूँ कतरा- कतरा
अब तेज़ हवाओं से डर कैसा
फिर भी दिल मासूम ये सोचे
कि यह तूफ़ान ज़रा थम के निकले !!
किन्तु याद रखें निराश होना उसका स्वभाव नहीं । बधाई
आँखो में तो भरे थे बादल
फिर भी क्यों वो ख़ाली निकले
खुशबू चाँद ,किरण, औ हवा, में
हर शे में बस तुम्हें तलाशा
दीप जलाए अंधेरे दिल में
तू इस राह से शायद निकले
बिखर चुकी हूँ कतरा- कतरा
अब तेज़ हवाओं से डर कैसा
फिर भी दिल मासूम ये सोचे
कि यह तूफ़ान ज़रा थम के निकले
रंजू जी,
सुंदर रचना है।प्रेम की अनुभूति एवं पराकाष्ठा दोनों देदीप्यमान है। अच्छे भाव हैं। बधाई स्वीकारें।
(थोड़ी आलोचना-
जब तुकबंदी लिखें तो तुकबंदी को निबाहें। थोड़ी कमजोर है , इस मामले में यह कविता। :) आप समझ गई होंगी।
)
-विश्व दीपक 'तन्हा'
रंजू जी,
आँखो में तो भरे थे बादल
फिर भी क्यों वो ख़ाली निकले
खुशबू चाँद ,किरण, औ हवा, में
हर शे में बस तुम्हें तलाशा
दीप जलाए अंधेरे दिल में
तू इस राह से शायद निकले
बिखर चुकी हूँ कतरा- कतरा
अब तेज़ हवाओं से डर कैसा
सुंदर भाव ....
बधाई स्वीकारें ।
सुंदर, बहुत बढ़िया!!
अक्स का मतलब परछाईं होता है। इसलिए यहाँ अक्स का प्रयोग चिंत्य है। वैसे आपने इंतज़ार को हर एक छंद में निबाहा है। दिल से लिखी गई रचना है। मुझे पसंद आई।
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)