मैं हर दिन
तारों सी झिलमिल ।
आँखें मेरी
सदैव स्वपनिल -
रोज पूछती मुझसे
आज कौन सा
स्वप्न सजाऊँ ?
मिटाना है तुम्हें
कौन सा अंधियारा ?
किस अंतर्द्वन्द्व में
दीप जलाऊँ,
करे जो रौशन
और आशान्वित राहें ।
रोज़ जलाती हूँ खुद को
रोज़ प्रज्वलित
होती है एक आग
इस आशा में -
स्वयं के ही
हवन कुंड में
स्वाहा हो जाऊँ
और उस राख से
पुनर्निमित हो
निकल आऊँ निर्मल मैं ।
फीनिक्स की तरह ।
देह - विकार, कष्ट, क्लेश,
लोभ, क्षोभ और अंतर्द्वन्द्व
नहीं मिटते इस जीवन में ।
कभी - कभी मिट जाता है
आत्मा का एहसास ।
नहीं मिटती क्यों
अपने ही दुर्गुणों की,
दुर्बलताओं की पोथी ?
क्यों पन्ने उसमें हर दिन
जुड़ते ही जाते ?
क्या हर अर्जुन को
मिलते हैं कृष्ण ?
और जो अर्जुन
पांडव - बहन होती
तब भी क्या उसे
मिलते कृष्ण,
मिलती गीता ?
- सीमा कुमार
४ सितंबर २००७
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15 कविताप्रेमियों का कहना है :
सीमा जी
आपने बहुत ही प्यारी और भाव विभोर कर देने वाली कविता लिखी है । सारा द्वन्द्व शब्दों
में उतर आया है । अन्तिम पंक्तियाँ तो कमाल बन पड़ी हैं । आप सही कहती हैं - सबको
कृष्ण जैसा सहायक नहीं मिलता । अपनी कमजोरियों से खूद ही लड़ना होगा । मुझे विशेष
रूप से निम्न पंक्तियाँ पसन्द आई -
देह - विकार, कष्ट, क्लेश,
लोभ, क्षोभ और अंतर्द्वन्द्व
नहीं मिटते इस जीवन में ।
कभी - कभी मिट जाता है
आत्मा का एहसास ।
नहीं मिटती क्यों
अपने ही दुर्गुणों की,
दुर्बलताओं की पोथी ?
क्यों पन्ने उसमें हर दिन
जुड़ते ही जाते ?
क्या हर अर्जुन को
मिलते हैं कृष्ण ?
और जो अर्जुन
पांडव - बहन होती
तब भी क्या उसे
मिलते कृष्ण,
मिलती गीता ?
पुनः-पुनः बधाई ।
देह - विकार, कष्ट, क्लेश,
लोभ, क्षोभ और अंतर्द्वन्द्व
नहीं मिटते इस जीवन में ।
कभी - कभी मिट जाता है
आत्मा का एहसास ।
दर्शन उडेल दिया है आपने सीमा ही, बहुत अच्छी रचना।
*** राजीव रंजन प्रसाद
इस रचना के लिए बहुत सार्थक शीर्षक है अंतर्द्वन्द्व
कई पंक्तियां बहुत ही पसंद आई
देह - विकार, कष्ट, क्लेश,
लोभ, क्षोभ और अंतर्द्वन्द्व
नहीं मिटते इस जीवन में ।
कभी - कभी मिट जाता है
आत्मा का एहसास ...
बहुत सुंदर ...बधाई सुंदर रचना के लिए !!
सीमा जी,
सुन्दर रचना!
रोज़ जलाती हूँ खुद को
रोज़ प्रज्वलित
होती है एक आग
इस आशा में -
स्वयं के ही
हवन कुंड में
स्वाहा हो जाऊँ
और उस राख से
पुनर्निमित हो
निकल आऊँ निर्मल मैं ।
फीनिक्स की तरह ।
ये पंक्तियाँ मार्मिक बन पड़ी हैं.
मैं हर दिन
तारों सी झिलमिल ।
आँखें मेरी
सदैव स्वपनिल -
रोज पूछती मुझसे
आज कौन सा
स्वप्न सजाऊँ ?
मिटाना है तुम्हें
कौन सा अंधियारा ?
