बीज जो बिखर चुके हैं
अंधड़ों में मर चुके हैं,
चाह जिनकी खो चुकी है
या उम्मीदें सो चुकी हैं,
उनको थामो, अब उठाओ,
कह दो ये उनका समय है,
उनको अब बोना होगा।
आँखें जो सोई नहीं हैं
हैं व्यथित, रोई नहीं हैं,
बस विरह के गीत गाती
देख स्वप्न, दण्ड पाती,
पुचकार दो उनको जरा सा
कह दो अब उनकी विजय है,
उनको अब सोना होगा।
दर्द जो दर-दर पड़े हैं,
शूल बन भीतर गड़े हैं,
ज़िन्दगी बेरंग करते,
हर हँसी में तंग करते,
उनको फेंको, अब जलाओ,
कह दो खुशी का कुंभ है ये,
उनको अब खोना होगा।
प्रेम जो मिल न सके थे,
थे बेरुते, खिल न सके थे,
थे अभागे, साँझ थे पर
खुशनुमा हो ढल न सके थे,
उनको बुला उत्सव मनाओ,
ये विवाहित आत्माओं का मिलन है,
उनका अब गौना होगा।
चाँद के जो दाग हैं,
वे मेरे टूटे ख़्वाब हैं,
उसके मत्थे जो मढ़े हैं,
दाग सब मैंने गढ़े हैं,
मेरी पागल हसरतों ने
कालिखें जो पोत दी है,
उनको अब धोना होगा।
आस्था के जो दिए हैं,
कब से हैं और किसलिए हैं,
ब्रह्म है तो क्यों छिपा है,
पाप है तो वो कहाँ है,
उससे बोलो, कुछ तो बोले,
कह दो ये अंतिम प्रलय है,
उसको व्यक्त होना होगा।
लेखन तिथि:-14 अगस्त 2007, पूर्वान्ह 2.30 बजे
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29 कविताप्रेमियों का कहना है :
गौरव बहुत सुन्दर रचना है
शैलेश जी को जन्म-दिवस की बधाई...
सुनीता(शानू)
गौरव जी,
आपने दिल जीत लिया बहुत सुन्दर रचना है। बधाई।
एक-एक पंक्ति अद्वितीय बन पड़ी है। एक सम्पूर्ण कविता है यह इससे ज्यादा क्या कहुँ।
अच्छा है..
दर्द जो दर-दर पड़े हैं,
शूल बन भीतर गड़े हैं,
ज़िन्दगी बेरंग करते,
हर हँसी में तंग करते,
उनको फेंको, अब जलाओ,
कह दो खुशी का कुंभ है ये,
उनको अब खोना होगा।
ज़िन्दगी के प्रति नये नज़रिये को व्यक्त करती सुन्दर रच्ना....
बधाई..
श्रुति
चाँद के जो दाग हैं,
वे मेरे टूटे ख़्वाब हैं,
उसके मत्थे जो मढ़े हैं,
दाग सब मैंने गढ़े हैं,
मेरी पागल हसरतों ने
कालिखें जो पोत दी है,
उनको अब धोना होगा।
गौरव बहुत अच्छा लिखा है खासकर उपरोक्त पंक्तियाँ । आप बहुत उन्नति करें
इसी कामना के साथ ।
गौरव जी,
कविता एक कला है केवल विधा नहीं। आप भावों की कलात्मक प्रस्तुति में पारंगत हैं। "बीज", "आँखें", "दर्द", "प्रेम", "चाँद" और आस्था जैसे आम भाव/शब्द कैसे क्रांतिकारी हो सकते हैं आपकी कवितस में डूब कर जाना जा सकता है। उत्कृष्ट्......
*** राजीव रंजन प्रसाद
mein itne acche shabd to nahin jaanta hindi ke.....magar apni taraf se koshish karoonga
aapki rachna kaafi acchi lagi.....khaaskar pehli 7 panktiyaan
बीज जो बिखर चुके हैं
अंधड़ों में मर चुके हैं,
चाह जिनकी खो चुकी है
या उम्मीदें सो चुकी हैं,
उनको थामो, अब उठाओ,
कह दो ये उनका समय है,
उनको अब बोना होगा।
umeed hai ki aap aisi rachna pesh karte rahenge......
thats an awesome poem Gaurav.loved it .Keep up the good work.Looking forward to more work from you
Samarth
उनको बुला उत्सव मनाओ,
ये विवाहित आत्माओं का मिलन है,
उनका अब गौना होगा।.......
