प्रतियोगिता की कविताएँ प्रकाशित करते-करते हम १६वें कविता तक पहुँच गये हैं। इस स्थान के कवि तपेश महेश्वरी जिन्होंने विजेता कवियों की कविताओं पर चित्र भी बनाया है, ने पहली बार हमारी प्रतियोगिता में हिस्सा लिया और अच्छी बात यह कि इनकी कविता ने १६वाँ स्थान भी पा लिया। कई प्रतिभागी अपनी कविताओं को बिना शीर्षक ही प्रेषित कर देते हैं। इनकी यह कविता भी उसी श्रेणी की कविता है।
कविता- सितम्बर माह की प्रतियोगिता की १६वीं भेंट
कवयिता- तपेश महेश्वरी
एक दिन बैठे निश्चल मन ने
सोचा थोड़ा सा हास्य पढ़ें
नीरस होते अपने मन को
हँसी का प्यारा आभास तो दें
ऐसी बातों को मन में रख,
मैं लगा ढूंढ़ने हास्य का रस
जनमानस की रचनाओं में
पर हाय री ये फूटी किस्मत
उन लोगों की रचनाओं में,
था क्रोध, प्रणय और ज्ञान भाव
थी राजनीति, थी नीरसता
था वैचारिक मतभेद भाव
यहाँ हास्य नहीं, कुछ और मिला
पर उसका तो है ज्ञान मुझे
ये क्रोध प्यार और सत्य कटु
इनका तो है आभास मुझे
सोचा चलो मैं ही हास्य करूँ
नीरस मन को एक राह तो दूँ
पर कैसे लिखूँ, ये सोच रहा
वैचारिक मन अब जीत रहा
जहाँ द्वेष दंभ और मार काट
वहां हास्य कहां लिख पाऊँगा
जहां भूख बाढ़ और लाचारी
मैं हास्य कहां से लाऊँगा ?
दो शव्द नहीं मिलते मुझको,
क्या कभी काव्य कर पाउँगा ?
व्याकुल विचलित मन से आख़िर,
क्या कभी हास्य लिख पाऊँगा ?
मैं हास्य कहां से लाऊँगा ? ...
मैं हास्य कहां से लाऊँगा ?
रिज़ल्ट-कार्ड
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प्रथम चरण के ज़ज़मेंट में मिले अंक- ७॰५, ७॰५, ६, ७॰५, ६
औसत अंक- ६॰८
स्थान- तेरहवाँ
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द्वितीय चरण के ज़ज़मेंट में मिले अंक-६॰२५, ८॰२, ५॰४, ६॰८ (पिछले चरण का औसत)
औसत अंक- ६॰६६२५
स्थान- सोलहवाँ
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6 कविताप्रेमियों का कहना है :
जहाँ द्वेष दंभ और मार काट
वहां हास्य कहां लिख पाऊँगा
जहां भूख बाढ़ और लाचारी
मैं हास्य कहां से लाऊँगा ?
सचमुच, तपेश जी! ऐसे माहौल में हास्य ढूँढ पाना बहुत मुश्किल होता जा रहा है. अच्छी लगी आपकी रचना. आशा है कि भविष्य में आपकी और भी सुंदर रचनायें पढ़ने को मिलेंगीं.
बधाई स्वीकारें!
- अजय यादव
http://ajayyadavace.blogspot.com/
http://merekavimitra.blogspot.com/
बहुत सुंदर रचना है तपेश।और अगर आप हास्य ढूँढ रहे हैं तो मैं आपसे गुजारिश करूँगा कि आप ही कुछ ऐसा करें कि हिंद-युग्म पर और विश्व में हास्य छा जाये। ऐसी रचना जो मुरझाये चेहरे में हँसी ला दे।
अगली बार भी आपकी कविता पढ़ने को मिलेगी यही आशा है।
तपेश जी,
हास्य मिले तो हमें भी मिलवाईयेगा।
व्याकुल विचलित मन से आख़िर,
क्या कभी हास्य लिख पाऊँगा ?
मैं हास्य कहां से लाऊँगा ? ...
कविता का कथ्य गंभीर और नितांत स्तरीय है। बधाई।
*** राजीव रंजन प्रसाद
मित्र तपेश जी !
मंहगाई, अनाचार, सभी तरह के आतिचार एवं सबका बड़ा भाई सभी प्रकार का भ्रष्टाचाऱ, के काल में आपको हास्य कैसे मिलेगा बन्धु. क्योंकि आज सभ्याचार प्रतिबंधित होकर रो रहा है हां बलाकार के सारे बन्धु बान्धव अवश्य, कौरव कुल की भांति बढ़ते हुये एक नये महाभारत के होने से पहले की शान्ति काल में ठहाके लागाते जा रहे हैं
रचना का गांभीर्य बहुत ही महत्वपूर्ण है. शेष काव्य शिल्प पर कोई टिप्पणी की आवश्यकता इसी द्रष्टि से गौण है
तपेश जी,
आजकल के परिवेश में हास्य ढूँढ़ना तो मुश्किल है, लेकिन असम्भव नहीं। खोजिए-खोजिए, कहीं न कहीं ज़रूर मिलेगा।
कथ्य की दृष्टि से कविता में कोई नयापन नहीं है। एक नये कविताकार के रूप में संभावनाओं का आकाश दीखता है। आगे कोशिश करते रहें।
तपेश जी
बहुत अच्छे । सच में आज हास्य फूटता नहीं । परिस्थितियाँ ही ऐसी हैं ।
पर कैसे लिखूँ, ये सोच रहा
वैचारिक मन अब जीत रहा
जहाँ द्वेष दंभ और मार काट
वहां हास्य कहां लिख पाऊँगा
जहां भूख बाढ़ और लाचारी
मैं हास्य कहां से लाऊँगा ?
दो शव्द नहीं मिलते मुझको,
बधाई ।
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