किस अंतर्द्वन्द्व में
दीप जलाऊँ,
करे जो रौशन
और आशान्वित राहें ।
वाह सीमा जी हैरान कर दिया आपने, मैंने बहुत कम पढ़ा था अब तक आपको, पर अब से हर बार पढूंगा, बहुत बहुत बधाई
मैं हर दिन
तारों सी झिलमिल ।
आँखें मेरी
सदैव स्वपनिल -
रोज पूछती मुझसे
आज कौन सा
स्वप्न सजाऊँ ?
मिटाना है तुम्हें
कौन सा अंधियारा ?
किस अंतर्द्वन्द्व में
दीप जलाऊँ,
करे जो रौशन
और आशान्वित राहें
बहुत खूबसूरती से चिन्तन-मनन करके आपने हर शब्द का सयोंजन किया है...
देह - विकार, कष्ट, क्लेश,
लोभ, क्षोभ और अंतर्द्वन्द्व
नहीं मिटते इस जीवन में ।
कभी - कभी मिट जाता है
आत्मा का एहसास ।
आत्मिक शान्ति प्राप्त होती है जब इन सवालो का जवाब मनुष्य पा जाता है...मगर अंत तक जूझना ही पड़ता है उसे अंतर्मन से...
शानू
सीमा जी
आप ने न सिर्फ़ एक बहुत ही मार्मिक कविता लिखि है, बल्कि कुछ बहुत गहरे सवाल भी पूछ डाले हैं, जैसे अगर अर्जुन पाडंव स्त्री होता तो क्या तब भी उसे कृष्ण क उतना ही साथ मिलता या फ़िर भगवान अपने अवतार की मजबूरी दिखा कर पल्ला झाड़ लेते…बहुत ही अहम सवाल जो मेरे जहन में पहले कभी नहीं आया
रोज़ जलाती हूँ खुद को
रोज़ प्रज्वलित
होती है एक आग
इस आशा में -
स्वयं के ही
हवन कुंड में
स्वाहा हो जाऊँ
और उस राख से
पुनर्निमित हो
निकल आऊँ निर्मल मैं ।
फीनिक्स की तरह ।
अच्छी कविता लगी सीमा जी
वाह!
कमाल का लिखा है सीमाजी, अंतर्द्वन्द्ध के माध्यम से आपने दर्शन, करूणा, भेद, दर्द, प्रश्न... बहुत कुछ ला खड़ा किया है सामने -
देह - विकार, कष्ट, क्लेश,
लोभ, क्षोभ और अंतर्द्वन्द्व
नहीं मिटते इस जीवन में ।
कभी - कभी मिट जाता है
आत्मा का एहसास ।
यह पंक्तियाँ लाजवाब है, मुझे बेहत पसंद आई... बहुत गहरी बात कह दी आपने इन पंक्तियों के माध्यम से... सच में, जीवन को समझने के लिये बड़ी उम्र लेना कतई आवश्यक नहीं...
क्या हर अर्जुन को
मिलते हैं कृष्ण ?
और जो अर्जुन
पांडव - बहन होती
तब भी क्या उसे
मिलते कृष्ण,
मिलती गीता ?
विचित्र सवाल है! सोचने पर मजबूर करता है, मगर इसका जवाब खोज पाना संभव नहीं दिखता...
बहुत-बहुत बधाई!
सीमा जी!
इस बार कविता में वो बात नहीं है जिसकी आपसे उम्मीद रहती है. कविता के भाव जहाँ अंत में जाकर भटकते हैं, वहीं भाषा और शिल्प में भी कुछ कमियाँ छूट गईं हैं.
प्रारम्भ से लेकर अंतिम आधे पद तक कविता आंतरिक (मानसिक) अंतर्द्वंद्व को लिकर चलती है परंतु अंतिम कुछ पँक्तियाँ बाह्य-जगत के प्रश्न उठाने लगतीं हैं.
भाषा के स्तर पर; पोथी नष्ट हो सकती है (नहीं मिटती क्यों; अपने ही दुर्गुणों की, दुर्बलताओं की पोथी?)पर यह मिटती नहीं है. अंतिम पद में शिल्प भी कुछ कमज़ोर पड़ा है.