आस्था के जो दिए हैं,
कब से हैं और किसलिए हैं,
ब्रह्म है तो क्यों छिपा है,
पाप है तो वो कहाँ है,
उससे बोलो, कुछ तो बोले,
कह दो ये अंतिम प्रलय है,
उसको व्यक्त होना होगा।
एक अन्यतम आशावादी रचना.
गौरव जी,
हमेशा की तरह एक उत्कृष्ट कविता।
शैलेश जी को जन्मदिन की बधाई|
धन्यवाद,
तपन शर्मा
इस रचना में कुछ खास मज़ा नहीं आया ।।
dard me muskurate lab jab dard se chutkara pana chahte hen tab apne sarhad se paar kaee abhilashaon ko chuu kar sihar-sihar kar kaleekh ko mitane kee koshish me jute hen... kya ye sab itna asaan hen?agar he to wakaee ankahe shabdonse tareef ke pul bandh dun...:-)... wakaee bahut achi rachna he...juz heart touching...congr8ts...
Gaurav,
Bhai, jab bhi aapki panktiyon ko padhta hoon kanhi kho jata hoon. Bahut acchhi rachna hai.
दर्द जो दर-दर पड़े हैं,
शूल बन भीतर गड़े हैं,
ज़िन्दगी बेरंग करते,
हर हँसी में तंग करते,
उनको फेंको, अब जलाओ,
कह दो खुशी का कुंभ है ये,
उनको अब खोना होगा।
चाँद के जो दाग हैं,
वे मेरे टूटे ख़्वाब हैं,
उसके मत्थे जो मढ़े हैं,
दाग सब मैंने गढ़े हैं,
मेरी पागल हसरतों ने
कालिखें जो पोत दी है,
उनको अब धोना होगा।
Sandesh kafi acchha hai!
बहुत खूब...
बहुत मज़ा आया कविता पढ कर..
बुरा मत मानियेगा..मुझे ऐसा लगा कि लय कहीं कहीं पर बिगड गई है..
और कुछ एक स्थानों पर कविता फिसल सी गई है..
किन्तु कोई दो राय नहीं कि एक बहुत प्यारी रचना की है आप ने..
बहुत बहुत बधाई..
आप तो सदैव से अदभुत रहे है...........
शिल्प, और भाव और बिंब अदभुत है..........
किसी एक पंक्ति या पद को उद्धरित कर बाक़ी की कविता क आया आपका अपमान ना करूँगा................
सो ऐसी अदभुत कविता के लिए धन्यवाद और आयेज की ऐसी ही कविताओं के लिए शुभकामनाएँ
superb solanki........
again a superb performance....
gud going....
wish u all the best..
---vipul
गौरव अच्छा लगा लीक से कुछ हट कर पढ़ने में । हाँ , लय में थोड़ी बहुत सुधार की गुंजाईश जरूर थी ।
पर फ़िर भी अच्छा लगा ।
अगर अन्यथा न लें तो एक सुझाव जिससे थोड़े से फ़ेरबदल से लय थोड़ी सुधर जाती
"बीज जो बिखर चुके हैं
अंधड़ों में मर चुके हैं,
चाह जिनकी खो चुकी है
या उम्मीदें सो चुकी हैं,
उन्हें थामो, अब उठाओ,
कहो , ये उनका समय है,
उनको अब बोना होगा।
आँखें जो सोई नहीं हैं
हैं व्यथित, रोई नहीं हैं,
बस विरह के गीत गाती
देख सपने, दण्ड पाती,
उन्हें पुचकारो जरा सा
कहो अब उनकी विजय है,
उनको अब सोना होगा।
……………
"
आपने जिस भाव से लिखा शायद उसके हिसाब से कविता एकदम सही हो, पर सिर्फ़ और सिर्फ़ शिल्प की दृष्टि से यह सुझाव मैंने दिया है, बेहतर स्वरूप क्या है , इसका निर्णय तो रचनाकार ही सही करता है ।
सस्नेह
आलोक
mast likhi hai yaar tune kavita...
ati sundar aur gahri rachna hai...
waah...waah.....
Oorja se bharpoor.......sundar kavita. Tamaam nirashaon ko darkinar karte huye.
Na koi sankoch na koi shikayat zindagi ke achhe pahloo ko dikhata badhiya darshan.
Sadhuvaad aur shubhkamnayein.
Siddhartha
गौरव जी,
एक उत्कृष्ट कविता....
हमेशा की तरह ....
अदभुत कविता के लिए
धन्यवाद और
बधाई..
सस्नेह
गौरव जी,हमेशा की तरह सुंदर रचना है
प्रेम जो मिल न सके थे,
थे बेरुते, खिल न सके थे,
थे अभागे, साँझ थे पर
खुशनुमा हो ढल न सके थे,
उनको बुला उत्सव मनाओ,
ये विवाहित आत्माओं का मिलन है,
यह पंक्तियाँ बहुत सुंदर लगी ..
wow....so nice effort..so inspirational....poem looks young and energetic...made 4 us thanks....u really care abt suggestions...keep it up!!!!
