हमारी कोशिश है- कम से कम प्रतियोगिता की २० कविताएँ तो युग्म पर प्रकाशित हों ही। इसीलिए आज हम लेकर आये हैं अगस्त माह की प्रतियोगिता से १७वीं पायदान की कविता। इसके रचयिता हैं हमारे सक्रियतम पाठक में से एक 'पीयूष पण्डया' जिनकी कविता 'नाम' जुलाई माह की प्रतियोगिता में सातवें स्थान पर थी।
कविता- अतीत
कवयिता- पीयूष पण्डया, होशंगाबाद (मध्य प्रदेश)
मेरा अतीत,
दुखता गीत।
ये आँखों के मोती,
जिन्हें चूने नहीं देना चाहता मैं,
उतने ही क़ीमती ,
जितना मेरा अतीत.
पूरक है परस्पर,
ढाँप लेता हूँ दोनों कर ,
मुँह पर।
माँ-बाबा की आवाज़ें,
अब भी प्रतिध्वानित है मस्तिष्क में,
जैसा मेरा अतीत है।
मेरी नाकामियों के साथ,
बहता है शिराओं में,
और
उपलब्धियों के साथ धमनियों में भी
पर अफ़सोस ,
धमनियाँ तो हैं ही नहीं शरीर में।
हृदय की धड़कन नहीं ,
गुँजन है
इतिहास के अट्टहास की।
हँसता है मुझ पर ,
"हा हा हा!!
तुम कुछ नहीं कर पाए ,
और रह गये अकेले"
ठेलता हूँ अतीत के ठेले।
जीवन का कोई अर्थ नहीं है
सपनों का भी नहीं,
अपनों का भी नहीं
इन्हें होम कर देता हूँ ,
शांति -यज्ञ में।
सच्चे सपने देवताओं को अर्पित,
और झूठे,
पित्रों को.
स्वाहा स्वाहा स्वाहा,
स्वधा स्वधा स्वधा .
शांति शांति शांति.
पर ना जाने क्यूं ,
देवताओं को कुछ मिलता ही नहीं?
पर मैं ख़ुश हूँ.........
मेरा अट्टहास गुंजयमान है,
वर्तमान में,
अन्तरिक्ष में.
हा हा हा..................
रिज़ल्ट-कार्ड
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प्रथम चरण के ज़ज़मेंट में मिले अंक- ९, ८॰६३६३६३
औसत अंक- ८॰८१८१८१
स्थान- चौथा
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द्वितीय चरण के ज़ज़मेंट में मिले अंक-५॰७५, ८॰८१८१८१(पिछले चरण का औसत)
औसत अंक- ७॰२८४०९०
स्थान- सत्रहवाँ
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8 कविताप्रेमियों का कहना है :
कविता निस्संदेह उच्च कोटि की है इसमें कोई दो राय नही| भावनाओं का प्रवाह एक श्वास में पढ़ डालने को विवश किए देता है |
वाह ...
"जीवन का कोई अर्थ नहीं है
सपनों का भी नहीं,
अपनों का भी नहीं
इन्हें होम कर देता हूँ ,
शांति -यज्ञ में।
सच्चे सपने देवताओं को अर्पित,
और झूठे,
पित्रों को.
स्वाहा स्वाहा स्वाहा"
पीयूष जी आपसे ऐसी ही कविता की आशा थी | कविता सशक्त है| हो सकता है की कुछ कमियाँ हों पर 17 वाँ स्थान मुझे आश्चर्य में डालने वाला है |
ख़ैर जो भी हो पीयूष जी आपको निराश होने की ज़रूरत नही इस बार इससे भी अच्छी कविता का इंतज़ार रहेगा ....
पीयूष जी,
अच्छी कविता है।
इन्हें होम कर देता हूँ ,
शांति -यज्ञ में।
सच्चे सपने देवताओं को अर्पित,
और झूठे,
पित्रों को.
स्वाहा स्वाहा स्वाहा,
स्वधा स्वधा स्वधा .
शांति शांति शांति.
पर ना जाने क्यूं ,
देवताओं को कुछ मिलता ही नहीं?
पर मैं ख़ुश हूँ.........
बहुत खूब।
*** राजीव रंजन प्रसाद
पीयूष जी
बहुत ही सहज अभिव्यक्ति है । बहुत ही सरल शब्दों में आपने स्वयं को अभिव्यक्त किया है । इससे कविता
बहुत प्रभावित कर रही है । ऐसा लग रहा है कि आप अपने अनुभव बाँट रहे हैं ।
बधाई स्वीकार करें ।
पीयूष जी,
सुन्दर लिखा है । कविता की सहजता ने और चमत्कार उत्त्पन्न कर दिया है।
जीवन का कोई अर्थ नहीं है
सपनों का भी नहीं,
अपनों का भी नहीं
इन्हें होम कर देता हूँ ,
शांति -यज्ञ में।
सच्चे सपने देवताओं को अर्पित,
और झूठे,
पित्रों को.
स्वाहा स्वाहा स्वाहा,
स्वधा स्वधा स्वधा .
शांति शांति शांति.
बहुत अच्छी लगी।
पीयूष जी, कविता प्रभावित करती है -अतीत, जीवन ,सपनें,और अर्पण सभी कुछ ।
बधाई !!!!!!
सहज एवं सुन्दर कविता...
पियूषजी,
इतनी खूबसूरत कविता के 17वें पायदान पर होना, यूनिकवि प्रतियोगिता के प्रतिभागियों का उच्चस्तर दिखलाता है...
जीवन का कोई अर्थ नहीं है
सपनों का भी नहीं,
अपनों का भी नहीं
इन्हें होम कर देता हूँ ,
शांति -यज्ञ में।
सच्चे सपने देवताओं को अर्पित,
और झूठे,
पित्रों को.
स्वाहा स्वाहा स्वाहा
सुन्दर, अतिसुन्दर, बहुत-बहुत बधाई!!!
आपकी रचना का आधारस्तम्भ स्पष्ट नहीं है, फ़िर भी यह मन के किसी कोने पर प्रहार करती हुई निकल जाती है। आपकी कविता में तेवर हैं। और शायद इतना ही काफ़ी है।
पीयूष जी ,
जीवन का कोई अर्थ नहीं है
सपनों का भी नहीं,
अपनों का भी नहीं
इन्हें होम कर देता हूँ ,
शांति -यज्ञ में।
सच्चे सपने देवताओं को अर्पित,
और झूठे,
पित्रों को.
स्वाहा स्वाहा स्वाहा
अतिसुन्दर
बधाई !
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