इतना सब इसलिये कह गया क्योंकि मुझे लगता है कि आप इससे बहुत बेहतर लिख सकतीं हैं. इसी बेहतर की आशा में-
अजय यादव
स्वयं के ही
हवन कुंड में
स्वाहा हो जाऊँ
और उस राख से
पुनर्निमित हो
निकल आऊँ निर्मल मैं ।
फीनिक्स की तरह ।
क्या हर अर्जुन को
मिलते हैं कृष्ण ?
और जो अर्जुन
पांडव - बहन होती
तब भी क्या उसे
मिलते कृष्ण,
मिलती गीता ?
बड़े हीं दार्शनिक विचार हैं आपके सीमा जी। हृदय का अंतर्द्वंद्व खुल कर सामने आया है। अर्जुन और कृष्ण का प्रश्न विचारनीय है। आपने इतिहास को एक अलग नजरिये से देखा है। इसके लिए आप बधाई के पात्र हैं।
अरे वाह!
मैं भी बिलकुल अजय जी वाला विचार इस कविता को लेकर रखता था। कविता के पहले दो चरण को अलग कविता और अंतिम चरण को दूसरी कविता बनाई जाय तो ज्यादा बेहतर कविता बनेगी। इसे कहा जाता है भटकाव।
सीमा जी,
कविता में दर्शन है, हमेशा की तरह एक बार पुनः परिपक्व रचना
आनन्द आया पढ के
सस्नेह
गौरव शुक्ल
आप सभी की टिप्पणियों, प्रोत्साहन एवँ आलोचनाओं के लिए धन्यवाद ।
*अनीता जी, गिरिराज जी, तन्हा कवि जी - अंत में जो सवाल है, उस तरह के कई सवाल एक पुरुष-प्राधान समाज में महिला और वह भी कामकाजी होने के नाते भी कई बार सामने आते रहते हैं ।
* अजय जी, कमियाँ बताने के लिए धन्यवाद । मुझे लगता है अपनी रचना से कवि या कलाकार खुद १००% संतुष्ट हो जाए, यह बहुत ही कम होता है .. मैं भी नहीं होती । पर मुझे लगता है मन में जो भाव है उसे बिना तोड़े-मरोड़े व्यक्त करना कविता में अधिक आवश्यक है । 'मिटना' शब्द का प्रयोग ऊपर की पंक्तियों में किए प्रयोग के कारण जान-बूझ कर किया गया है ।
*शैलेश जी, मैं इसे भटकाव की जगह विचारों का प्रवाह कहूँगी । विचार एक ही बिंदु पर केंद्रित हो यह आवश्यक नहीं... नदी की तरह एक बिंदु से बहकर दूसरे तक जा सकती है । आप सही कह रहे हैं किए पहले दो चरण अलग और अंत अलग है .. पहले दो सवाल हैं, अंतर्द्वन्द्व की अभिव्यक्ति है, अपने स्वप्न, आत्मा के अंधियारे और रौशनी की बात है, पुनर्निमित होने की इच्छा है । अंतिम चरण एक तरह से सार है.. उन सारे सवालों को जोड़कर जवाब ढ़ूँढ़ने का प्रयास है और यहाँ आत्मा को लेकर कृष्ण की गीता याद आ जाती है, पर फिर एक सवाल खड़ा हो जाता है - जो कविता की अंतिम पंक्तिय़ाँ हैं ।
"कविता के पहले दो चरण को अलग कविता और अंतिम चरण को दूसरी कविता बनाई जाय" से मुझे 'त्रिवेणी' विधा याद आ गई । मेरी कविता त्रिवेणी तो नहीं । पर त्रिवेणी में भी तो पहली दो पंक्तियाँ अलग होती हैं और अंतिम बिल्कुल हटकर .. फिर भी वह कविता होती है :) ।
मैं सभी टिप्पणियों / आलोचनाओं का स्वागत करती हूँ । मैंने यहाँ सिर्फ़ अपनी बात / कविता स्पष्ट करने की कोशिश की है । उम्मीद है आप मे से कोई इसे अन्यथा न्हीं लेंगे ।
धन्यवाद
सीमा कुमार
seema ji Arjun aur Krishn ko jariya banakar itihas ko fir se bayan karne ka jo prayas aapne kiya wo tarif ka haqdar hai.
bahut bahut shubhkamnayein
ALOK SINGH "Sahil"
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