मित्र गौरव,
अन्य कार्यों में व्यस्त हो जाने के कारण टिप्पणीं देने में विलम्ब हो गया, क्षमा कीजियेगा।
एक और उत्कृष्ठ रचना, वैसे इस बार भी मुझे क्षणिकाओं की उम्मीद थी ;)
वैसे तो आपकी पूरी रचना ही बेहद प्रभावित करती है मगर फिर भी मुझे अंत ज्यादा अच्छा लगा -
....
....
ब्रह्म है तो क्यों छिपा है
....
....
कह दो ये अंतिम प्रलय है,
उसको व्यक्त होना होगा।
अज्ञात शक्ति (ब्रह्मा) के बारे में जानने की इच्छा रखने और अंधविश्वास को नकराने के बीच कवि के मन का अंतर्द्वंद खुलकर सामने आया है।
इस उत्कृष्ठ रचना के लिये बधाई स्वीकार करें।
आलोक जी,
आपने जो संशोधन सुझाए, वे अनुकरणीय लगे।
शिल्प के लिहाज से इन बातों का भविष्य में ध्यान रखूँगा। वैसे कुछ जगह मैं यदि शब्द बदलता, तो भाव सम्प्रेषण नहीं हो पाता। लेकिन कुछ जगह आपने जो बताया, बहुत अच्छा रहता।
सधन्यवाद।
गौरव जी देर से टिप्पणि करने के लिए क्षमा चाहता हूँ। मैंने आपको व्यक्तिगत तरीके से तो अपने विचार बता हीं दिये थे , आज यहाँ उन्हीं बातों की पुनरावॄति कर रहा हूँ।
उनको थामो, अब उठाओ,
कह दो ये उनका समय है,
उनको अब बोना होगा।
बस विरह के गीत गाती
देख स्वप्न, दण्ड पाती,
दर्द जो दर-दर पड़े हैं,
शूल बन भीतर गड़े हैं,
ज़िन्दगी बेरंग करते,
हर हँसी में तंग करते,
उनको बुला उत्सव मनाओ,
ये विवाहित आत्माओं का मिलन है,
उनका अब गौना होगा।
चाँद के जो दाग हैं,
वे मेरे टूटे ख़्वाब हैं,
उसके मत्थे जो मढ़े हैं,
दाग सब मैंने गढ़े हैं,
ब्रह्म है तो क्यों छिपा है,
पाप है तो वो कहाँ है,
उससे बोलो, कुछ तो बोले,
कह दो ये अंतिम प्रलय है,
उसको व्यक्त होना होगा।
उपरोक्त पंक्तियाँ विशेष पसंद आईं। आपने इस बार फिर से ब्रह्म को कटघरे में खड़ा किया है । आपकी हिम्मत की मैं दाद देता हूँ। सच हीं कहा है आपने कि यदि मनुष्य निश्चय कर ले तो कोई भी कार्य असंभव नहीं है। इसलिए सारी व्याधाओं को रोना होगा, खोना होगा या फिर बौना होना होगा।
एक अच्छी रचना के लिए फिर से बधाई स्वीकारें।
मेरे हिसाब से यह कविता आपकी उम्दा रचनाओं में से एक है। आप छंदों का अंत बहुत बढ़िया करते हैं। उससे यह पता लगता है कि आपकी लेखनी में धार है।
जैसे खुशियों के कुंभ में दुःख का खोना, विवाहित आत्माओं का गौना करने की बात और सबसे बड़ा व्यंग्य भगवान के अव्यक्त रहने पर।
कवि समय-समय पर आशभरी, ऊर्जाभरी, ओजवान कविताएँ परोसता रहे और हमें और क्या चाहिए!
आपकी एक और श्रेष्ठ कविता।
गौरव जी,
बहुत विलम्ब हुआ इस बार
किन्तु अपने कथ्य से जो आशावाद आपने जगाया है उसकी बधाई तो आपको देनी ही है
हमेशा की तरह रचना हर दृष्टि से उत्कृष्ट है,
"उनको थामो, अब उठाओ,
कह दो ये उनका समय है,"
सारे बिम्ब सुस्पष्ट हैं, कविता प्रभाव डालती है
बहुत सुन्दर
बधाई
सस्नेह
गौरव शुक्ल
जी हम तो आपके प्रशंशक हैं ही. फिर भी एक तारीफ़ और, जिसके लिए यह रचना एक बहाना है.
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)