बिखरे हुए टुकड़े
टूटी हुई नैया के
बिखरे हुए टुकड़े
जुड़ने की तमन्ना में
पास आ जाते हैं
पर नदिया की धारा
हर टुकड़े को
एक अलग राह,
एक अलग दिशा
दे देती है ।
क्या टूटे हुए शीशे भी
कभी जुड़ा करते हैं ?
- २२ मार्च, १९९६
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याद तुम्हारी
दूर क्षितिज पर
जब लालिमा छा जाती है,
घोंसले में लौट
जब चिड़ियाँ चहचहाती है,
दिन ढ़ल जाता है
और रात घिर आती है,
तो याद तुम्हारी
ह्रदय-द्वार पर
दस्तक दे जाती है
- २४ अप्रैल, १९९४
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मिठास
नंगे पाँव
रेगिस्तान के रेत पर
थोड़ी छाँव के जरूरत है ।
कड़वी निबौड़ियों और
औशधियों के बीच
कुछ मिठास की ज़रूरत है ।
- मई २००७
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- सीमा कुमार
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13 कविताप्रेमियों का कहना है :
सीमा जी,
मन की टूटन व बिखराव, प्रतीक्षा व आशारत मन की दशा का सुन्दर चित्रण करने में आप सफ़ल रही हैं. बधाई
सीमा जी,
भाव अच्छे बन पड़े हैं, पर शिकायत फिर से पुरानी वाली दुहराना चाहूँगा। बहुत सारे शब्द redundunt हैं और कथ्य के प्रवाह को अवरूद्ध कर रहे हैं। जैसे-
’बिखरे हुए टुकड़े ’
टूटी नैया के
बिखरे टुकड़े
जुड़ने को
पास आ जाते हैं,
पर धारा
हर एक को
एक अलग राह,
एक अलग दिशा
दे देती है ।
क्या टूटे शीशे भी
कभी जुड़ा करते हैं!
दूसरी वाली उतनी प्रभावी व सशक्त रचना नही बन पाई या यूँ कहूँ कि आपके स्तर की नही मालूम पड़ रही।
’मिठास’ के दोनो रूपको मे सामंजस्य बैठाना थोड़ा मुश्किल पड़ रहा है।... सहरा की जलती रेत व स्वास्थ्य-लाभ के लिए ली हुई चीजें....... आप खुद समझ सकती हैं।
एक बार माफी की गुजारिश रचना के साथ छेड़-छाड़ करने के लिए (but certainly it was not eve-teasing!!!!!! )
आपकी अगली रचना के इंतजार मे,
आदर सहित,
श्रवण
सीमा जी..
तीनों ही अनुभूतियाँ स्पर्श करती है। सुन्दर रचना।
*** राजीव रंजन प्रसाद
क्या टूटे हुए शीशे भी
कभी जुड़ा करते हैं ?
तो याद तुम्हारी
ह्रदय-द्वार पर
दस्तक दे जाती है
कड़वी निबौड़ियों और
औशधियों के बीच
कुछ मिठास की ज़रूरत है
अच्छी रचनाएँ हैं। क्षणिकाएँ पुरानी हैं, आप इस विधा में फिर से जुड़ जाएँ , तो ये आपकी अपनी हो जाएँगी। आपकी अगली प्रस्तुति के इंतज़ार में-
विश्व दीपक 'तन्हा"
सीमा जी!
दिन ढ़ल जाता है
और रात घिर आती है,
तो याद तुम्हारी
ह्रदय-द्वार पर
दस्तक दे जाती है
अच्छी प्रस्तुति हैं। भाव संप्रेषण बहुत अचछा है।
शुभकामनायें
सीमा जी,
सुन्दर लिखा है आपने।
टूटी हुई नैया के
बिखरे हुए टुकड़े
जुड़ने की तमन्ना में
पास आ जाते हैं
पर नदिया की धारा
हर टुकड़े को
एक अलग राह,
एक अलग दिशा
दे देती है ।
क्या टूटे हुए शीशे भी
कभी जुड़ा करते हैं ?
ये बहुत पसंद आया।
पुरानी कविता है, लेकिन प्रकाशित करते वक़्त लगता है आपने टंकण की अशुद्धियों पर भी ध्यान नहीं दिया।
'नदिया' कोई शब्द नहीं होता, हाँ नदी का बहुवचन 'नदियाँ' अवश्य होता है। लेकिन वहाँ एकवचन की ही ज़रूरत लग रही है।
जुडा- जुड़ा
ढ़ल- ढल
ह्रदय- हृदय
थोड़ी छाँव के जरूरत है- थोड़ी छाँव की जरूरत है
औशधियों- औषधियों
पहली वाली पर टिप्पणी करना चाहूँगा। टूटे हुए नाव के माध्यम से आपने इस स्थिति में रहने वाले परिवारों, रिश्तों और भी बहुत कुछ का अच्छा विश्लेषण किया है।
मगर अंत में 'टूटे शीशे के टुकड़ों न जुड़ पाने पर' चिंता व्यक्त करना अखरता है।
सीमा जी,
सुन्दर रचना।
सुन्दर चित्रण....
मनो-दशा का ....
बधाई
सीमा जी इस बार नयेपन का अभाव लगा .... पहली क्षणिका कुछ अच्छी लगी, मगर फ़िर भी कुछ मज़ा नही आया, आपकी पिछली रचना ने शायाद मेरी उम्मीदें बढ़ा दी थी
सीमा जी
बहुत सुन्दर लिखा है । विशेष रूप से निम्न पंक्तियाँ प्रभावशाली रहीं -
मिठास
नंगे पाँव
रेगिस्तान के रेत पर
थोड़ी छाँव के जरूरत है ।
कड़वी निबौड़ियों और
औशधियों के बीच
कुछ मिठास की ज़रूरत
हार्दिक बधाई
aapko bhi achi kavita ke liye thode prayas karne ki jarurat hai.
देरी के लिए क्षमा चाहूँगा सीमा जी।
मिठास अच्छी लगी मुझे।
वाह क्या बात है -
टूटी हुई नैया के
बिखरे हुए टुकडे
जुड़ने की तमन्ना मे
पास आ जाते है
क्या tute हुए टुकडे भी कभी जुडा करते हैं
बेहतरीन.....
ekbar फ़िर याद तुम्हारी aur mithas,क्या khub rachi है
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