बगिया में मेरे
लाल रंग का
सुंदर अरहुल खिला था ।
उसके चटख लाल रंग का
अनोखा आकर्षण
उसकी मखमली पंखुड़ियों को
छूने की चाहत
उसके पास खींच ले गई ।
करीब जाने पर आभास हुआ
मखमली कोमलता
पंखुड़ियों में नहीं
अरहुल के पराग में है ।
अरहुल की पंखुड़ियों का
चटख लाल रंग
दूर से तो आकर्षित करता है
अपनी ओर बरबस खींच लेता है,
पर करीब जाने पर
वही चटख लाल रंग
उसकी चमक
आँखों में खलने लगती है ।
उसके स्पर्श में
कोमलता की, सहृदयता की
वह अनुभूति नहीं होती
जो अरहुल के पराग के
नन्हें कणों में होती है ;
वे नन्हें कण
जिनके स्पर्श में
कोमलता की अनुभूति है,
सहृदयता का एहसास है ।
अरहुल के पराग कण
अपने पास आने वाले
हर किसी को अपने कुछ कण ,
अपनी सहृदयता की निशानी,
भेंट कर जाते हैं ।
पराग की कोमलता का जिक्र
दुनियाँ नहीं करती, क्योंकि
उसकी कोमलता की अनुभूति
पास जाने पर ही होती है ।
दुनिया तो बस दूर बैठ कर
पंखुड़ियों के चटख लाल रंग को
निहारती रह जाती है
और उसकी स्मृति में
वही बस जाता है ।
पराग के नन्हें कणों का
दुनिया की नजर में
महत्व नहीं,
अपना कोई अस्तित्व नहीं,
फिर भी पराग के नन्हें कण
खुद को मिटा कर, बिखरा कर
अपना अस्तित्व मिटा देते हैं
ताकि जीवन चलता रहे ।
सहृदयता और कोमलता की
बेहद अमूल्य अनुभूति
दुनिया को मिलती रहे
जब भी उसे जरूरत हो ।
- सीमा
२७ अगस्त, १९९४
* अरहुल = गुड़हल का फूल
इस कविता के माध्यम से मैंने हिन्द-युग्म यूनिकवि प्रतियोगिता में हिस्सा लिया था हिन्द-युग्म सदस्य बनने से पहले ।
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12 कविताप्रेमियों का कहना है :
सीमा जी आपकी कविता में गहरायी है..
सत्य यही है कि किसी को भी उसके करीब जाये बिना पहचानना कठिन ही नहीं असम्भव है.. यह भी सत्य है कि दूर के ढोल सुहावने.. जरूरी नही कि हर वो चीज जो दूर से लुभाती है पास जाने पर उतनी ही आकर्षक लगे.. एक नजर में प्यार और बाद मे बिखराव का कारण यही स्थिति है.
सीमा जी अच्छी रचनाअ है।बधाई।
कवयित्री सीमा कुमार हमारी नवीनतम सदस्या हैं। उन्होंने जून माह की यूनिकवि प्रतियोगिता में भाग लिया था इसी कविता के साथ। जहाँ इनकी कविता ८वें पायदान पर थी (चूँकि दो कविताएँ दूसरे स्थान पर थीं, इसलिए एक तरह से इसका स्थान सातवाँ भी कहा जा सकता है) । हमारी परम्परा रही है कि हम टॉप १० कविताओं का पूरा विश्ललेषण करते हैं। इसलिए टिप्पणी रूप में ही सही पूरा विवरण प्रकाशित किया जा रहा है।
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प्रथम चरण के ज़ज़मेंट में मिले अंक- ७, ८, ६॰५
औसत अंक- ७॰१६६६
स्थान- तीसरा
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द्वितीय चरण के ज़ज़मेंट में मिले अंक- ८॰१, ८, ७, ७॰१६६६७ (पिछले चरण का औसत)
औसत अंक- ७॰५६६७५
स्थान- पाँचवाँ
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तृतीय चरण के ज़ज़मेंट में मिले अंक- ७, ७॰५६६७५ (पिछले चरण का औसत)
औसत अंक- ७॰२८३३७५
स्थान- सातवाँ या आठवाँ
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पुरस्कार- कवि कुलवंत सिंह की ओर से उनकी काव्य-पुस्तक 'निकुंज' की स्वहस्ताक्षरित प्रति।
सीमा जी,
आपकी कविता मे छिपा हुआ रहस्य जीवन की सच्चाई ही बताता है
मरीचिका में ही उलझे रहते हैं हम हमेशा
श्रेष्ठ लेखन के लिये बधाई स्वीकारें
सस्नेह
गौरव शुक्ल
बेहतरीन कविता है। अपने मनॊभावॊं कॊ व्यक्त करने का बहुत अच्छा तरीका भी। वैसे अरहुल के फूल कॊ देखने की इच्छा हॊ रही है काश आपने चित्र दिया हॊता।
बेहद संजीदा रचना…प्रेरक भी…।
वाह क्या बात कही है... बहुत गहरी बात कह दी आपने ,,, त्याग प्रेम ,, सब समेट लिया.. बधाई ..
