यह् क्या खेल शुरू होने से पहले
तुमने पासे अपने डाल दिये हैं
तरकश भरा है तीरो से और
मन में असंख्य भ्रम पाल लिये हैं
क्या जब मानव धरा पर आया
थे सब सुख उसकी झोली में
क्या राहें पुष्पों से अटी पडीं थी
और राग थे उसकी बोली में
कुछ तो है अनन्त काल से
जो ईश्वर की रचना है
कुछ मानव की जोड तोड है
जो इस धरती पर अपना है
कितने सूरज हैं इस ब्रह्मांड में
फिर भी अन्धकार ही हावी है
यही विषय हम चुन लें तो
जीवन विशलेषण प्रभावी है
अन्धकार था तभी तो मानव ने
प्रकाश का अविष्कार किया
इसी धरा में जो छुपा हुआ था
उसी से इस धरती का श्रृगाँर किया
चाह मन में और दृढ संकल्प ही
हर कठिनाई में पूँजी है
आस विश्वास प्रचुर हो जीवन में
यही सफलता की कूँजी है
उचित दिशा में हो लक्ष्य निर्धारण
न शंका हो, बिना किसी कारण
कार्य एंव उर्जा का सही हो ज्ञान
सफलता निश्चित है ये लो जान
उठो, कितने कार्य अभी शेष हैं
चलो, राहें अभी साधनी होंगी
विषधर रिक्त चन्दन वन करने होंगे
त्याग निर्मूल शँकायें
आशाओं से गठबंधन करने होंगे
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
11 कविताप्रेमियों का कहना है :
बहुत अच्छा लगा पढ़कर मन में आत्म विश्वास को पैदा करती आपकी रचना बेहद प्रभावी है...
इसे पढ़ कर बचपन की एक कविता याद आती है...
नर हो न निराश करो मन को
कुछ काम करो कुछ काम करो,
जग में रह कर कुछ नाम करो,
यह जन्म हुआ यूँ व्यर्थ ना हो,
कुछ तो उपयुक्त करो तन को,
नर हो न निराश करो मन को,
कुछ काम करो कुछ काम करो...
सुनीता(शानू)
मोहिन्दर जी,
आपने फिर अपने अनुभवों का सार कविता के माध्यम से सुना दिया, बहुत प्रेरक रचना है
पढ कर ही नयी ऊर्जा का संचार होता सा लगा|
"चाह मन में और दृढ संकल्प ही
हर कठिनाई में पूँजी है
आस विश्वास प्रचुर हो जीवन में
यही सफलता की कूँजी है"
मूलमन्त्र
बहुत सुन्दर
बधाई
सादर
गौरव शुक्ल
बहुत अच्छी कविता है.. मोहिंदर जी.. बधाई हो.
कवि कुलवंत
क्या जब मानव धरा पर आया
थे सब सुख उसकी झोली में
क्या राहें पुष्पों से अटी पडीं थी
और राग थे उसकी बोली में
आपकी कविता मन में आस जगाती है
सुन्दर कविता़
कविता नहीं यह तो जीवन-दर्शन हैं, आप तो दार्शनिक-कवि हैं।
अन्धकार था तभी तो मानव ने
प्रकाश का अविष्कार किया
इसी धरा में जो छुपा हुआ था
उसी से इस धरती का शृँगार किया
साथ ही साथ संदेश भी है (वीर रस से ओत-प्रोत)-
उठो, कितने कार्य अभी शेष हैं
चलो, राहें अभी साधनी होंगी
विषधर रिक्त चन्दन वन करने होंगे
त्याग निर्मूल शँकायें
आशाओं से गठबंधन करने होंगे
"अन्धकार था तभी तो मानव ने
प्रकाश का अविष्कार किया
इसी धरा में जो छुपा हुआ था
उसी से इस धरती का श्रृगाँर किया"
जीवन के अंधेरों में प्रकाश ढ़ूँढ़ने का संदेश देती है आपकी कविता ।
आशा और आत्मविश्वास से परिपूर्ण है ये कविता.. अद्भुत..पहले राजीव जी की आशावादिता और अब मोहिन्दर जी प्रेरणा देने वाली एक बेजोड़ कृति। नई उम्मीदें जगाती है ये पंक्तियाँ। धन्यवाद मोहिन्दर जी।
अन्धकार था तभी तो मानव ने
प्रकाश का अविष्कार किया
इसी धरा में जो छुपा हुआ था
उसी से इस धरती का शृँगार किया
कविता सचमुच नहीं है। प्रेरणा है संघर्ष की शक्ति है।
बहुत बहुत बधाई।
:)
सही है। आशाओं से गठबंधन तो करना ही होगा। अच्छा दर्शन, बधाई!!!
यह् क्या खेल शुरू होने से पहले
तुमने पासे अपने डाल दिये हैं
मोहिन्दर जी , मेरे विचार से आप इन दो पंक्तियों के बीच थोड़ा विराम डाल साकते थे।ऐसा इस रचना में मुझे कई जगह दीखा है। वैसे यह मेरा मत है। आप चाहें तो मेरे मत पर थोड़ा ध्यान दे सकते हैं। :)
यह तो शिल्प में मैं थोड़ा उलझ गया था, लेकिन भाव एवं बिंबों ने आपका स्थान मेरे सामने बहुत ऊपर कर दिया है। शैलेश जी सच हीं कहते हैं कि आप तो दार्शनिक कवि हैं। आपसे हमेशा कुछ न कुछ सीखने को मिलता रहता है।
अच्छी रचना के लिए बधाई स्वीकारें।
मोहिन्दर जी..
अस्वस्थता के कारण देर से प्रतिकृया दे रहा हूँ क्षमा करेंगे। आपकी कविताये आपके दर्शन को प्रस्तुत करती हैं।
कितने सूरज हैं इस ब्रह्मांड में
फिर भी अन्धकार ही हावी है
यही विषय हम चुन लें तो
जीवन विशलेषण प्रभावी है
और जो प्रकाश की किरणें आपकी हैं:
उठो, कितने कार्य अभी शेष हैं
चलो, राहें अभी साधनी होंगी
विषधर रिक्त चन्दन वन करने होंगे
त्याग निर्मूल शँकायें
आशाओं से गठबंधन करने होंगे
बहुत सुन्दर रचना।
*** राजीव रंजन प्रसाद
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)