नोट- प्रस्तुत रचना मेरी शुरुआती रचनाओं में से एक है। जोकि 15-12-1999 को लिखी गयी थी।
यह एक फिल्मी गाने की धुन पर आधारित है जो उसी दौरान प्रदर्शित हुई थी।
मेरे तिरंगे प्यारे जब तू लहराये,
सारा वतन झूमे सारा वतन गाये,
याल्ला-याल्ला बल्ले-बल्ले।
याल्ला-याल्ला बल्ले-बल्ले।
अपने झण्डे की इस जग में
अजब अनोखी शान है;
जान नहीं इस दिल में बसती
झण्डे में ही जान है।
इसके लिये क्या कुछ कर जाएँ
दिल में यही अरमान है।
लहरायेंगे फहरायेंगे दुनिया चाहे जल्ले-२।
याल्ला-याल्ला बल्ले-बल्ले।
हिन्दू मुस्लिम बाद में हैं हम
पहले हैं भारतवासी,
शीर्ष पे अपना वतन है यारों
बाद में है काबा काशी।
काम करो और नाम बढ़ाओ
हे जन-गण जीवन राशि।
भेद मिटा दो प्रेम बढ़ा लो
लग जाओ सब गल्ले गल्ले।
याल्ला-याल्ला बल्ले-बल्ले।
याल्ला-याल्ला बल्ले-बल्ले।
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15 कविताप्रेमियों का कहना है :
कविता अच्छी है............
भाव भी गहरे है परंतु प्रस्तुति करण ठीक नही बैठता.........
यदि पदयंत् कुछ और होता यल्ला यल्ला बल्ले बल्ले कि जगह तो कावित और सुंदर हो सकती थी
क्यूँकी इस ही कि टुक मिलने के चक्कर मे आपने अन्य पदयों का भी टुक बिगड़ दिया है जैसे
गल्ले गल्ले
तथा
जल्ले जल्ले
आदि
शुभकामनाएँ
क्षमा करे पंकज जी मै ने ये ना पड़ा कि यह कविता आपके शुरुआती दीनो कि है..........तथ किसी फ़िल्म से प्रेरित है.........
उस हिसाब से रचना अच्छी है क्यूँकी फ़िल्मो के गीत इस ही तरह के होते है .......
क्षमा करें........
धन्यवाद
कविता तो कुछ खास नहीं किन्तु आज के दिवस पर देश के बारे में जो
भी कहा जाए कम ही है । सभी देश के लोगो में देश भक्ति की भावना
रहे और राष्ट के लिए सर्वस्व समर्पण का इरादा हो तो अच्छा होगा ।
क्योंकि अगर देश है तो हम हैं , देश के स्वाभिमान से बड़ा कुछ भी नहीं ।
पंकज जी,
शुरुआती दिनों के हिसाब से तो ठिक है अन्यथा रचना कुछ ज्यादा प्रभावित नही करती। कथ्य में नयापन नही है।
’भेद मिटा दो प्रेम बढ़ा लो’ प्रासंगिक है।
पंकज जी,
विचार अच्छे हैं, और चूँकि कविता शुरुआती दिनों की है तो उस हिसाब से अच्छी है।
तपन शर्मा
पंकज जी जान कर अच्छा लगा कि ये आपके शुरुआती दिनों की कविता है ।
अन्तिम पंक्तियाँ छोड दी जाये तो कविता बहुत ही अच्छी है ।
पंकज जी ..
गीत शुरुआती दिनों का है..
अच्छा है..
पढ कर मजा आया ...
पैरोडी ठीक बनाई है
:) ह्ह्ह्म्म्म्म अच्छा है
मजा नहीं आया। शुरूआती दिन लिखना शायद सहानुभूति बन गई। परन्तु यह कविता जरा भी आकर्षक नहीं है पता नहीं कैसे आपका मन दसे हिन्द युग्म जैसे मंच पर डालने के लिए राजी हो गया।
सबसे बडी बात है राष्ट्रभक्ति का जज़्बा, जो कि इस रचना में कूट कूट कर भरा हुआ है।
अच्छी कविता है पंकज जी
बधाई
सस्नेह
गौरव शुक्ल
यदि याल्ला याल्ला बल्ले बल्ले से आप प्रेरित नहीं होते तो रचना का स्तर निश्चय ही बहुत बढ़ जाता।
जैसा कि सबने कहा, देशभक्ति से ओतप्रोत भाव हैं आपके।
भाव अच्छे हैं, प्रस्तुतिकरण ठीक-ठाक... जिस माहौल में आपने यह रचना प्रकाशित की है, वहाँ केवल जय हिन्द ही लिखा हो तो भी बहुत अच्छा लगता है, आपकी रचना भी माहौल के अनुकूल है।
बधाई!!
फिल्मी गीत अय्र पैरोडी भी तो एक विधा ही है। यह कविता इसी श्रेणी की है।
बहुत तल्खी के साथ कहना पड रहा है कि भारत में भजनों और देश्प्रेम की कविताओं के लिये पेरोडी का ही भरोसा है. ये कविता नहिं भडेंती है.
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