मैं संयम नहीं हूँ ,
भावनाओं की धारा हूँ ।
मैं प्रीति हूँ,
दुनिया की रीति नहीं हूँ ।
बहने दो मुझे …
मेरी अशांत धारा को
बन जाने दो लहर;
लड़ जाने दो
पत्थरों से,
चट्टानों से,
बन जाने दो निर्झर ।
मत बाँधो बाँध मुझपर,
ढूँढ़ने दो नए रास्ते
और तय कर लेने दो
समंदर तक का सफ़र ।
रास्ते के पहाड़ों, जंगलों,
शहरों और गाँवों से
गुजरते हुए,
उनकी रंगों में रंगते,
उनकी खुश्बू और मिट्टी
समटते हुए
बन जाने दो
मुझे गहन से गहनतम ।
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24 कविताप्रेमियों का कहना है :
Choti magar bhaavpoorna kavita...magar ek baat spasht nahi hui is kavita me ki dhaara yeh sab kyun karna chahati hai:) good work keep writing
अच्छी उडान है... बधाई...
कविता में प्रवाह है ।
अच्छी कविता, भावनाओं का सुन्दर प्रवाह
पढें नारी पर विशेष एवं अपनी टिप्पणी देवें 'आरंभ' पर
रास्ते के पहाड़ों, जंगलों,
शहरों और गाँवों से
गुजरते हुए,
उनकी रंगों में रंगते,
उनकी खुश्बू और मिट्टी
समटते हुए
बन जाने दो
मुझे गहन से गहनतम ।
बहुत
bahut bahut khub..aap kafi accha likhtin hain .
सीमा जी..
गूढ रचना है और बहुत ही स्तरीय।
"रास्ते के पहाड़ों, जंगलों,
शहरों और गाँवों से
गुजरते हुए,
उनकी रंगों में रंगते,
उनकी खुश्बू और मिट्टी
समटते हुए
बन जाने दो
मुझे गहन से गहनतम ।"
बहुत बधाई आपको।
*** राजीव रंजन प्रसाद
सीमा जी!
रचना कथ्य और कथन दोनों की दृष्टि से उत्तम है. बधाई स्वीकारें.
बेहद हल्की और पुश्ट कविता......
पढ़कर कही भी चिंता नही हुई वरन् अच्छा ही लगा ...
इस तरह कि कविता लिखना भी कठिन ही है
सुंदर कविता सुंदर भावों के साथ सीमा जी...बधाई...!!
सुंदर कविता ....
मैं संयम नहीं हूँ ,
भावनाओं की धारा हूँ ।
मैं प्रीति हूँ,
सुंदर भाव.......
बहने दो मुझे …
मेरी अशांत धारा को
सीमा जी
बधाई!!
आपने सही लिखा है कि आपकी, मेरी और राजीव जी की रचना मिलती जुलती हो गयी.....विषय चाहे मिलता जुलता हो परन्तु आपने बहुत सुन्दर ढंग से रचना को ढाला है.. बधाई
मैं आपकी आकांक्षाओं और भावनाओं का उफान बखूबी समझता हूं और लहर बनने की इच्छा भी...लेकिन कविता पर विचार किया जाए तो यह तार्किक नहीं है।
पहले आप लहर की बात करती हैं, फिर झरना बनना चाहती हैं, फिर यह याद नहीं रख पाती कि झरनों पर बाँध नहीं लगाए जाते, जिनके लिए आप मना कर रही हैं। फिर लगता है कि आप नदी होकर बहना चाहती हैं रास्ते के शहरों और गाँवों से भी। तो क्या नदी उन गाँवों और शहरों को बर्बाद नहीं कर देगी? और इस बात को आप इस अन्दाज़ में कह रही हैं, जैसे यह बहुत ही मनमोहक दृश्य होगा।
वैसे भी यह बाढ़ किसी को गहन से गहनतम कैसे बना सकती है?
