आशीष दुबे का नाम 'हिन्द-युग्म यूनिकवि एवम् यूनिपाठक प्रतियोगिता' के लिए नया नहीं है। लगातार कई बार से वो इस प्रतियोगिता में भाग लेते रहे हैं। लेकिन कभी टॉप ५ में रहते हैं, कभी टॉप १० में तो कभी इससे बाहर। हो सकता है इनकी काव्य विविधता को हमारे जज ही न समझ पाते हों। जो भी हो, जजों ने इनकी कविता को जितना समझा है उससे इन्हें ग्यारहवाँ स्थान दिया, अब असली जज पाठकों की बारी है।
रचना- ग़ज़ल
रचयिता- आशीष दुबे, फ़ैज़ाबाद (उत्तर प्रदेश)
हमें सूझेगी क्यों नयनों की भाषा
कि हम थोड़ा-सा अब पढ़-लिख गये हैं।
यहाँ शतरंज की गोटी सरीखे
कलम के सूरमा सब बिछ गये हैं।
कि अब है इश्तहारों का जमाना
सुखन क्या.. जब सुखनवर बिक गये हैं।
कलम दुहराए खुद को क्या गजब है
अक्ल के तार शायद खिंच गये हैं।
उन्हें हम क्या कहें जो नासमझ हैं
समझदारों के पीछे पिस गये हैं।
रिज़ल्ट-कार्ड
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प्रथम चरण के ज़ज़मेंट में मिले अंक- ८॰७५, ७॰४४८८६३
औसत अंक- ८॰०९९४३१
स्थान- सोलहवाँ
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द्वितीय चरण के ज़ज़मेंट में मिले अंक-८, ८॰०९९४३१ (पिछले चरण का औसत)
औसत अंक- ८॰०४९७१५
स्थान- पाँचवाँ
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तृतीय चरण के ज़ज़ की टिप्पणी-ग़ज़ल एक ऐसी शिल्पगत विधा है, जिसमें कथन को चामत्कारिक बनाने के लिए बहुत अभ्यास चाहिए। व्यंग्य का प्रयास अभी साधना की बहुत अपेक्षा करता है।
अंक- ४
स्थान- ग्यारहवाँ
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6 कविताप्रेमियों का कहना है :
आशीष जी
बहुत ही सुन्दर कविता है । ऊर्दू के शब्दों की बहुतायत के कारण गज़ल का मज़ा भी मिल रहा है ।
आप प्रतीकात्मक शब्दों का सुन्दर प्रयोग करते हैं । कुछ पंक्तियाँ तो बहुत ही बढ़िया है ---
हमें सूझेगी क्यों नयनों की भाषा
कि हम थोड़ा-सा अब पढ़-लिख गये हैं।
यहाँ शतरंज की गोटी सरीखे
कलम के सूरमा सब बिछ गये हैं।
एक-एक शब्द कसा हुआ है । बधाई
आशीष जी,
गज़ल के भाव पाठक से सीधा संबंध बना रहे हैं। गहरे भाव हैं। कई शेर अच्छे बन पडे हैं:
यहाँ शतरंज की गोटी सरीखे
कलम के सूरमा सब बिछ गये हैं।
बहुत खूब!!!
*** राजीव रंजन प्रसाद
शिल्प पर तो जज लोग कह चुके हैं। मैं कहूँगा आपने व्यंग्य बहुत धार के साथ किया है। विशेषकर-
कलम दुहराए खुद को क्या गजब है
अक्ल के तार शायद खिंच गये हैं।
आशीष जी,
अच्छा व्यंग्य है।
हमें सूझेगी क्यों नयनों की भाषा
कि हम थोड़ा-सा अब पढ़-लिख गये हैं।
बरबस मुँह से वाह निकलता है।
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