सीमा जी,
पंक्तिया जहाँ तोड़ी गई हैं, उसे भूल जाइए तो यह कविता नहीं एक साधारण गद्य लगेगी। कविताएँ अतुकांत होती भी हैं तब भी प्रवाह का ध्यान रखा जाता है। इसे गद्यगीत की श्रेणी में भी रखने से मैं हिचकिचाऊँगा।
सीमाजी,
बहुत सुन्दर चित्रण, आज आपके चिट्ठे पर अरहुल का फूल भी देखा (आपकी खूबसूरत कृति में), सच में बहुत खूबसूरत है, सही लिखा है आपने।
शैलेशजी की सलाह भी गौर करने लायक है, मैं भी उस पर गौर कर रहा हूँ ;-)
बधाई!!!
सीमा जी मैं हिन्द-युग्म पर आपका स्वागत करता हूँ। इस कविता के माध्यम से आपने दृश्य और अदृश्य के बीच की एक दीवार का अच्छा रेखांकन किया है। गौरव जी ने सच हीं कहा है कि यह रचना जीवन की एक सच्चाई से पर्दा उठाती है। आशा करता हूँ कि शैलेश जी की बात को आप अन्यथा न लेंगी। हर किसी के लेखन का एक अपना हीं ढंग होता है। लेकिन गद्य एवं पद्य के बींच की सीमा को हमें समझना हीं होगा। मैं भी उनकी सलाह को गंभीरता से ले रहा हूँ।
अगली बार इसी तरह का कुछ प्रेरणादायक सुनना चाहूँगा।
आप सब के समय एवँ टिप्पणियों के लिए धन्यवाद ।
सुनील डोगरा ज़ालिम जी ने फूल कॊ देखने की इच्छा प्रकट की हो इस फूल की अपनी एक कृति यहाँ लगा दी :
http://lalpili.blogspot.com/2007/07/blog-post_19.html
शैलेश जी, आपकी टिप्पणी गौर करने लायक है और मेरी इच्छा तो यही रह्ती है कि अतुकांत की जगह मैं हमेशा छंदबद्ध या गीत लिखूँ । पर भावों के प्रवाह में हमेशा छंदों क ध्यान रखना मेरे लिए संभव नहीं होता । यह गीत तो नहीं है । कविता की श्रेणी में भी रखने लायक है या नहीं, यह भी मैं नहीं कह सकती । हाँ इतना जरूर कहूँगी कि इसमें सोच की प्रधानता है, और वह भी स्कूल में पढ़ने वाली +२ की एक छात्रा की । भविष्य में लिखते समय आपकी बात का ध्यान रखने की कोशिश करूँगी ।
कविता को लेकर मेरे पास और भी कई सवाल हैं जिनमें से कुछ मैंने यहाँ लिखे थे - कोई सुझाव हो तो बताएँ : http://lalpili.blogspot.com/2007/07/blog-post_12.html
पराग की कोमलता का जिक्र
दुनियाँ नहीं करती, क्योंकि
उसकी कोमलता की अनुभूति
पास जाने पर ही होती है ।
दुनिया तो बस दूर बैठ कर
पंखुड़ियों के चटख लाल रंग को
निहारती रह जाती है
फिर भी पराग के नन्हें कण
खुद को मिटा कर, बिखरा कर
अपना अस्तित्व मिटा देते हैं
ताकि जीवन चलता रहे ।
सहृदयता और कोमलता की
बेहद अमूल्य अनुभूति
दुनिया को मिलती रहे
जब भी उसे जरूरत हो ।
सीमा जी, गहरे खोज कर लाया गया विचार और सुन्दर प्रस्तुतिकरण।
गद्य और पद्य के बीच इन दिनों बारीक लकीर रह गयी है और इसी लिये नयी कविता की कई प्रस्तुतियाँ इस चर्चा का हिस्सा हो जाती हैं। नयी कविता आपसे तुक की अपेक्षा नहीं करती किंतु शब्दों के प्रस्तुतिकरण का तौर उसमें काव्य उत्पन्न करता है।जैसे:
"सडक सुनसान थी। मैं वहाँ से गुजर रहा था।
मेरे साथ कोई नहीं था।"
इस्में कविता ढूंढें:
"राह सुनसान थी
मैं गुजरता रहा
साथ कोई नहीं.."
एक छोटा सा उदाहरण है।
आप की कविता भावना के स्तर पर पूर्ण है और कविता के सभी तत्व समाहित किये हुए है।
*** राजीव रंजन प्रसाद
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