अगस्त माह की प्रतियोगिता में १३ कविताओं को तृतीय चरण तक जाने का अवसर मिला था। पहले हम टॉप १० कविताएँ प्रकाशित करते थे। अब प्रतिभागी बढ़े हैं, प्रतिस्पर्धा बढ़ी है। मतलब मात्र तृतीय चरण तक रुकना एक तरह की बेमानी होगी। इसलिए आज से शुरू कर रहे है दूसरे दौर की कविताओं का प्रकाशन।
कविता- एक भागीरथ फिर चाहिए
कवयिता- संजय लोधी
खिला था
तेरे ही
गुलशन
में मेरी
प्रीत का
गुल,
बन रहा अब
गुलशन
सहरा
मुझे
प्रीत का
सावन फिर
चाहिये।
राह भर
साथ की
बात न
थी,जो तुम
मंज़िल
आते ही
बिछड़ गये,
वो सर्द
राहों
में
बाहों
में तेरा
लपेटना
मुझे फिर
चाहिये.
नहीं
मिलता अब
पेड़ों पर
चढ़ना,वो
तितलियों
को पकड़ना,
वो
अलमस्त, मासूम, भोला
बचपन
मुझे फिर
चाहिये।
पंछी
पिंजड़े
में कैद
होकर
उड़ने की
बात कैसे
करेगा,
पर होना
ही काफ़ी
नहीं
उड़ने के
लिये
मुठ्ठी
भर आसमां
फिर
चाहिये।
वो तो
आवाज़ आती
है हर
उजड़े हुए
मकां और
खंडहर से,
दिल की
आवाज़ दिल
तक
पहुंचे
एक नया
ताजमहल
फिर
चाहिये।
ना जाने
कितने
फँस चुके
हैं फिर
माया
मोहजाल
में,
तारने के
लिये
गंगा तो
आज भी है
एक
भागीरथ
फिर
चाहिये।
रिज़ल्ट-कार्ड
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प्रथम चरण के ज़ज़मेंट में मिले अंक- ७॰७१८७५, ८॰१४२८५७
औसत अंक- ७॰९३०८०३
स्थान- अठारहवाँ
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द्वितीय चरण के ज़ज़मेंट में मिले अंक-७, ७॰९३०८०३(पिछले चरण का औसत)
औसत अंक- ७॰४६५४०१
स्थान- चौदहवाँ
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8 कविताप्रेमियों का कहना है :
संजय जी,
अच्छा लिखा है।
पंछी
पिंजड़े
में कैद
होकर
उड़ने की
बात कैसे
करेगा,
पर होना
ही काफ़ी
नहीं
उड़ने के
लिये
मुठ्ठी
भर आसमां
फिर
चाहिये।
तारने के
लिये
गंगा तो
आज भी है
एक
भागीरथ
फिर
चाहिये।
यथार्थपरक पंक्तियाँ हैं, बधाई।
संजय जी,
"एक भागीरथ फिर चाहिए" अच्छी प्रस्तुति है, अनूठा शिल्प है।
*** राजीव रंजन प्रसाद
संजय जी!
....
ना जाने
कितने
फँस चुके
हैं फिर
माया
मोहजाल
में,
तारने के
लिये
गंगा तो
आज भी है
एक
भागीरथ
फिर
चाहिये।
अच्छी प्रस्तुति
शुभकामनायें
संजय जी,
मुझे लगा कि आपने कविता को एक-दो शब्दों की पंक्तियाँ में तोड़कर कुछ नया प्रयोग किया है, लेकिन जब ग़ौर से पढ़ा और नीचे की तरह इनको नया रूप दिया तो यह गीतिका हो गई।
खिला था तेरे ही गुलशन में मेरी प्रीत का गुल,
बन रहा अब गुलशन सहरा मुझे प्रीत का सावन फिर चाहिये।
राह भर साथ की बात न थी, जो तुम मंज़िल आते ही बिछड़ गये,
वो सर्द राहों में बाहों में तेरा लपेटना मुझे फिर चाहिये.
नहीं मिलता अब पेड़ों पर चढ़ना, वो तितलियों को पकड़ना,
वो अलमस्त, मासूम, भोला बचपन मुझे फिर चाहिये।
पंछी पिंजड़े में कैद होकर उड़ने की बात कैसे करेगा,
पर होना ही काफ़ी नहीं उड़ने के लिये मुठ्ठी भर आसमां फिर चाहिये।
वो तो आवाज़ आती है हर उजड़े हुए मकां और खंडहर से,
दिल की आवाज़ दिल तक पहुंचे एक नया ताजमहल फिर चाहिये।
ना जाने कितने फँस चुके हैं फिर माया मोहजाल में,
तारने के लिये गंगा तो आज भी है एक भागीरथ फिर चाहिये।
कविता बहुत बढ़िया है। मुझे भी आपका वाला ही बचपन चाहिए।
मुझे तो प्रारम्भ में कुछ खास पसन्द नहीं आई थी । शायद इस तरह के प्रयोग के कारण किन्तु शैलेष जी का
धन्यवाद है कि उन्होने कविता को थोड़ा स्पष्ट कर दिया । भाव तो अच्छे ही हैं । कवि को बधाई
संजय जी,
अच्छा लिखा है।
उड़ने के
लिये
मुठ्ठी
भर आसमां
फिर
चाहिये।
तारने के
लिये
गंगा तो
आज भी है
एक
भागीरथ
फिर
चाहिये।
मुझे भी बचपन चाहिए।
बधाई।
संजय जी,
आज की परिस्थियों में एक नहीं अनेक भागिरथ चाहियें जो इस धरती को रहने लायक जगह बना सकें. सुन्दर भाव भरी रचना के लिये बधाई
यह कविता हिन्द युग्म के पोडकास्ट पर सुनें. http://hindyugm.mypodcast.com/2007/09/post-42275.html
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