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Wednesday, August 15, 2007

बाल-उद्यान की विधिवत शुरूआत आज से


मित्रो,



स्वाधीनता दिवस की हार्दिक शुभकामनायें। आज हम अपनी स्वाधीनता की साठवीं वर्षगाँठ मना रहे हैं। इससे अच्छा अवसर नहीं था कि हम बाल-उद्यान जैसे महत्वाकांक्षी परियोजना की घोषणा करें। बच्चे तो कच्ची मिट्टी होते हैं और उन्हें गूँथ कर सही आकार देना हम सब की सामूहिक जिम्मेदारी है। बाल-साहित्य पर अभी भी बहुत कार्य होना है। हिन्द-युग्म के मंच से ही इस परियोजना को संचालित करने का आशय यह है कि साहित्य समाज का दर्पण होता है इसलिये साहित्यकार की जिम्मेदारी बहुत बढ़ जाती है। समाज को गढ़ने का दायित्व कोई साधारण कार्य तो नहीं। बुनियाद को नजरंदाज कर कोई मजबूत ईमारत नहीं खड़ी की जा सकती तो क्यों न हम नये पादपों को सींचें। आइये तितली पर लिखें, सूरज से रिश्ता गढ़ें, चंदा को मामा बनायें और पूर के पूवे खायें।

नये बाल किरदार पैदा अब क्यों नहीं होते? जब से तेनाली रामा, बीरबल और शेखचिल्ली की मौत हुई उनकी कुर्सियाँ खाली ही हो गयीं। जो नये किरदार हैं वो हिंसा और कदाचित भारतीय संस्कृति में जिसे हम शालीन नहीं कहते एसी सामग्री परोस रहे हैं। आज पंचतंत्र का नाम कम ही बच्चों को ज्ञात है। यह सब साधारण बातें नहीं हैं। हम अपनी जड़ों से बच्चों को काट रहे हैं। पराधीन भारत में अंग्रेजों नें हमारी संस्कृति, सभ्यता और बुनियाद को जितना नुकसान नहीं पहुँचाया उतना स्वाधीन भारत के मॉम और डैडों ने पहुचाया है। चंपक, नंदन, चंदामामा और लोटपोट इस लिये फैशन से बाहर हुए क्योंकि चमकीले जिल्द में एसे अंग्रेजी किरदारों और पुस्तकों को हमने अपने घरों में आने दिया और अपने बच्चों की कोमल कल्पना शक्ति से खिलवाड़ करने दिया जो हमारी सोच-समझ और संस्कृति की परिभाषा से परे थे।

लेकिन दोष किसका है? साहित्यसर्जकों का भी है कि वे बच्चों की कवितायें और कहानियों को साहित्य की श्रेणी प्रदान नहीं कर सके। वह नहीं लिख सके जो बालक मन को इतनी प्रिय हो जाती कि उनकी कल्पनाओं में रंग भरती। आज एसा कोई बाल किरदार है क्या, जिस जैसा बच्चा बनना चाहे? स्पाईडरमैन और सुपरमैन बन कर बच्चा कहीं छत से छलांग न लगा ले धयान रखियेगा चूंकि फ्लेटसंस्कृति में वैसे भी दस दस माले की बिल्डिंगें बनने लगी हैं।

आइये मित्रो!! आने वाली पीढ़ी के लिये कलम चलायें। बाल साहित्य-सृजन के इस प्रयास को आन्दोलन बना दें। बुनियाद को सींचें। आपकी रचनायें और सुझाव आमंत्रित हैं। वर्तमान में हिन्द-युग्म के कुछ स्थायी सदस्य और कुछ नये मित्र जो कि बाल-साहित्य की रचना करते रहे हैं बाल-उद्यान के लिये नियमित योगदान करेंगे। इस शृंखला मे आप भी जुड़ सकते हैं। बाल-उद्यान पर आपकी टिप्पणियाँ इस प्रयास को आन्दोलन बनायेंगी।

वर्तमान में एक रचनाकार, मास में दो दिन अपनी रचनायें पोस्ट करेंगे। जिन रचनाकारों की स्वीकृति प्राप्त हुई है उनको निम्नलिखित तिथियाँ प्रदान की गयी हैं:

रचनाकार का नाममहीने की तिथि जिसमें रचना पोस्ट करनी है
मोहिन्दर कुमार115
तुषार जोशी216
सुजाता तेवतिया (नोटपैड)317
रंजना भाटिया418
राजीव रंजन प्रसाद519
अक्षय चोटिया620
सुनीता चोटिया721
सीमा कुमार822
गौरव शुक्ला923
उर्मिला1024
ऋषिकेष खोडके “रूह”1024
गौरव सोलंकी1125
अनुपमा चौहान1226
रचना सागर1327
गिरिराज जोशी1428
विशेष स्तंभ2930

हिन्द-युग्म के स्थायी सदस्य जिनका उल्लेख उपरोक्त सूची में नहीं है, अपनी सहमति भेज कर बाल-उद्यान का हिस्सा बन सकते है। वे रचनाकार जो बाल-उद्यान पर अपनी रचनायें पोस्ट करना चाहते हैं किंतु हिन्द-युग्म के सदस्य नहीं है वे सदस्यता के लिये सीधे bu.hindyugm@gmail.com या baaludyan@gmail.com पर संपर्क कर सकते हैं। इसके लिये उन्हें अपनी कम से कम तीन मौलिक/अप्रकाशित बाल-रचनायें साथ में प्रेषित करनी होंगी। सभी नियमों व शर्तों को यहाँ क्लिक करके ज़रूर पढ़ लें।



आइये इस अभियान का हिस्सा बनिये। स्वागत है।

आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)

2 कविताप्रेमियों का कहना है :

राजीव रंजन प्रसाद का कहना है कि -

बाल उद्यान का प्रयास सभी रचनाकारों के सक्रिय सहयोग से ही सफल होगा। इस दिशा में 15 अगस्त को प्रकाशित मोहिन्दर जी की पोस्ट के साथ जितेन्द्र जी का दिया हुआ सुझाव भी उत्तम है। प्रचलित भी है कि "मिले सुर मेरा तुम्हारा तो सुर बने हमारा..."

*** राजीव रंजन प्रसाद

गौरव सोलंकी का कहना है कि -

बिल्कुल सही लिखा है। ऐसा लगता है कि कोई सब तितलियों के पंख बाँधकर कहीं छोड़ आया है। चन्दा मामा शहर की चकाचौंध में हमेशा छिपे ही रहते हैं। बच्चे शायद कभी नहीं जान पाते कि कब अमावस आती है और कब पूर्णिमा? क्योंकि घर में लगे इनवर्टर अँधेरा कम ही होने देते हैं कि आसमान के तारे दिखें। वीडिओ गेम खेलने में लगे बच्चे न सुबह होती देख पाते हैं और न ही सूरज का लाल से पीला होना और फिर लाल हो जाना...
मैं जितने बच्चों को जानता हूँ, उनमे से शायद ही कोई चंपक या नंदन पढ़ता होगा। माता-पिता अब छुट्टियों में उन्हें लेकर गाँव नहीं जाते, बल्कि शहर में ही जाने क्या क्या समर कैम्प लगने लगे हैं, जहाँ 'शौक' को भी क्लासों में सिखाया जाता है।
मैँ सोचता हूँ कि जाने क्या होने वाला है? कुछ उम्मीद की किरण नहीं दिखती..शायद बाल-उद्यान से कुछ हो जाए।

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