मैं आपकी भावनाओं की कद्र करता हूँ, लेकिन साथ ही यह भी कहना चाहता हूँ कि कविता सिर्फ़ भावनाओं का उफान ही नहीं है।
कविता अतार्किक हो तो भावनाएं अकेली कुछ नहीं कर पातीं।
वैसे मुझे आश्चर्य इस बात का भी है कि अब तक यह बात किसी ने नहीं की। सब पाठकों से भी निवेदन है कि सच्ची आलोचना करें क्योंकि यह कवि के विकास के लिए भी बहुत आवश्यक होती है।
आशा है आप मेरे सच्चे मंतव्य को समझेंगी और अगली बार और गंभीरता से लिखेंगी।
शुभकामनाएँ।
आप सभी की टिप्पणियों के लिए धन्यवाद ।
गौरव सोलंकी जी, आपकी टिप्पणी बहुत मूल्यवान है । आपसे सहमत हूँ कि कविता अतार्किक हो तो भावनाएं अकेली कुछ नहीं कर पातीं । यह एक नदी का सफर है जो एक छोटी सी धारा से शुरू होती है, नदी और निर्झर का रूप लेती हुई, शहरों और गाँवो से होती हुई और गहरी और बड़ी होती जाती है और गहरे समुद्र में मिल जाती है । शायद आप 'लहर' शब्द के कारण कुछ और अर्थ कगा रहे हैं । लहर तो छोटी य बड़ी, कैसी भी हो सकती है, नदी में भी लहर हो सकती है । और बाँध तो नदी पर ही बाँधी जाती है न । कहीं-कहीं नदी ही निर्झर हो जाती है । निर्झर पर बाँध की बात हो कहीं नहीं की गई है । क्या हर नदी जो शहरों और गाँवों से बहती है उन्हें बर्बाद कर देती है ? मेरा तो मानना था भारत में बदियाँ शहरों और गाँवों को आबाद करती हैं, और यहाँ बाढ़ की बात तो नहीं है कहीं भी ।
मैंने उपर जो लिखा है वह सिर्फ़ यह बताने के लिए कि लिखते समय मेरे दिमाग में क्या रूपरेखा थी । हो सकता है उसे लिखते समय वह भाव यहाँ नहीं आ पाए । आपसे निवेदन है कि एक बार और पढे़ इसे और अगर फिर भी आपको लग रहा है कि कविता अतार्किक है तो बताएँ । अपने मूल्यवान टिप्पणियाँ देते रहें । धन्यवाद ।
- सीमा कुमार
मैं संयम नहीं हूँ
pahali hi pankti prabhavit kar gayi
mujhe aapki kavita pasand aayi
परिपक्व रचना,बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति
"बन जाने दो
मुझे गहन से गहनतम "
सुन्दर
सस्नेह
गौरव शुक्ल
सीमा जी,
धन्यवाद कि आपने मेरी प्रतिक्रिया को सही ढंग से लिया। मैं पहले भी कह चुका हूँ और फिर से ये दोहराना चाहता हूँ कि मुझे बखूबी पता है कि लिखते समय आपकी क्या मनोस्थिति रही होगी। लेकिन भावनाओं की तीव्रता के कारण बहुत बार ऐसा होता है कि हम बिल्कुल वही नहीं लिख पाते, जो हमारे भीतर चल रहा होता है।
जैसा कि आपने लिखा
बन जाने दो निर्झर
और तुरंत ही अगली पंक्ति में कहा-
मत बाँधो बाँध मुझपर
यहाँ झरने से नदी का संक्रमण भी नहीं बताया और पाठक दिग्भ्रमित हो गया।
साथ ही कविता विद्रोह के भाव लिए हुए शुरु हुई और अंत में बहुत शांत सी हो गई। छोटी कविता में यह भी नहीं जँचता। आशा है, अब आप मेरी बात समझ पाएँगी।
फिर से धन्यवाद।
सीमा जी , आपकी उपस्थिति ने हिन्द-युग्म में चार चाँद लगा दिया है। आपकी यह रचना और मोहिन्दर जी की रचना "मिथ्याबोध" में थोड़ी-सी समानता है, लेकिन अंत पूरी तरह से अलग है।
रास्ते के पहाड़ों, जंगलों,
शहरों और गाँवों से
गुजरते हुए,
उनकी रंगों में रंगते,
उनकी खुश्बू और मिट्टी
समटते हुए
बन जाने दो
मुझे गहन से गहनतम ।
मुझे आपकी यह रचना बेहद पसंद आई।बधाई स्वीकारें।
excellent...in order to understand a poem, one has to have the poetic feeling..it is not literature so tha everyone can read and understand. It is poem, and onl poets can understand the feeling of it. Great going Seema :)
मत बाँधो बाँध मुझपर,
ढूँढ़ने दो नए रास्ते
और तय कर लेने दो
समंदर तक का सफ़र
नए रास्ते की चाह बिल्कुल प्रासंगिक है।
मेरे हिसाब से यहाँ सीमा जी 'धारा' की बाद कर रही हैं और वह किसी भी स्रोत से फूट सकती है। इसलिए सारे छंद सटीक हैं।
इसी बहाने आपने प्रेम का संदेश दिया है-
उनकी रंगों में रंगते,
उनकी खुश्बू और मिट्टी
समटते हुए
seemajee
bahut sundar likha hai aapne. bandhan hamesha peeda ka karan hota hai. sansaar ka sabse bada sukh hai-mukt raho aur mukt karo
kyunki hansi phol main nahin
mukti main hai. keep on writing . we need such a nice poetess
उनकी रंगों में रंगते,
उनकी खुश्बू और मिट्टी
समटते हुए
बन जाने दो
मुझे गहन से गहनतम
सुन्दर और गहरी कविता
-रचना सागर
रास्ते के पहाड़ों, जंगलों,
शहरों और गाँवों से
गुजरते हुए,
उनकी रंगों में रंगते,
उनकी खुश्बू और मिट्टी
समटते हुए
बन जाने दो
मुझे गहन से गहनतम ।
बहूत सुन्दर लिखा है... बधाई।
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)